गरीबी में गुड़ गीला 

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🔲 आशीष दशोत्तर

” गुड़ है क्या?” एक ग्राहक ने जैसे ही उससे पूछा उसके चेहरे पर चमक आ गई। ऐसा लगा वह इसी ग्राहक का इंतज़ार कर रहा था। वहां खड़े अन्य दो ग्राहकों से ध्यान हटाते हुए वह इस से तत्काल बोला, हां है। चखेंगे या देखेंगे। ग्राहक ने कहा गुड़ तो गुड़ है भाई। इसमें देखना या चखना क्या। दुकानदार ने पूछा, तो फिर कितना दूं? ग्राहक ने कहा, एक किलोग्राम दे दो। उसने तत्काल एक किलो गुड़ तोला और ग्राहक को दे दिया।

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ग्राहक से पैसे लेने के बाद वह दूसरे ग्राहकों की ओर मुखातिब हुआ, जिनमें एक मैं भी था। मैंने उससे पूछा, गुड़ बेचने में तुम्हारी काफी दिलचस्पी दिखती है। उस ग्राहक ने गुड़ मांगा तो तुमने हम सभी से ध्यान हटाकर उसे सबसे पहले गुड़ दिया। वह बोला, दिलचस्पी नहीं बाबू जी। ग़रीबी में गुड गीला हो रहा है।

मैं समझा नहीं। अब तक मुझे ग़रीबी में आटा गीला होने वाला मुहावरा ही याद था, लेकिन आज जब इसने ग़रीबी में गुड़ गीला होने की बात कही तो आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा ग़रीबी में गुड़ कैसे गीला हो रहा है। मेरे सवाल पर उसने अंदर रखे चार बड़े खोखों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, यह देख रहे हैं न। इनमें गुड़ ही भरा है। बाज़ार में हवा चली थी कि गुड़ की ग्राहकी अब बढ़ने वाली है। इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए लोग गुड़ का इस्तेमाल कर रहे हैं। मैं इसी भरोसे गुड़ ले आया। एक खोखे में 20 किलो यानी 100 किलो गुड़ मेरी छोटी सी दुकान में दो माह से रखा हुआ है। अब तक इसमें से सिर्फ दस किलो गुड़ ही बिका है। मैंने कहा, इसमें चिंता करने की क्या बात है। इतना बिका है तो बाकी भी बिक जाएगा। वह कहने लगा, चिंता हो रही है बाबूजी। बारिश का मौसम शुरू हो गया है। कितना ही बचा कर रखो गुड़ में नमी आ ही जाती है। एक बार गीला हुआ तो फिर इसे लोग ख़रीदने से भी कतराएंगे। मेरी चिंता यही है। इतनी छोटी जगह में इस गुड़ को रखूं और नहीं बिका तो मेरा इतना नुकसान होगा कि कह नहीं सकता।
मैंने उसकी दुकान की तरफ देखा। वह वाकई बहुत छोटा दुकानदार था। छोटा भी इतना कि थोड़ा बहुत सामान ला ला कर बेचता रहा होगा। हालांकि उसकी दुकान में ज़रूरत का सारा सामान उपलब्ध था, मगर सामान बहुत कम-कम ही था। मैंने पूछा, अब क्या करोगे? उसने कहा, करना क्या है। जैसे पिछले तीन माह से भुगत रहे हैं, यह भी भुगतेंगे। मैंने कहा, तीन माह में तो तुम्हारी अच्छी ग्राहकी हुई होगी। लोगों की भीड़ लगी रही होगी। वह बोला, ग्राहकी तो बड़े दुकानदारों की होती है। वे माल दबाते भी है और भाव बढ़ने पर निकालते भी हैं। लोग हमसे उस मजबूरी में ही सामान लेते हैं। बाज़ार में कुछ न मिले या एकदम ज़रूरी हो। इस पर भी एक रुपया भी यहां बाज़ार से ज्यादा ले लो तो लोग दस बात अलग सुनाते हैं। ऐसे में बताइए कि हम क्या कमाते हैं। और उस पर यह गुड़ जैसा मामला हो जाए तो अब तक कमाया, नहीं कमाया सब बराबर हो जाता है।

उसका कथन सुनकर आंखों के सामने में सारे छोटे दुकानदार नज़र आने लगे जो अपने छोटे व्यवसाय को बचाए रखने के लिए अपने क्षेत्र में सामान पहुंचाने का काम कर रहे हैं। ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसे जुमले यहां बेमानी नज़र आ रहे हैं । इनकी आवाज़ कौन सुनेगा, और सुन भी लेगा तो इनकी आवाज़ बनेगा कौन? इनकी उम्र तो गीले गुड़ की चिंता में ही गुज़र जाएगी।

🔲 आशीष दशोत्तर

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