एक मुलाकात गीतकार सुरेश श्रोत्रिय ‘प्रवासी’ से : राहें बड़ी अगम हैं , राही न तू भी कम है
आशीष दशोत्तर
कवि अपनी रचना यात्रा में कई सारे दृश्यों से गुज़रता है। कई परिस्थितियां उसे प्रभावित करती है । कई लम्हे उसे खुशी देते हैं । कई पल उसे पीड़ा भी पहुंचाते हैं। कवि अपनी दृष्टि में उन सभी चित्रों को समेटता जाता है और उसे एक दिन रचनाओं में ढालकर पेश करता है। वे रचनाएं समाज को प्रतिबिंबित करती हैं। समाज के सामने उसी का चेहरा रखती है।
सुमधुर गीतकार एवं प्रभावी शब्द रचना के धनी रहे कवि, गीतकार सुरेश श्रोत्रिय ‘प्रवासी’ की रचनाओं में भी ऐसे दृश्य बार-बार उभरते हैं । वे वाचिक परंपरा से भी जुड़े रहे और उन्होंने विशुद्ध साहित्यिक रचनाएं भी लिखीं। मंच से जुड़े रहने के बावजूद उन्होंने कभी अपनी रचनाओं में स्तर की कमी नहीं आने दी । वे अपनी रचनाएं अपनी शैली में लिखते रहे । मंचों से प्रस्तुति देते वक्त उनकी वे रचनाएं उनके मुंह से सुनकर श्रोता प्रभावित हुए बिना नहीं रहते।
गंभीरता से अपनी प्रस्तुति देना और उसे सुमधुर आवाज़ में प्रस्तुत करना उनकी ख़ासियत रही। प्रवासी जी के गीतों में हमारे वे पारिवारिक संदर्भ शामिल दिखाई देते हैं, जिनसे हमारे संबंध कायम हैं। जैसे वे मां पर रचना लिखते हैं तो उस रचना को पढ़ कर ऐसा लगता है कि वे अपनी मां की बात नहीं कर रहे ,बल्कि हर व्यक्ति की मां की बात कर रहे हैं। यही उनकी रचनाओं की सफलता रही।
चिड़ियों के जगने से पहले रोज सुबह जग जाती मां
रात ढले सब सो जाते हैं तब जाकर सो पाती मां
बड़े-बड़े दु:ख-दर्द सभी कुछ हंसकर के सह जाती मां
धागा बन बिखरे मोती को सदा समेटे रहती मां ।
मां तुझ में है नूर खुदा का, ईश्वर की पहचान मां
तुझसे बढ़कर कोई नहीं है दुनिया में भगवान मां।
श्री प्रवासी का जन्म 2 अप्रैल 1958 को हुआ और अवसान 11 फरवरी 2018 को । उम्र के लिहाज से उन्हें समय तो मिला मगर उनकी व्याधियों ने उन्हें सृजन के लिए अधिक वक्त नहीं दिया। जीवन के अंतिम आठ -दस वर्ष तो उनके बीमारियों से जूझते हुए गुज़रे। इस लिहाज से उन्होंने बहुत कम समय में अपना साहित्य रचा। उन्होंने अपने उपनाम ‘प्रवासी’ की तरह ही जीवन का सफर तय किया। वे बहुत कम बोलते थे, मगर जितना बोलते थे मधुर बोलते थे। इसी तरह उन्होंने लिखा भी बहुत कम ,मगर जितना लिखा वह सार्थक और सामयिक।
सूरज प्रवासी और संध्या भी प्रवासी
देखो धरती प्रवासी, सारे तारे भी प्रवासी हैं।
जल भी प्रवासी और पवन भी प्रवासी
देखो धरती का हर कण-कण भी प्रवासी है।
