वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे रचना और रचनाकार : डॉ. गीता सिंह की कविताएं : अच्छा ही है निपूती हूं, नन्ही कली खिलाऊं कैसे -

🔲 डॉ. गीता सिंह ” शंभु सुता”

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अच्छा ही है निपूती हूं

अच्छा ही है मै निपूती हूं,
किन्तु बांझ नहीं हूं, बेटियों की माता हूं,
जो दोनों आंगन में दूर्वा उगाती हैं,
ड्योढ़ी पर दीप जलाती हैं ।।
मैंने देखा है गांधारियों को,

सौ सौ टुकड़ों में जीते हुए,
झुकी कमर, हाथ मै लाठी लिए,
आंगन वाली नीम के झरते पीले पत्तों को बटोरते हुए।।

पांच पतियों और पांच पुत्रों वाली द्रोपदी को भी देखा है,
और निकट से देखा है उसकी त्रासदी भी
न वन में सुरक्षित थी, न राज महल के प्रांगण में,
न ही राजा विराट के आंगन में ।।
अच्छा ही है मैं पतझड़ की झाड़ हूं,
किसलय कलि कुसुमों का अंबार नहीं,
गिद्ध घूरेंगे नहीं, भेड़िए नोचेंगे नहीं,
कोमल अंगों उपांगो को भक्षेंगे नहीं,
आधी रात को हमारे शव जलेंगे नहीं,
राजनयिक रोटियां सेकेंगे नहीं ।।

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नन्ही कली खिलाऊं कैसे

पेट पकड़ के माता रोए,
घूम घूम के घर आंगन में।
नन्ही कली खिलाऊं कैसे,
इन कांटों वाले उपवन में ।।

कहीं सुरक्षित नहीं है नारी,
धरती हो या गगनांगन में,
बता द्रोपदी कहां थी रक्षित
घर आंगन में या कानन में ।।

मुर्दा किलपेट्रा के तन से,
ज़ालिम खेल हज़ारों खेले,
इसीलिए पद्मिनियां कूदीं,
अग्नि शिखाओं के नर्तन में ।।
राजा अंधा मंत्री गूंगा,

कैसे हो कल्याण प्रजा का
इक दिन न्याय गिरेगा मुंह बल
लगा हुआ घुन सिंहासन में ।।

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पहरू जागते रहना

गिरे पाथर चले अंधिया कि पहरु जागते रहना,
लुटेरों की इधर अंखिया कि पहरु जागते रहना ।।

लगी है दीठ गिद्धों की ज़मी ये नोच खाने की,
बिछाया जाल है छलिया कि पहरु जागते रहना ।।

हिमालय के शिखर पर यूं तिरंगा शान से लहरे,
न जाए मुंह की ये लालिया कि पहरु जागते रहना ।।

बनाकर भेष साधू का विचरता आज भी रावण,
नहीं महफूज़ है कुटिया कि पहरू जागते रहना।।

हिरण सोने का ना होता, पता रघुबर को भी था ये,
सुरक्षित ना जनक बिटिया कि पहरू जागते रहना ।।

के जैसे शौर सेनो ने दिया हर चप्पे पर पहरा,
वो सोए दिन नहीं रतिया कि पहरू जागते रहना ।।

बरसते ड्रोन से हथियार अपनी बादियों में हैं,
कसो अब और सिर पगिया कि पहरू जागते रहना।।

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बोया बबूल….

काँटे बिछाया राह में तो फूल क्या खिले,
बोया बबूल पेड़ तो फिर आम क्या फले ।।

मंदिर की सीढ़ियों पे सिर को टेकता रहा,
औरों के लिए किन्तु गर्त खोदता रहा,
प्रारब्ध के अनुरूप ही परिणाम भी मिले,
बोया बबूल …..

जिसके तले छहाया उसे काटता रहा,
खुद ही कुल्हाड़ी पाँव अपने मारता रहा,
धोया सिंगार धरा का तो चैन क्या मिले,
बोया बबूल पेड़ …..

उत्कोच लेके अपना इतिहास मेटते हो,
गौरव कथाओं से अपने ही खेलते हो,
जो कट गया जड़ों से सम्मान क्या मिले,
बोया बबूल …..

🔲 रचनाकार परिचय

डॉ. गीता सिंह ” शंभु सुता”

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रुचियां : गीत, गजल, कविता, कहानी, निबंध लेखन और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशन।
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध और राष्ट्रीय मंचों पर काव्य पाठ और सम्मान पत्र।

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