🔲  चित्रकार महावीर वर्मा

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अपने थोड़े अलग मिजाज में रहने वाले चित्रकार महावीर वर्मा। उनके इस अलहदा मिजाज में यात्राएं अव्वल पायदान पर रहती हैं, फिर चाहे वह मकसद से हों या यूँ ही कमबख्त दिल को बहलाने के लिए। अकेले रहने का समय खोजते रहते हैं, ताकि पढ़ने का नशा किया जा सके। वे कला-विषयक पुस्तकों के अतिरिक्त कविताएं भी खूब पढ़ते हैं। राजेश जोशी, चंद्रकांत देवताले, वीरेन डंगवाल और नरेश सक्सेना उन्हें प्रिय हैं। अपने स्टूडियो में काम करते वक़्त वे कबीर, मीरा, खुसरो और बुल्लेशाह को विभिन्न शास्त्रीय एवं उप शास्त्रीय स्वरों में सुनते रहते हैं। श्याम बेनेगल और गुरूदत्त की फिल्मों के लगभग प्रेमी जैसे दीवाने हैं और ना मालूम कितनी बार फिर-फिर से उनकी फिल्मों को देखते हुए अपने प्रेम की इकतरफा वफादारी निभाते रहते हैं। अपनी पत्नी से अन्यत्र कहीं जाने का झूठ बोलकर नाटक देखने निकल जाते हैं, केवल इसलिए कि रंगमंच देखते हुए उन्हें बात करना बर्दाश्त नहीं। कला की तरंगीय बहसों में उन्हें श्रोता की भूमिका अदा करने में सुकून मिलता है। पढ़ते हैं महावीर वर्मा के लिखे शब्दों के मिजाज को।

🔲 मेरे चित्रों में मेरा ही अंश है 🔲

जीवन में एकांत की महत्ता यूँ तो हर किसी को आत्म-विश्लेषण, आत्ममंथन के लिए होती है, लेकिन कलाकार अपनी समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं को एकाकार कर बेहतर रचने व गढ़ने का प्रयास करते हैं।
किसी भी सृजनधर्मी के जीवन में यह एकांत संजीवनी की तरह होता है, जहाँ वह अपनी संवेदनाओं को साकार करने का प्रयास करता है। एकांत भी उसको अनुभवों की स्नेहिल थपथपी से कल्पनाओं की ऐसी अंतहीन यात्राओं पर ले जाता है, जहाँ जाना वास्तविक यात्राओं में सम्भव नहीं।

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🔲 यही एकांत जब अवांछित तरीके से किसी चित्रकार की दिनचर्या में प्रवेश करता है, चाहे वह कानूनन आक्षेपित हो, परिस्थितिजन्य प्रदाय हो या सामाजिक रूप से आरोपित, चित्रकार के उस कालखंड को पूरी तरह से प्रभावित कर देता है। साथ ही उसकी अभिव्यक्ति में यह एक मुहूर्त बनकर उपस्थिति पाता है। चित्रकार समय व परिस्थितियों के साथ कदमताल कर जीवन के महत्वपूर्ण सबक हासिल करता हुआ अभिव्यक्ति के जरिए अपनी कृति को अपने समाज से जोड़ने का प्रयास करता है।जैसा कि इटालियन दार्शनिक और साहित्यकार नोबेल पुरस्कार विजेता डारियो फो ने भी कहा है कि “अभिव्यक्ति का कोई भी रूप- थिएटर, साहित्य, या कला जो अपने वक्त के बारे में कुछ नहीं कहता, अप्रासंगिक है।”

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🔲 कहना मुनासिब होगा कि कलाकार के कलाकर्म में समय, संघर्ष और समाज की अभिव्यक्ति तो होनी ही चाहिए। मैं भी इसी के सापेक्ष रचता हूँ। रचना वही कालजयी हो पाती है जो अपने अंदर अपने समय को सहेजे हुए होती है। यही समय हमारी रचनात्मक उर्वरा को विकसित कर व्यक्तित्व का निर्माण करता है। विश्व के ऐसे अनेक व्यक्तित्व हमारे ज़हन में उतर आते हैं, चाहे वह महान अभिनेता चार्ली चैपलिन हो या चित्रकार फ्रांसिस्को गोया ,पाब्लो पिकासो, विंसेंट वैन गॉग, एडवार्ड मुंख या भारत से चित्तप्रसाद, रवींद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल ,मकबूल फिदा हुसैन या गणेश पाइन जैसे समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले चित्रकार हों। इन सब का निर्माण इनके समय, संघर्ष और समाज ने हीं किया है। चित्रों में समय की इसी अभिव्यक्ति के कारण इनकी कृतियां कालजयी बनी और ये सब कलाकार अक्षय बन पाए हैं।

