व्यंग्य में विचार तत्व होना चाहिए, जो कुरेदे पाठक की संवेदना को

 व्यंग्य धारा की ऑनलाइन गोष्ठी में हुई समकालीन व्यंग्य पर चर्चा

हरमुद्दा
रतलाम, 6 नवंबर। व्यंग्य में विचार तत्व होना चाहिए, जो पाठक की संवेदना को कुरेदे।व्यंग्यधारा की ओर से 78 वीं ऑनलाइन वीडियो गोष्ठी के अंतर्गत “इस माह के व्यंग्य’ कार्यक्रम में प्रमुख वक्ता के रूप में वरिष्ठ व्यंग्यकार कमलेश पाण्डेय (नोएडा)ने अपने उदबोधन में कहा। गोष्ठी के अन्य प्रमुख वक्ताओं में तीरथ सिंह खरबंदा (इंदौर), ललिता जोशी (दिल्ली), आशीष दशोत्तर (रतलाम) का समावेश था।

कमलेश पांडेय ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आजकल कॉलम के फ्रेम में व्यंग्य लेखन किया जा रहा है जिसमें शब्द सीमा और विचार की कमी है। व्यंग्यकारों को जोखिम उठानी होगी। व्यंग्य में सुरक्षित भाव नहीं चलता। अपनी दृष्टि और पैनी करनी होगी। पर्दे के पीछे छिपी विद्रुपताओं को पहचानने की आवश्यकता है।

व्यंग्यकार विषय के चयन में भटकाव के शिकार हो रहे हैं।उन्होंने मुकेश जोशी के व्यंग्य ‘किश्तों में क्या-क्या खरीदोगे’ तथा मुकेश राठौर के व्यंग्य ‘लोग कह रहे हैं…आइए मंत्री जी’ पर चर्चा करते हुए कहा कि दोनों व्यंग्य आज के दौरा का हल्के ढंग से प्रतिनिधित्व करते हैं। नया कुछ नहीं है। ‘किश्तों में क्या-क्या खरीदोगे’ में अखबारों के बाजारू विज्ञापन पर केंद्रित है।जो सपाट बयान बन कर रह गया है. ‘लोग कह रहे हैं…आइए मंत्री जी’ एक अच्छे विषय पर ढीला-ढाला व्यंग्य है। विचारधारा का अभाव है। भाषाई दृष्टि से भी कमजोर है। 
        
गोष्ठी की शुरुआत करते हुए ललिता जोशी ने डॉ. मलय जैन के व्यंग्य ‘हेलिकॉप्टर पर बारात’ की समीक्षा करते हुए कहा कि व्यंग्य में दहेज की कुरीतियों और समाज की विसंगतियों पर प्रहार किया गया है। दूसरों को अपने से छोटा देखने की फितरत पर कटाक्ष है। डा. अजय अनुरागी के व्यंग्य ‘साहब काम से गए हैं’ में शासनतंत्र की कमियों को उजागर किया गया है। कार्यालयों में चपरासी, पीए की कार्यशैली पर तीखा कटाक्ष किया गया है।
      
आशीष दशोत्तर ने जीवन के विविध क्षेत्रों में आनेवाले परिवर्तनों पर कटाक्ष करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि अखबारी व्यंग्य में शब्द सीमा का ध्यान रखना पड़ता है। कम शब्दों में अपनी बात कहनी पड़ती है। उन्होंने राजशेखर चौबे के व्यंग्य ‘सोशल मीडिया में श्रद्धांजलि’ को अच्छा और प्रभावी व्यंग्य बताते हुए कहा कि कम होती संवेदनशीलता और रिश्तों में आ रही दूरियों पर प्रहार किया गया है। प्रेमचंद ‘द्वितीय’ का व्यंग्य ‘जो सुख है उसी का दु:ख है’ सीमित शब्दों में होने के कारण पूर्णता का अभाव है। व्यंग्य में और विस्तार की गुंजाइश है। हालांकि कई अच्छे पंच है।
तीरथसिंह खरबंदा (इंदौर) ने कहा कि सरल होने से ही व्यंग्य अच्छा नहीं होता, बल्कि बौद्धिकता भी जरूरी है। विडंबना यह है कि व्यंग्यकार छोटी विसंगतियों को तो छू रहे हैं, लेकिन बड़ी विसंगतियों की अनदेखी कर रहे हैं। श्री खरबंदा ने कहा कि व्यंग्य की लोकप्रियता का मुख्य कारण अखबारी व्यंग्य है। बड़े लेखकों ने भी कॉलम लिखे। कम शब्दों में अधिक बात कहना सर्वश्रेष्ठता है। उन्होंने व्यंग्य को नकारने की प्रवृत्ति पर अंकुश  लगाने पर जोर दिया। उन्होंने बी.एल. आच्छा के व्यंग्य ‘ये कुर्सी पर नजर का कसूर है’ पर बात करते हुए कहा कि इसमें नाजायज राजनीति पर कटाक्ष है। नई भाषा और नए शिल्प का प्रयोग किया गया है। संतोष ‘उत्सुक’ के व्यंग्य ‘वह दु:ख ही क्या जो आदत न बदले’ को अच्छा बताते हुए कहा कि व्यंग्य में सोशल मीडिया पर प्रहार किया गया है।
 
