समसामयिक : भागवत चिंता पर ईमानदारी से चिंतन करे भाजपा

आम चुनाव में भाजपा की कमजोरी का जहां भी निरपेक्ष तरीके से अवलोकन/विश्लेषण हो रहा है, वहां इस दल की वही गलतियां प्रमुख रूप से गिनाई जा रही हैं, जिनको लेकर भागवत ने सोमवार को अपनी बात रखी। संघ प्रमुख की चिंता के केंद्र में जो दिखा, आखिर वह सब भी तो इस बात की बहुत बड़ी वजह बना कि इस चुनाव में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता कई तरह से हिंसक संघर्ष की हद तक पहुंच गई।

प्रकाश भटनागर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक बार फिर राष्ट्र-हित के व्यापक दृष्टिकोण के मद्देनजर अपने बड़प्पन का परिचय दिया है। यह आचरण उस पिता की तरह है, जो संतान से नाराज होने के बाद भी यह सोचकर उसे सलाह देता है कि आखिरकार मामला पूरे घर की भलाई का ठहरा। इसीलिए संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने सोमवार को जो कुछ कहा, उसमें यदि उनका गुस्सा झलक रहा था तो इस बात की फिक्र भी थी कि आखिरकार मामला पूरे देश की भलाई का है। भारतीय जनता पार्टी के मार्गदर्शक संगठन के प्रमुख के रूप में भागवत ने इस दल को एक बार फिर उसकी भटकती दिशा के लिए चेताया है, ताकी भाजपा की दशा में और गिरावट को समय रहते थामा जा सके।

लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भागवत के जरिए संघ ने जिस तरह मुंह खोला है, उससे शायद आज की भाजपा के कर्ताधर्तां समूह का मुंह अवाक मुद्रा में खुला रह जाना स्वाभाविक है।  इससे शायद उस जुबान पर लगाम भी लग सके, जिसके प्रयोग के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने चुनाव के बीच दंभोक्ति की थी कि भाजपा को अब संघ की आवश्यकता नहीं है। नड्डा का यह कथन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मूक स्वीकृति का प्रतीक हो सकता है।  इन दो नेताओं ने भी इसके प्रतिवाद का कोई उपक्रम नहीं किया। वह नादान होते हैं, जो ऊंचाई पर पहुंचने के बाद इस काम के लिए इस्तेमाल की गई सीढ़ी को ही गिरा देते हैं।

भाजपा के सियासी उत्थान का सफर संघ के बिना संभव नहीं था, आगे भी ऐसा होना मुश्किल है। मोदी, शाह और  नड्डा के समूह ने इस तथ्य से आंख मूंदकर जो दंभ दिखाया, वह संघ को पर्याप्त अवसर दे रहा था कि लोकसभा चुनाव में मोदी मय भाजपा की क्षमता (अपने दम पर बहुमत हासिल न कर पाना) को देखने के बाद इधर से मुंह फेर ले।  लेकिन बात देश की है, इसलिए भागवत ने किसी अच्छे अभिभावक वाले बड़प्पन का परिचय देते हुए आज के भाजपा को उसके बीते हुए कल के मूल सिद्धांतों की तरफ लौटने की हिदायत दी है।

डॉ. भागवत का यह कथन मायनेखेज है, ” जो मयार्दा का पालन करते हुए कार्य करता है, गर्व करता है, किन्तु लिप्त नहीं होता, अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है।’ उन्होंने यह भी कहा ”हमें इस मानसिकता से छुटकारा पाना होगा कि सिर्फ हमारा विचार ही सही है, दूसरे का नहीं।” जाहिर तौर पर यह सीख उस भाजपा के लिए है, जो इस आम चुनाव के काफी पहले से लगातार घमंड में चूर होकर अनेक मौकों पर अमर्यादित आचरण से भी पीछे नहीं रही। यहां बात को समझने के लिए सुभीते के तौर पर ‘ये मोदी की गारंटी है’ या ‘मोदी है तो मुमकीन है’ वाले नारों और मोदी की ब्रांडिंग से समझा जा सकता है। संघ प्रमुख का ‘स्वयं को सही एवं दूसरों को गलत मानने’ वाली प्रवृत्ति पर प्रहार भी भाजपा के लिए यह चेतावनी है कि वह नड्डा के ऊपर उल्लखित विचार और उसके अनुरूप हुए  मोदी तथा शाह के व्यवहार से बचे। फिर डॉ. भागवत जिस समय चुनाव में ” विरोधी को पीछे धकेलने के लिए सीमा का उल्लंघन न करने’ तथा ‘झूठ का सहारा न लेने’ की बात कहते हैं, तब यह साफ है कि संघ को चुनाव में भाजपा के प्रचार तंत्र की शैली पर भी सख्त आपत्ति है।

अब देखिए। आम चुनाव में भाजपा की कमजोरी का जहां भी निरपेक्ष तरीके से अवलोकन/विश्लेषण हो रहा है, वहां इस दल की वही गलतियां प्रमुख रूप से गिनाई जा रही हैं, जिनको लेकर भागवत ने सोमवार को अपनी बात रखी। संघ प्रमुख की चिंता के केंद्र में जो दिखा, आखिर वह सब भी तो इस बात की बहुत बड़ी वजह बना कि इस चुनाव में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता कई तरह से हिंसक संघर्ष की हद तक पहुंच गई। यह बात सही है कि भाजपा और एनडीए सहित विपक्ष का भी शायद ही कोई भी दल इस सारी गंदगी से अछूता रहा हो, लेकिन अंतत: इसका सर्वाधिक  श्रेय भाजपा को जाता है और इसका नुकसान भी भाजपा को ही उठाना पड़ा है। भाजपा को शक्तिशाली बनाकर राष्ट्र निर्माण के अपने यज्ञ में निरंतर परिश्रम की आहुति देते संघ को आज ‘पूत कपूत तो क्या धन संचय?’ वाली मुद्रा अपनानी पड़ गई है।

कहा गया है, ‘बढ़ जाता है मान वीर का रण में बलि होने से।  मूल्यवती होती सोने की, भस्म यथा सोने से।’ चुनावी रण के मैदान में अपने स्तर पर गिरते प्रदर्शन के बाद भी भाजपा अब तक इसे अपनी सफलता बताकर अकड़ से भरी दिख रही है। हालांकि सबसे बड़ा दल और स्थिर सरकार देने की स्थिति में वो ही है भी। और अगर भाजपा यहां से नीचे नहीं गई है तो इसका श्रेय भी मोदी के खाते में तो जाएगा ही। लेकिन स्थिति वही है कि रस्सी जल गई, लेकिन बल नहीं गए। भाजपा के पास अब भी समय/अवसर  है। वह डॉ. भागवत की बात को पूरी चिंता के साथ अपने चिंतन का विषय बनाए। मान ले कि चुनाव ने उसकी आगे की उम्मीदों को क्षीण किया है। इस विश्वास के साथ  कि उसकी उम्मीदों का जो स्वर्ण अपने ही द्वारा लगाई गई आग में भस्म हो गया, भाजपा उसे स्वर्ण भस्म के रूप में और मूल्यवान स्वरूप देने की क्षमता आज भी रखती है। इस सबका रास्ता भागवत की सीख से होकर ही गुजरता है। 

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