🔲 एकांत ने जीवन में मुझको बहुत कुछ दिया है। बचपन में कभी-कभी अनायास ही कुछ बोलने की इच्छा ना होना, मैं जहाँ पला-बढ़ा, राजस्थान के बूंदी जिले का वह छोटा सा नगर (लाखेरी) भी पहाड़ियों और पत्थरों का ही तो था। उन पहाड़ियों के भ्रमण और पत्थरों की सतही बनावट को देखते-देखते समय बीतता था। मेरे चित्रों में भी यही टेक्सचर प्रमुखता पाता रहा है। मेरा माध्यम स्याही व पेन रहा है और मुझे स्वीकारने में संकोच नहीं होता कि इस माध्यम का चुनाव मैंने फैशन में नहीं, बल्कि यह समय और संघर्ष के चलते किया था। पिता पत्थरों की खान में मजदूरी करते थे। इसलिए आवश्यक सामग्री की अनुपलब्धता के चलते बॉल पेन और शर्ट में लगने वाला बकरम ये ही मेरा माध्यम बने थे।

🔲 जब अपनी शिक्षा पूरी कर रहा था, उस समय पैसों की तंगी के चलते मैं पोट्रेट चित्रण की ओर बढ़ने लगा था। क्योंकि यहाँ रंगों की खुशबू के साथ अर्थ अर्जन भी होने लगा था। बूंदी जैसे छोटे शहर में जीवन आसानी से चल पा रहा था। ऐसा करते मैंने व्यक्ति चित्रण में अपना नाम बना लिया था। लेकिन रचना का सुख यहाँ नहीं था। मन में अपने स्वतंत्र चित्रण की छटपटाहट बढ़ती जा रही थी, ऐसे में बीच-बीच में थोड़ा हिम्मत कर स्वतंत्र चित्र बनाने की कोशिश भी करता रहता था। इस तरह पोर्ट्रेट बनाते हुये मैंने अपना फॉर्म भी विकसित कर लिया था, जो राजस्थानी माण्डना (लोक चित्रों) से प्रेरित था।

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🔲 यह समय मेरे सीखने का समय था। चित्रण के इस दौर में मुझे बार-बार यह समझ आ रहा था कि बिंबों की पुनरावृत्ति होने लगी थी। चित्रण में पुनरावृत्ति की संभावना होनी नहीं चाहिए, यह बात मैं जानता तो था, लेकिन काम करते हुए दिल्ली और जयपुर जैसे बड़े शहरों के चित्रकारों की तरफ जब भी ध्यान जाता, तो यह समझता कि चित्रों में परंपरा और लोक बिंबो की उपस्थिति, कला बाजार में कुछ हद तक उनके विक्रय की संभावनाओं को बढ़ा देती है। परिवार की आर्थिक हालात भी इस मोह से उबरने नहीं दे रही थी, सो जानते हुए भी मेरे चित्रण में पुनरावृत्ति की संभावना बनी रहती थी।

🔲 वर्ष 1999 के मध्य में समय ने करवट ली और मेरा चयन भारतीय रेल शिक्षा सेवा में बतौर कला अध्यापक हो गया, अब मेरी समस्त चिंताएं खत्म हो गई थी। मैंने तय कर लिया था कि निर्वाह करने के बोझ से मुक्त होकर अपना नया रास्ता खोजना है। धीरे-धीरे मैं बाजार और अकादमिक शिक्षा बंधनों को छोड़ अपनी चित्र भाषा की तलाश में लग गया। बूंदी में बिताए समय के अनुभव साथ थे, जिन्होंने मुझे सचेत करना शुरू किया कि पुराने को कैसे भुलाया जाकर नए की तरफ बढ़ना है। चित्र में अब आकार अपने आप को ज्यामितीय लय में ढालने लगे थे, इसी ज्यामितीय लय ने मुझे चित्र में प्रवाहिता के बारे में समझने में मदद की थी।

