चित मैं जीता, पट तू हारा
आशीष दशोत्तर
जय के हाथ में सिक्का देख वीरू का माथा ठनका। ‘अपने दोस्त की जान बचाने के लिए तूने इस सिक्के का इस्तेमाल किया? दोनों तरफ चित वाला सिक्का इस्तेमाल कर तूने अपने दोस्त को ‘चित’ कर दिया। मगर तेरी यह कुर्बानी मैं बेकार नहीं जाने दूंगा।’ यह डायलॉग मरते हुए वीरू ने सिक्का हवा में उछाल दिया। टन…. टन की आवाज़ के साथ सिक्का दूर गिर गया और वीरू चला गया गब्बर को निपटाने। रामगढ़ वाले अपनी रामकहानी में खो गए ।
उस सिक्के की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया । व्यवस्था ने उस सिक्के पर संज्ञान लिया। अक्सर व्यवस्था ऐसी महत्वपूर्ण चीजों पर ही संज्ञान लिया करती है। जहां किसी का ध्यान नहीं होता व्यवस्था का ध्यान वहीं केन्द्रित होता है। व्यवस्था ऐसी महत्वपूर्ण चीजों को ज़मीन खोदकर भी निकलवा लिया करती है। फिर यह तो एक सिक्का था , जो रामगढ़ के किसी पत्थर से टकराकर वहीं पड़ा था। व्यवस्था ने खोजबीन करवाई । काफी मशक्कत के बाद वह सिक्का हाथ लग गया। सिक्का हाथ में लेते ही व्यवस्था न उसे जांचा- परखा। अपनी कसौटी पर खरा उतरने के बावजूद व्यवस्था ने कोई रिस्क नहीं ली। सिक्के का परीक्षण निजी स्तर पर भी करवाया। वहां से ओके रिपोर्ट मिलते ही व्यवस्था को विश्वास हो गया कि यह सिक्का सौ टके का है। चलेगा तो चल निकलेगा। खोट वाले इस खरे सिक्के को पा कर व्यवस्था की बांछें खिल गई।
व्यवस्था को आप चाहे जो कहें, इसके हाथ काफी लंबे होते हैं, दिमाग़ तेज़ और दायरा विस्तृत। ये कहीं से भी कुछ भी हासिल करने में माहिर होती है। व्यवस्था के हाथ में यह सिक्का आते ही कमाल हो गया। उसके हाथ में सब कुछ आ गया। उसका सिक्का चल निकला।
अब हर किसी बात के लिए व्यवस्था की ओर से यही सिक्का उछाला जाता। हर बार सिक्का व्यवस्था के पक्ष में ही गिरता। सिक्का कभी खड़ा नहीं होता। न कभी लोगों के पक्ष में गिरता। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर उनके दिन कब फिरेंगे? कब सिक्का उनकी तरफ गिरेगा ? ज़िंदगी के खेल में टॉस जीतने का टास्क लोगों के लिए मुश्किल हो गया।
अमूमन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। व्यवस्था के पास जो सिक्का था उसका एक ही पहलू था, व्यवस्था का विकास । व्यवस्था के साथ, व्यवस्था का ख़ास । इस सिक्के ने व्यवस्था को कभी निराश नहीं होने दिया। व्यवस्था की कभी हार नहीं होने दी। व्यवस्था का सिक्का तेज गति से दौड़ रहा था। सब दूर यही सिक्का उछल रहा था।
व्यवस्था ने इस सिक्के का भरपूर इस्तेमाल किया। हर काम में पूर्ण पारदर्शिता बरतते हुए यही सिक्का उछाला जाता। सब कुछ लोगों की नज़रों के सामने होता। किसी से कोई दुराव -छिपाव नहीं । सिक्का ज़मीन पर आते ही लोगों के अरमान ध्वस्त हो जाते और व्यवस्था की पौ बारह। व्यवस्था का यह सिक्का निरन्तर ‘चित मैं जीता,पट तू हारा’ की पुरज़ोर आवाज़ के साथ उछल रहा है।
आशीष दशोत्तर