यात्रा वृत्तांत : धर्म और प्रकृति के सौन्दर्य की यात्रा
⚫ आशीष दशोत्तर
प्रकृति को महसूस करने के लिए उत्तर भारत की यात्रा करने का मन काफी समय से था। सुना था यहां प्रकृति के क़रीब आने का अवसर मिलता है और नैसर्गिक छवियों से गुज़रने का भी अवसर मिलता है। ये दृश्य जो कभी से हमारे मन में बसे हुए थे, उनके पास जाने का अहसास अद्भुत होता है। संयोग से यह अवसर उपस्थित हुआ और इस्कॉन उज्जैन यात्रा समूह के साथ हम भी उत्तर भारत की यात्रा पर निकल पड़े।इस पूरी एक पखवाड़े की यात्रा में बहुत कुछ देखा , बहुत कुछ महसूस किया लेकिन जो प्रकृति के दृश्य मन के भीतर बसे वह शायद उम्र भर नहीं निकाल पाए। यात्रा के कुछ दृश्य से आइए गुज़रते है।
हम 21 सितंबर को रतलाम से रवाना हुए। शाम को उज्जैन से ट्रेन से हरिद्वार के लिए प्रस्थान कर 22 सितंबर को हरिद्वार पहुंचे। वहां से बस द्वारा बाड़ा कोट पहुंचे। 23 और 24 सितंबर दो दिन बाड़ा कोट मे रहे।
24 को यमुनोत्री दर्शन से चार धाम यात्रा की शुरुआत हुई। यमुनोत्री के क़रीब पहुंचने के लिए छह किलोमीटर की चढ़ाई पैदल चढ़े। यह बहुत मुश्किल चढ़ाई है। यहां चढ़ने के लिए पालकी, पिट्ठू और खच्चर उपलब्ध रहते हैं, मगर हमने पैदल ही चढ़ाई की। यमुनोत्री उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से 3235 मीटर ऊँचाई पर स्थित मंदिर है। यह मंदिर देवी यमुना का मंदिर है। पौराणिक गाथा के अनुसार यह असित मुनि का निवास था। वर्तमान मंदिर जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं सदी में बनवाया था। भूकम्प से एक बार इसका विध्वंस हो चुका है, जिसका पुनर्निर्माण कराया गया। तलहटी में दो शिलाओं के बीच गरम जल का स्रोत है,वहीं पर एक संकरे स्थान में यमुनाजी का मन्दिर है। शीतोष्ण जल का मिलन स्थल ही यमुनोत्तरी है। यहां गर्म जल के कुण्ड में स्नान कर यमुना के निर्मल स्पर्श से पूरी थकान भूल गए। ऊपर से उतरते हुए हमें रात हो गई।
उत्तरकाशी
यहां से हमारी बस रवाना हो कर उत्तर काशी पहुंची। 25 और 26 सितंबर को तीर्थ और प्रकृति के मनोरम स्थल उत्तरकाशी में पहुंच गए। उत्तरकाशी ऋषिकेश से 154 किलोमीटर की दूरी पर ऋषिकेश-गंगोत्री मार्ग पर स्थित है। विश्वनाथ मंदिर इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण और प्राचीन पवित्र मंदिर है। विश्वनाथ मंदिर के आंगन के भीतर और उसके सामने, शक्ति मंदिर, शक्ति की देवी को समर्पित है। इस मंदिर से पेश किए जाने वाले बड़े पितंग त्रिशूल के समीप एक अभिलेख में दर्शाया गया है कि मंदिर का निर्माण राजा गणेश्वर द्वारा किया गया था। जिसका बेटा गुह ने त्रिशूल का निर्माण किया। 26 फीट ऊंची, इस त्रिशूल के आधार 8 फीट 9 इंच, और इसकी ऊपरी परिधि 18 ‘/ 2 इंच है । गोपेश्वर शहर भी में एक शिव मंदिर और संस्कृत शिलालेख के साथ एक त्रिशूल भी शामिल है। यह बहुत छोटा है। यहां का प्राकृतिक वातावरण मन मोहने वाला है।
यहीं से 26 सितंबर को गंगोत्री दर्शन के लिए रवाना हुए। गंगोत्री दर्शन सबसे सरल है क्योंकि यहां मंदिर के करीब तक बस पहुंचती है। गंगा के उद्गम स्थल से जुड़ी पौराणिक कथाओ के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या की थी। इस पवित्र शिलाखंड के निकट ही 18 वी शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण किया गया। ऐसी मान्यता है कि देवी भागीरथी ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। यह भी मान्यता है कि पांडवों ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गये अपने परिजनों की आत्मिक शांति के निमित्त इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ का अनुष्ठान किया था। यह पवित्र एवं उत्कृष्ठ मंदिर सफेद ग्रेनाइट के चमकदार 20 फीट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। गंगोत्री