कोरोना के संक्रमणकाल में घर की उपादेयता और उपयोगिता समझो : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज
हरमुद्दा
रतलाम, 22 मई। कलह मुक्त घर किसी मंदिर से कम नहीं होता। जिस घर का वातावरण शांत, सौम्य, सुखद और आनंददायी होता है, वह घर ही घर कहलाने लायक होता है। इसके विपरीत कलह, क्लेश, आपसी मन मुटाव, भाषा की कर्कशता, और व्यवहार की क्षुद्रता जहां होती है, वह घर नहीं घर के नाम पर कबाडखाना होता है। अपने घर को घर होने का गौरव देने वाले मानव सुज्ञ, समज्ञ और सामर्थ्यवान कहलाते है। कोरोना के इस संक्रमणकाल में हर मानव को अपने घर की उपादेयता और उपयोगिता को समझना चाहिए।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव प्रज्ञानिधि,परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि तलवार जिस तरह हिंसा का साधन बन सकती है। वैसे ही कलह भी हिंसा है और हिंसा का साधन है। कलहकारी वातावरण से सुख, समृद्धि पलायन कर जाती है। इन्द्रिय, मन और वाणी पर संयम नहीं रखने वाले व्यक्ति अपने घर में कलह को जन्म देते है। कलह का यह आंतरिक पक्ष होता है। बाहय पक्ष में अर्थ का अभाव कलह को पैदा करता है। यह सत्य है अर्थ की प्राप्ति बिना पुण्य के नहीं होती। पुण्य की कमी के कारण ही मानव आर्थिक संकटों से गुजरता हैं कई बार व्यक्ति पुरूषार्थ तो खूब करता है, पर पुण्य की कमी उस पुरूषार्थ को सफल नहीं होने देती। इसके लिए हर मानव को पुण्य वृद्धि के उपाय करने चाहिए। पुण्योंदय में हर समस्या बौनी हो जाती है। पाप के उदय में छोटी सी समस्या भी विकराल रूप धारण कर लेती है।
हर तरफ होती है उसकी उपेक्षा
आचार्यश्री ने कहा कि कलह करने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से तो घाटे में रहता ही है, भौतिक दृष्टि से भी उसे काफी नुकसान उठाना पड़ता है। उसकी किसी के साथ मैत्री नहीं रहती। सुख-दुख में कोई उसका मददगार नहीं होता। सम्मान और आदर की दृष्टि से कोई उसे नहीं देखता। हर तरफ से उसे तिरस्कार, उपेक्षा, अवज्ञा का सामना करना पडता है। कलहकारी की नीति और नियति दोनो कही विंध्वसकारी हो जाती हैं ऐसे में वह शक्ति, सन्मति और सम्पत्ति से मारा जाता है। कोई उसका हमदर्द नहीं होता। असहिष्णुता, निरपेक्षता और हस्तक्षेप करने की चेष्टा उसके जीवन में नए कलहों को उत्पन्न करने की फैक्ट्ररी बन जाती है।
बुरे नहीं है विचार भेद
उन्होंने कहा कि विचार भेद बुरे नहीं है, यह तो बौद्धिकता की उपज और कसौटी है, मगर विचार भेद जब मनोभेद और छींटाकशी में बदल जाते है, तब वो कलहकारी बन जाते है। कलहकारी वातावरण विषाक्त होता है। उसमें ना परिवार का प्रेम बढता है, ना समाज का सम्य और ना ही देश उन्नति के शिखर को छू सकता है।
बुद्धि की शुद्धि में ही सुख-समृद्धि
आचार्यश्री ने बताया कि मानव बुद्धिमान कहलाता है। वह अपनी बुद्धि से क्या नहीं कर सकता। बुद्धि की शुद्धि में ही सुख-समृद्धि और सारी रिद्धि-सिद्धियां बसी हुई है। अशुद्ध बुद्धि कलहकारी होती है और शुद्ध बुद्धि उत्पन्न कलह को शांत तथा समाप्त करती है। अपनी बुद्धि का उपयोग कलह की समाप्ति में करने वाले महामानव होते है। आग लगाना सरल है, मगर लगी आग को बुझाना कठिन है। शुद्ध हदयी बुद्धिमान लोग आग बुझाने का काम करते है। इसी में उनके जीवन की सफलता और सार्थकता होती है।
नारी का पढा-लिखा होना नहीं संस्कारवान होना जरूरी
घर की मुख्य धुरी नारी होती है। नारी संस्कारी होती है, तो घर को आबाद कर देती है। संस्कारविहिन नारी घर को बर्बाद कर देती है। नारी का पढा-लिखा होना ही पर्याप्त नहीं होता। उसे संस्कारवान होना जरूरी है। संस्कारी नारी परिवार के लिए भारभूत नहीं होती, वह भारभूत बने परिवार को सारभूत बना लेती है। घर में रिश्तों का ताना बुना होता है, उसमें तालमेल से रहना अच्छे नारी के लक्षण है। जो नारी कलह, संघर्ष, विग्रह और वैषम्य पैदा करती है, वह सन्नारी नहीं कहलाती। सन्नारी के बिना घर गौरवशाली नहीं बनता।