🔲 मैं अब ऐसी यात्रा का मुसाफिर बन गया था, जिसका गंतव्य मुझे नहीं मालूम था। लेकिन आने वाले पड़ावों के साथ चित्रों में होने वाले परिवर्तन मुझे तैयार कर रहे थे। नए कलाकार मित्रों से मित्रता होने लगी थी, कुछ हमउम्र, कुछ वरिष्ठ मित्रों के साथ होने वाले संवादों ने चित्रण के विषय में मेरी अवधारणाओं पर जमी पूर्व की गर्द को हटाना शुरू कर दिया।

🔲 मेरी पहली एकल प्रदर्शनी भारत भवन भोपाल में आयोजित हुई, इसमें प्रदर्शित श्याम-श्वेत चित्रों में रूपों की संरचना ज्यामितीय थी। प्रदर्शनी को भरपूर प्रशंसा मिली, लेकिन यह मेरी शुरुआत भर थी। मैं अपनी चित्र भाषा को लेकर और ज्यादा सचेत तथा संवेदनशील हो गया तथा लगातार प्रयासरत रहने लगा कि अपना आकार विकसित करूँ। नौकरी से घर लौटने के बाद अपनी पारिवारिक भूमिका का निर्वहन कर बाकी समय मैं अपने आप को देने लगा था।

🔲 मुझे घर, अपना स्टूडियो और अपना एकांत तीनों अच्छे लगने लगे और चित्र बनाना मेरी दिनचर्या में शरीक हो गया। यहाँ इसका आशय यह नहीं कि मैं बाहरी दुनिया से पूरी तरह से कट जाता, ऐसा नहीं कि बाहरी आवाजें सुनाई ना दे ,आवाज़े अंदर आती भी थी, लेकिन रचना सुख ने मुझे समस्त झंझावतों से मुक्त कर दिया था। अब न तो चित्रों के बाज़ार का मोह बचा ,ना ही अच्छे और बुरे चित्रों की चिंता, क्योंकि चित्र कभी अच्छे या बुरे होते ही नहीं हैं। चित्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति ही कर सकता है, वही मैं करने लगा। इस एकांत ने मुझे बाहरी दुनिया के रिश्तो के बनावटीपन, थोथे बंधनों और दिखावे के मोह से मुक्त कर दिया था। चित्रण प्रक्रिया एवं रचना के सुख ने मुझे पूरी तरह तैयार कर दिया था कि जरूरी नहीं, मैं बड़े शहरों की ओर पलायन कर बड़े चित्रकारों की तरह शहरों में रहकर ही चित्र रचना कर, वहाँ के कला जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करूँ। मैं छोटे शहर में भी मौलिक और बेहतर चित्र बना सकता हूँ। यह सबक मैंने रतलाम के एक घर के छोटे से कमरे वाले स्टूडियो में काम करके अच्छी तरह सीख लिया था।

🔲 जब भी मुझे मौका मिला, मैं प्रदर्शनी भी करता। चित्रों को मैं बनाता हूँ, यह मुझे सही नहीं लगता। बल्कि चित्रों में मैं अपने को अभिव्यक्त करता हूँ। इन चित्रों को मैं अपना नहीं कह सकता क्योंकि उनमे केवल मैं ही हूँ। जब मैं प्रदर्शनी करता हूँ, वहाँ भी मैं स्वयं अपने को ही चित्रों में प्रदर्शित करता हूँ। प्रदर्शनी में प्रदर्शित यह समस्त चित्र मेरा ही अंश होते हैं। जिस तरह मैं प्रदर्शनी के दौरान मित्र बनाता हूँ, उसी तरह मेरे यह अंश भी दर्शकों से संवाद करते हैं। चित्रण की इस यात्रा में अब तक मैं जहाँ पहुंच पाया हूँ, उसके विभिन्न अनुभवों वाले पड़ावों ने मुझे निरंतर सिखाया और खुद से मुक्त किया है।

