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कुदरत के नियमों को नहीं समझने का परिणाम है रोग : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

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🔲 संकट काल में ले नियमों से जीने का संकल्प

हरमुदा
रतलाम,25 अप्रैल। शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कोरोना संकट के इस काल में कुदरत के नियमों से जीने का संकल्प लेने का आह्वान किया है। उनके अनुसार शारीरिक, मानसिक अथवा आत्मिक सभी रोग कुदरत के विपरीत आचरण करने का परिणाम होते है। कुदरत के नियम अनुसार जीने वाला सदैव स्वस्थ, प्रसन्न, उत्साहित और उर्जावान रहता है।
सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि कुदरत के नियम को समझने वाला और उसको आचरण में लाने वाला जल्दी से बीमार नहीं होता। बिमारियां कभी अनायास नहीं आती। वे व्यक्ति की नासमझी और नादानी से आती है। इसलिए दुनिया बदले या नहीं बदले, खुद को बदलने की चेष्ठा हर व्यक्ति को करना चाहिए। खुद को बदलेंगे, तो जग भी बदलेगा।

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यह विश्वास रखकर जो स्व बदलाव की प्रक्रिया में लग जाता है, वह कुदरत के नियमों के अनुसार जीने लग जाता है। जिदंगी में यह सदैव याद रखना चाहिए कि बिगडी हुई जिदंगी, कभी मौत को नहीं सुधार सकती। मौत उन्ही की सुधरी है, जिन्होंने पहले अपनी जिदंगी को सुधारा है। कोरोना का यह संकट जिदंगी में सुधार का संकेत है, जिसे सबकों समझना चाहिए।

ये है कुदरत के नियम

🔲 पहला नियम है सबके साथ मैत्री और सबकी सेवा अर्थात मनुष्य जब किसी का अपना दुश्मन मानता है, तो वह हमारे साथ द्वेष का भाव रखेगा। द्वेष से दूरियां पैदा होती है, दूरियां सेवा से वंचित करती है। द्वेष की जगह प्रेम का भाव निर्मित करेंगे, तो सबके साथ मैत्री और सबकी सेवा में जुट सकते है। मैत्री और सेवा के भाव ही सकारात्मक होते है। सकारात्मकता रोग मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।

🔲 दूसरा नियम है श्रम और विश्राम में संतुलन-अधिक श्रम, अनावश्यक श्रम अर्थात अनपेक्षित श्रम रोगों को खुला आमंत्रण देता है। जबकि श्रम का संतुलन ओर विश्राम पर नियंत्रण रोग होने नहीं देता। असंतुलित श्रम और विश्राम शरीर को जर्जरित कर देता है। अधिक श्रम समय से पहले बुढापे को न्यौता है, वही अत्यधिक विश्राम शरीर को जडत्व की दिशा में ले जाने का उपक्रम है। यह तय है कि वर्तमान के ललाट पर उभरी पसीने की बूंदे भविष्य के मोती बनकर आती है, वर्तमान को व्यर्थ गंवा देने वाले को भविष्य से कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि भविष्य वर्तमान की नींव पर खडा होता है।

🔲 तीसरा नियम है जुल्म करना पाप है, तो जुल्म सहना उससे भी बडा पाप अर्थात अपने अहंकार के नशे में आज जो दूसरों पर जुल्म कर रहे है, वे आततायी है। उन्हें अपने ही आतंक का फल एक ना एक दिन भोगना पडेगा। कुदरत के घर देर हो सकती है, मगर अंधेर कभी नहीं होती। आज के जुल्म का कल पाई-पाई का हिसाब देना पडता है। इसलिए जुल्मी बनकर चाहे जल हो, जंगल हो, जीवन हो, इन पर जुल्म करने वाला कुदरत के नियम के विरूद्ध जीता हैं। उसे बाद में दुख, शोक, चिंता, भय, कुंठा और निराशा का जीवन जीने के लिए मजबूर होना पडता हैं। जुल्म से दूर रहने वाला स्वस्थ, प्रसन्न और आनंदित रहता है।

🔲 आखरी नियम है श्रद्धा और विश्वास अर्थात जीवन में अगर श्रद्धा और विश्वास ना रहे, तो क्षण भर में विनाश हो सकता हैं। श्रद्धा और विश्वास ही जीवन है। ये जीवन को सरस, सफल और सार्थक बनाने वाले ऐसे दिव्य मंत्र है, जिनसे अतीत, वर्तमान और भविष्य सभी सुरक्षित रहते है।। आत्म विश्वास और परमात्म श्रद्धा से बिगडी हुई जिदंगी भी सुधर सकती हैं।

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