का गंगाजी मंदिर, समुद्र तल से 3042 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भागीरथी के दाहिने ओर का परिवेश अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है। यह स्थान उत्तरकाशी से 100 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां उपलब्ध संदर्भों के अनुसार गंगा मैया के मंदिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा 18 वी शताब्दी के शुरूआत में किया गया था । वर्तमान मंदिर का पुननिर्माण जयपुर के राजघराने द्वारा किया गया था। गंगोत्री में स्नान करने का अलग ही आनंद है। बर्फ़ से शीतल जल में स्नान कर हम कांप गए। यहां गंगा के प्रवाह और इसकी पवित्रता को देखकर मन हर्षित होता है और यह अफ़सोस भी होता है कि यहां से निकली शुद्ध गंगा को हम इंसानों ने कितना मैला कर दिया है।
इसके बाद हमारा सफर आगे बढ़ा और
27, 28 तथा 29 सितंबर को को सीतापुर में रहे। 28 सितंबर को हमने केदार नाथ दर्शन किए। श्रद्धा ,भक्ति ,अध्यात्म और प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत संगम स्थल है केदारनाथ।अगर इस स्थल के भीतर प्रवेश करें तो हमें आभास होगा कि केदारनाथ मंदिर एक अनसुलझी पहेली है । यहां की चढ़ाई 22 किलोमीटर की है। हमने ऊपर चढ़ने के लिए खच्चर का सहारा लिया। राह में मुझे दो बार खच्चर ने धूल चटाई मगर ईश्वर कृपा से कुछ बुरा नहीं हुआ। ऊपर पहुंचे तो यहां का नैसर्गिक सौंदर्य देखकर मन तृप्त हो गया। उपलब्ध संदर्भ बताते हैं कि केदारनाथ मंदिर का निर्माण किसने करवाया था इसके बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। पांडवों से लेकर आदि शंकराचार्य तक। आज का विज्ञान बताता है कि केदारनाथ मंदिर शायद 8वीं शताब्दी में बना था। यह मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अस्तित्व में है। एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ पहाड़ी, दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊंची कराचकुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड है। इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पांच नदियां हैं मंदाकिनी, मधुगंगा, दूधगंगा, सरस्वती और स्वर्गद्वारी । यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर में अभिषेक पूजन किया। यहीं समीप स्थित आदिगुरु शंकराचार्य जी के समाधि स्थल पर नमन किया। यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर मन नहीं भरता है। यहां आ कर स्वर्ग का आभास होता है। ऊपर से हमने पैदल चलने का निश्चय किया।शाम 6 बजे उतरना शुरू किया तो रात्रि में 3 बजे हम नीचे उतर सके। बहुत थकावट हो गई थी मगर इस स्थान को महसूस करने के आगे सबकुछ व्यर्थ लगता है।
इसके बाद हमारा सफर आगे बढ़ा और 30 सितंबर और 1अक्टूबर को बद्रीनाथ रहे।
विष्णु का स्पर्श जहां महसूस किया जा सकता है वह स्थान बद्रीनाथ धाम है। बद्रीनाथ मन्दिर में “बद्रीनारायण” की पूजा होती है। यहाँ उनकी एक मीटर लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदिगुरु शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। यह मन्दिर उत्तर भारत में स्थित है, “रावल” कहे जाने वाले यहाँ के मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य के नम्बूदरी सम्प्रदाय के ब्राह्मण होते हैं।
चारधाम की यात्रा के उपरांत 3 अक्टूबर को हरिद्वार पहुंचे। पूरा दिन यहां देव दर्शन कर गंगा आरती का लाभ लिया। 4 अक्टूबर को हरिद्वार से प्रस्थान कर उज्जैन होते हुए रतलाम पहुंचे। यह यात्रा जीवन की दुर्लभ और अविस्मरणीय यात्राओं में शामिल हो गई। धार्मिक महत्व के साथ हमारी को महसूस कराने वाले इस सफर से हर व्यक्ति को एक बार गुज़रना ही चाहिए।
-12/2, कोमल नगर
रतलाम (म.प्र.)
मो. 9827084966