श्री प्रवासी हिंदी और संस्कृत में तो निपुण थे ही, वे अपने मालवी गीतों के लिए भी जाने जाते थे। इस दौर में यह सुखद आश्चर्य हो सकता है कि श्री प्रवासी अपने घर में परिजनों से संस्कृत में संवाद किया करते थे। यह उनकी एक भाषा के प्रति समर्पण भावना थी । श्री प्रवासी के काव्य में कई सारे रिश्ते बिखरे हुए हैं। वे उन रिश्तों को न सिर्फ अपने गीतों में अभिव्यक्त करते रहे बल्कि उन्हें जीते भी रहे। मसलन उनका बेटी पर लिखा हुआ गीत बहुत मार्मिक है, जिसमें उन्होंने बेटी को मज़बूत बनाने का आह्वान किया है। आज हम जिस नारी सशक्तिकरण की बात करते हैं ,प्रवासी जी ने अपने गीत के जरिए उसे बखूबी अभिव्यक्त किया है।
जुल्मों सितम सहेगी ये हैवानियत हज़ार
शौहर को फिर भी मानती भगवान बेटियां ।
जी भर के प्यार दो इन्हें खुशियां जहान की
दो-चार दिन की ओर हैं मेहमान बेटियां।
इसी तरह वे बुजुर्गों के प्रति भी एक गीत में बहुत सम्मान व्यक्त करते हैं। दरअसल हमारे रिश्ते ही हमारी रचनाधर्मिता को आगे बढ़ाते हैं । हमारे आसपास बिखरे हुए वे शब्द जो हमें अपने परिवार से प्राप्त होते हैं, अपने समाज से प्राप्त होते हैं, उन्हें ही एक रचनाकार अपनी रचनाओं में व्यक्त करता है । परिस्थितियां , परिवेश उसे चाहे जिस वैचारिक पृष्ठभूमि में रहने के लिए बाध्य करे, मगर वह उन परिस्थितियों में रहते हुए भी अपनी संवेदनाओं को खत्म नहीं होने देता । अपने उन रिश्तों को खत्म नहीं होने देता जो उसके भीतर स्थापित हो चुके हैं। प्रवासी जी भी उन रिश्तों को अपनी रचनाओं में शिद्दत से अभिव्यक्त करते रहे।
राहों में सबकी फूल ही बोते हैं बूढ़े लोग
सच मानिए के देवता होते हैं बूढ़े लोग ।
सहमे अकेले कोने में बैठे हैं वो उदास
बेआस बूढ़ी आंख से रोते हैं बूढ़े लोग।
विचारधारा के स्तर पर प्रवासी जी को आर्यसमाजी माना जाता रहा । वे आर्य समाज से काफी जुड़े रहे और उन्होंने कई सामाजिक सेवाओं में भी शिरकत की ,मगर उनके भीतर मजदूरों के लिए, वंचितों के लिए, शोषित वर्ग के लिए एक दर्द था। वे इस दर्द को अपने गीतों में भी व्यक्त करते रहे ।मेहनतकश को उसकी मजदूरी का पूरा दाम मिले ।उसे सम्मान मिले ।उसका अपना संगठन हो । उसकी आवाज़ को उठाने वाले हों । इन सब चिंताओं को व्यक्त करते हुए प्रवासी जी का आर्य समाजी पक्ष पीछे रह जाता है और वे एक जन सरोकारों वाले कवि के रूप में उभरते हैं । उनका इस वर्ग के प्रति आकर्षण और समर्पण उनके गीत स्वयं कहते हैं।
ओ दुनिया के मेहनतकश फिर हमें संगठन गढ़ना है
लिए हाथ में हाथ सभी को हरदम आगे बढ़ना है
शोषण ,अत्याचारों से भी हर पल हमको लड़ना है
हक़ के ख़ातिर वीर प्रवासी हंसते-हंसते मरना है।
इतना ही नहीं वे उस श्रमिक के संघर्ष को भी व्यक्त करते हैं जो अपनी कोशिशों से हर मुश्किल को आसान बना देता है । जो अपने संघर्षों को कभी अभिव्यक्त नहीं करता। ऐसे मेहनतकश इंसान को लेकर प्रवासी जी ने कई गीत लिखे।उस मजदूर के जीवन से एकाकार होते हुए उसे अपनी दर्द भरी आवाज़ में मंचों से प्रस्तुत भी किया।
मैंने अपने श्रम से ही पर्वत को धूल बनाए हैं
टीले, खाई समतल कर ऊसर में फूल खिलाए हैं
तेज मचलती नदियों पर मैंने ही बांध बनाए हैं
