यादों के झरोखे से : खुली किताब की तरह ऐसे सरल, सहज और आत्मीय थे प्रभु दा

 संजय तेलंग

वैसे तो दुनियाभर में प्रभु जोशी के प्रशंसक मिल जाएंगे लेकिन इंदौर और मप्र में साहित्य, कला और पत्रकारिता से जुड़ा शायद ही कोई होगा जो प्रभु दा को न जानता हो। अपने जानने वालों के हृदय में उनके लिए काफी अहम स्थान था। उनसे जुड़े हर व्यक्ति ने उनसे कुछ न कुछ सीखा ही। उनसे जुड़े हर व्यक्ति के साथ कुछ न कुछ ऐसे संस्मरण जरूर हैं जिन्हें भुलाना संभव नहीं है।

80 के दशक में नईदुनिया में मुझे भी प्रभु दा के सान्निध्य में कुछ साल काम करने का अवसर मिला। नईदुनिया में प्रभु दा उन दिनों फीचर का काम संभालते थे। मैं इस फील्ड में बिल्कुल नया था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रभु दा की खासीयत यह भी थी कि नए लोगों को उन्होंने अपने साथ रहते हुए कभी असहज नहीं होने दिया।  मेरे साथ भी यही हुआ। इस अवधि में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। नए-नए विषय पर लिखने के लिए न सिर्फ प्रेरित करते थे बल्कि लिखने में मदद भी करते थे। उनके काम के बारे में कुछ लिख सकूं,  मैं स्वयं को इस काबिल नहीं समझता। वह तो उन्हें मिले अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार ही बताने के लिए पर्याप्त हैं। उनके साथ काम के दौरान का एक रोचक संस्मरण मैं कभी नहीं भूल सकता।

यह संस्मरण बताता है कि वे इतने बड़े होने के बावजूद कितने सामान्य और सरल थे। बिल्कुल खुली किताब की तरह।
नईदुनिया में प्रभु दा के पास कोई केबिन नहीं था। वे चलते- फिरते काम करते थे। कहीं भी खाली चेयर देख बैठ जाते और लेखों का संपादन कर देते। उनका इंट्रो बना देते। ऐसे ही एक दिन वे मेरे पास की खाली चेयर पर बैठे अपना काम निपटा रहे थे। जाड़े के दिन थे। अचानक मेरा ध्यान उनके शॉल पर गया। साथ ही शॉल पर लिखा मिल का नाम भी मुझे दिखाई दिया। शायद ग्वालियर सूटिंग लिखा हुआ था। मैंने जिज्ञासावश पूछ ही लिया प्रभु दा ग्वालियर सूटिंग वाले क्या शॉल भी बनाने लगे हैं? उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया अरे! नहीं संजय। दरअसल यह सूट का कपड़ा ही है। सूट बनवाने का समय नहीं मिल रहा है। इसलिए ऐसे ही ओढ़ कर चला आया। ऐसे सरल इंसान थे प्रभु दा।
प्रभु दा प्रभु आपको अपने श्री चरणों  नहीं दिल में स्थान देंगे।

संजय तेलंग

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