गोष्ठी का संचालन करते हुए वरिष्ठ व्यंग्यकार रमेश सैनी (जबलपुर) ने कहा कि चिंता की बात यह है कि हम अपने सोच की सहज स्थिति में नहीं है। डरे हुए हैं। लेखक संपादक को बचाकर चल रहे हैं। वर्तमान दौर में कम शब्दों में व्यंग्य लिखने के चक्कर में पूरी बात नहीं कर पा रहे हैं।

जवाहर चौधरी ने कहा कि व्यंग्यकार सुरक्षात्मक भाव से बचते-बचाते लिखेगा तो वह अपना धर्म नहीं निभा पाएगा। उन्होंने कहा कि व्यंग्यधारा समूह की गोष्ठी से व्यंग्य को सुनने के साथ ही उसे समझने में भी मदद मिलती है। पंकज साहा ने कहा कि व्यंग्यकार की जिम्मेदारी है कि वह यह देखे कि जो लिख रहा है वह व्यंग्य है भी या नहीं। संपादक को भी अपना धर्म निभाना होगा। डॉ राजीव कुमार रावत ने कहा कि व्यापक परिवेश को समझकर ही व्यंग्य लिखा जा सकता है। 

व्यंग्यकार अपनी आलोचना को भी स्वीकारे। प्रो. सेवाराम त्रिपाठी ने सवाल उठाते हुए कहा कि क्या व्यंग्यकार कॉलम लिखने के लिए ही बने हैं। परसाई जी भी कलम लिखते थे। आज लेखक ही  नहीं, संपादक भी डरे हुए हैं। साहस दिखाना होगा। लिख कर पिटते हैं तो यह साहस का काम है। समय के अंतर्विरोधों को पहचानने की आवश्यकता है। बृजेश कानूनगो (इंदौर) ने भी अपने विचार व्यक्त किए। डॉ विनोद कुमार मिश्रा ने कहा कि हमारे समय का व्यंग्य और साहस ही लोकतंत्र को बचा सकता है। रामस्वरूप दीक्षित ने व्यंग्य, उसके स्वरूप, दृष्टि और आचरण पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता पर जोर दिया।

संचालन सहभागिता  प्रखर व्यंग्य आलोचक डाँ.रमेश तिवारी (दिल्ली) ने बखूबी निभाई। तकनीकी मार्गदर्शन श्री अरुण अर्णव खरे (बेंगलुरु) का रहा। आभार प्रदर्शन टीकाराम साहू ‘आजाद’ ने किया। व्यंग्य रचना विमर्श गोष्ठी में सर्वश्री मधु आचार्य ‘आशावादी’ ( बीकानेर ),सुधीर कुमार चौधरी (इंदौर), अनूप शुक्ल (शाहजहांपुर)  राजशेखर चौबे (रायपुर),  बुलाकी शर्मा (बीकानेर), श्रीमती वीना सिंह  (लखनऊ), श्रीमती रेणु देवपुरा (उदयपुर),  प्रभाशंकर उपाध्याय (सवाई माधोपुर), सुरेश कुमार मिश्र”उरतृप्त (हैदराबाद),  मुकेश राठौर,(भीकनगांव मप्र), अभिजित कुमार दूबे (अगरतला), जय प्रकाश पाण्डेय (जबलपुर), डाँ. महेन्द्र सिंह ठाकुर (रायपुर), चेतना भाटी, सौरभ तिवारी, सूर्यदीप कुशवाहा आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।

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