अन्नकणों के मोती से धरती के हार सजाए हैं।
वे उस संघर्षशील मनुष्य को सिर्फ अपने गीतों में व्यक्त ही नहीं करते रहे बल्कि उसे उन गीतों से ताक़त भी देते रहे। कई आयोजनों में उन्होंने इन मेहनतकश लोगों के बीच पहुंचकर भी इन गीतों को प्रस्तुत किया। उनका यह जज़्बा बताता था कि वे जिनके लिए लिख रहे थे, उनके बीच पहुंचकर उनकी बातों को प्रस्तुत कर उन्हें संबल प्रदान करते रहे।उनकी सहायता करते रहे और उन्हें ताक़त देते रहे।
राहें बड़ी अगम है ,राही न तू भी कम है
पर्वत उठाए तूने बाहों में तेरे दम है ।
शोलों की राह पे हरदम सीखा है तूने चलना
पतवार थामे रखना आगे ही बढ़ते रहना।
वे खुद को कुछ राही के साथ खड़े रखना चाहते थे जो किसी को राह दिखा रहा है ।किसी के लिए रहा बना रहा है और किसी के लिए मंज़िल तय कर रहा है । वे शिखर के बजाय सड़क के मुसाफिर बने रहना पसंद करते थे ।यही उनके गीतों में, उनकी कविताओं में भी व्यक्त होता रहा।
मैं पहाड़ के शिखर पर
नहीं उगना चाहता हूं
एकाकी पेड़ की तरह मैं
सुख-दुख अपनों में बांटना चाहता हूं ।
उनके दुःख- दर्द लेना चाहता हूं
फलदार पेड़ बन कर
सबके साथ रहना चाहता हूं।
साहित्यकार होना अलग बात है मगर साहित्यकार की तरह ईमानदारी से जीवन जीना अलग बात। श्री प्रवासी इस मायने में ईमानदार साहित्यकार थे। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को कागज़ पर उतारा । वे संगीत में भी निपुण थे। संगीत की उन्होंने विधिवत शिक्षा प्राप्त की थी । विभागीय स्पर्धाओं में उन्होंने अपनी श्रेष्ठ प्रस्तुतियां दी थी। इस लिहाज से वे साहित्य के साथ स्वर के भी साधक थे । यह संयोग कम रचनाकारों में ही देखने को मिलता है । उन्होंने इसका लाभ भी लिया अपने साहित्य को छंदबद्धता की तरफ मोड़ा। गीतों की रचना की। यद्यपि उन्होंने छंदमुक्त रचनाएं भी लिखीं ।उनका मत रहा कि किसी भवन के कंगूरे बनने से बेहतर है नींव का पत्थर बनना। उन्होंने बहुत ख़ामोशी के साथ इस नींव के पत्थर की तरह अपने साहित्य की इमारत खड़ी की।
जब भी कलश का दोस्तों सम्मान हम करें
तब नींव के भी पत्थरों का ध्यान हम करें ।
बेशक नई सुबह का गुणगान हम करें
उगते हुए सूरज का ध्यान हम करें ।
जो लड़ रहा था रात भर उजाले के लिए
उस दीप का भी दोस्तों सम्मान हम करें।
प्रवासी जी अपनी कोशिश से व्यवस्था के अंधकार को मिटाने प्रयास करते रहे। एक रचनाकार के रूप में उनका दृष्टिकोण व्यापक था । उन्होंने भलाई और सच्चाई का दामन नहीं छोड़ा, यही उनकी रचनाओं की ताक़त थी।
ताउम्र लड़ना है मुझे
अंधकारों से ,तूफानों से
शूल बनकर आंधियों की
आंख में खलता रहूंगा।
सुरेश ‘प्रवासी’ जी का साहित्यिक सफर काफी संभावनाओं से भरा रहा । यदि वक्त और साथ देता तो उनकी और बेहतरीन रचनाएं हमारे समक्ष आ सकती थी । मगर उन्होंने जितना रचा, बेहतर रचा । वह उनकी लेखनी को चिर स्मरणीय बनाए रखेगा।
आशीष दशोत्तर