🔲 आज इस यात्रा में रोशनाई व कलम के साथ मैं मनचाहा कागज और कैनवास भी इस्तेमाल कर रहा हूँ। किसी दुश्चिंता के बिना रचना का भरपूर आनंद उठाते हुए अपनी संवेदनाओं को साकार कर रहा हूँ। मेरे चित्रों की विषय वस्तु भी मैं बिना किसी दबाव के अपने आसपास के समाज से चुनता हूँ। यही सामाजिक ताना-बाना लगातार मेरे चित्रों में प्रतिध्वनित भी होता है।

🔲 लॉक डाउन के इस समय में चित्र एवं साहित्य से जुड़े मित्रों से निरंतर हो रहे संवाद के साथ सोशल मीडिया में महामारी के प्रभाव से हो रही उथल-पुथल की तस्वीरों एवं सूचनाओं ने हमारी सामाजिक संरचना को हिला दिया है। बहुत कुछ आस-पास ऐसा घटित हो रहा है, जिसने मुझे और अधिक संवेदनशील बना दिया है।बार-बार यही प्रयास होता है कि विषाद हावी ना हो पाए, लेकिन कुछ ऐसा घटित हो ही जाता है, जो अंतरमन को उद्वेलित कर देता है। मैंने अपने जीवन काल में यह पहली बार अनुभव किया है कि किस तरह से चित्र अनायास ही बन जाते है, बनाए नहीं जा सकते। सोमनाथ होर जैसे कलाकार कैसे तेभागा डायरी रच डालते हैं ,कैसे चित्तप्रसाद अकाल को चित्रित कर जाते हैं, कैसे फ्रांसिस्को गोया 3 मई बना देते हैं, कैसे विंसेंट वैन गॉग आलूभक्षी बनाते हैं और कैसे पाब्लो पिकासो ग्वेर्निका जैसे कालजयी चित्रों को रच पाते हैं, यह मेरे लिए किसी अचम्भे से कम नहीं हैं।

🔲 लॉक डाउन से पूर्व मेरे चित्रों में मेरे आस-पास का समाज, उसका समय और संघर्ष ही विषय के रूप में स्थान पाता रहा था। लेकिन लॉक डाउन के इस एकांत ने उसमें भी हस्तक्षेप किया है। पूर्व में किशोरों की मनःस्थिति जहाँ विषय के केंद्र में होती थी, वहीं अब एकांत ने उस को विस्तार देकर चित्रों को अधिक संवेदनशील और स्पर्शी बना दिया है। महामारी के इस कालखंड ने चित्रण को जिस तरह प्रभावित किया है, इस परिवर्तन को मैं चित्रकार ऑडोल्फ़ गोता लिएब (1930 से 1974) के विचारों के माध्यम से अभिव्यक्त करूँ, तो ऐसे कहूंगा “रंगों का सौंदर्य निरर्थक है यदि उसके साथ भावना का सौंदर्य नहीं है। चित्रकला रंगो, रेखाओं व आकारों की रचना मात्र है, यह विचार ही घृणास्पद है।”

🔲 एकांत का यह कालखण्ड मेरे जीवन में एक बदलाव लाया है। यहाँ न तो सुविधाओं की कमी खलती है, ना ही रंग-रोगन इत्यादि की। चिंता केवल यही होती है कि किसी भी स्थिति में अभिव्यक्ति होती रहे। इसने सिर्फ समय सापेक्ष चित्रण के लिए प्रेरित किया है। रचना प्रक्रिया में पेन की निब से उपजे संगीत ने मन को कभी बोझिल होने नहीं दिया। इस समय में कुछ नए नाटकों, कहानियों ने भी मेरे हर दिन को स्फूर्तिवान व ताजगी पूर्ण बनाया है। मैं कह सकता हूँ कि एकांत एक कलाकार के जीवन में आगत हो, आरोपित हो या आमंत्रित हो, अभिनव रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए समय सापेक्ष अभिव्यक्ति तो करवाता ही है। आज जो भी रचा गया है कालांतर में वह संदर्भों से मुक्ति पाकर विशुद्ध चित्र के रूप में कला जगत में अपनी छोटी सी उपस्थिति दर्ज करवा पाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

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