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तब सासु के सामने नहीं खुली जुबान, बहू ने ले ली बछड़ों की जान, आज भी निर्वहन में हैं अनजान

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🔲 परंपरागत तरीके से मनाई गोवत्स द्वादशी, किया पूजन लिया आशीर्वाद

हरमुद्दा
रतलाम, 4 सितंबर। तीज त्यौहार सबक देते हैं कि समझ में नहीं आता है तो पूछ लेना चाहिए। लेकिन पुराने जमाने में ऐसा नहीं होता था, तभी तो सासु के सामने जुबान नहीं खुली और बहू ने गाय के बछड़े की जान ले ली थी। उस समय से गोवत्स द्वादशी महिलाओं द्वारा मनाई जाती है, लेकिन इस त्योहार को मनाने में अभी भी भ्रांतियां चल रही है। आज भी उत्सव को मनाने में अनजान हैं कैसे मनाया जाए? आज भी बहुओं जुबान नहीं खुल रही है। न ही वह प्रति प्रश्न कर रही हैं। तर्क संगत त्यौहार अभी भी नहीं मनाया जा रहा है।

शुक्रवार को शहर में महिला द्वारा गोवत्स द्वादशी का पर्व मनाया गया। सुबह से ही महिलाओं द्वारा गाय बछड़े की पूजा कर उनसे आशीष लेने का सिलसिला शुरू हो गया। जो दोपहर के पहले तक चलता रहा। पूजन करने का क्रम शहर के विभिन्न क्षेत्रों में चलता रहा बाजारों में भी गाय बछड़ा के पूजन के दृश्य सुबह से नजर आने लगे थे।

भुट्टे और मक्की के आटे के बने व्यंजन

गोवत्स द्वादशी पर घरों में मक्के के आटे की रोटी, बाटी, पानिये बनाए गए। भुट्टे के व्यंजन बने। लेकिन गेहूं का आटे की खाद्य सामग्री नहीं बनी। यहां तक की चाकू का उपयोग भी किचन में नहीं हुआ।

यह है कारण

ऐसी किंवदंती है कि प्राचीन समय में हर दिन की तरह भोजन सामग्री में क्या बनाना है यह तय कर भोजन बनता था। जिसे बहु बनाती थी। सासूजी मंदिर जाने से पहले बहू को बोल गई कि खाने में गवलो और मुगलों बना लेना। संयोग से घर में रहने वाले पशुधन में गाय के बछड़े का नाम भी गवलो और मुगलों था। सांसों की निर्दयता को भला बुरा बोलते हुए बहू ने बिना कुछ सोचे समझे बछड़े को काटकर आंगन में बड़े-बड़े हांडे में बनाने के लिए रख दिया। जब सासु मंदिर से आई और बहू से पूछा कि बछड़े कहां है और हंडे में क्या पक रहा है, तब बहू ने बोला आप ही ने तो कहा था कि गवलो और मुगलों बना लेना, वही बना दिए। तब सासु ने कहा कि यह क्या कर दिया? मैंने तो गेहूं की रोटी और मूंग की दाल बनाने के लिए कहा था। समझ में नहीं आया था तो पूछ लेना था और विलाप करने लगे। आंगन रखी हंडियों को उकेडे पर रख दिया। सासूजी संताप करने लगी। कहने लगी शाम को गायों को क्या जवाब देंगे। वह अपने बच्चों को नहीं देखकर कितना परेशान होगी। यही सोचकर सासूजी भगवान से प्रार्थना करने लगी कि इस विकट स्थिति से उभारकर गाय को अपने बच्चों से मिलाओ। दिन भर घर में मातम सा छाया रहा, लेकिन जैसे ही शाम हुई गोधूलि बेला पर गाय का आगमन हुआ, तब बछड़े रंभाते हुए मां के पास दौड़ पड़े। यह दृश्य देखकर सास बहू की आंखों से आंसू निकल पड़े। खुशी का ठिकाना नहीं रहा। तत्काल गाय बछड़े की पूजा की गई और तत्पश्चात घरों में भोजन किया गया।

तब से हुआ तय मीनू इस दिन

तब से यह तय हुआ कि भाद्र कृष्ण पक्ष की गोवत्स द्वादशी के दिन घरों में कटा हुआ, गेहूं के आटे से का बना हुआ। मूंग की दाल आदि नहीं बनाई जाएगी। केवल मक्की के आटे का ही उपयोग किया। चाकू का प्रयोग न किया जाए नहीं हड्डियों में कुछ बनाया जाए। तभी से इस परंपरा का निर्वहन हो रहा है।

आज भी नहीं खुल रहे हैं बहुओं के मुंह

शहर में परंपरा का तो निर्वहन हो रहा है लेकिन तरीका अभी भी गलत ही है। दुख में तो बहुत खाते हैं लेकिन सुख में खाना पीना बंद कर देते हैं। ऐसा क्यों किया जा रहा है यह तो आज की बहुएं व सासु भी नहीं बता पा रही है। वे कहती है कि सासू जी जैसा करते थे, वैसा हम अभी भी कर रहे हैं, लेकिन वे अभी भी इस बारे में नहीं सोचते हैं कि वास्तव में क्या होना चाहिए? रूढ़ि में परिवर्तन करने की कोशिश नहीं की जा रही है। शुक्रवार को भी शहर में यही हुआ सुबह 8 बजे से गाय और बछड़े की पूजन का सिलसिला शुरू हुआ जो कि दोपहर तक चलता रहा। सुबह से शाम तक महिलाओं ने बार बार खाया। मजा किया लेकिन सूर्यास्त के बाद से खाना पीना बंद कर दिया। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। जब बछड़े जीवित हो गए, तब खुशी मनाना चाहिए। खाना पीना चाहिए। पूजन करना चाहिए। जो गलती बहु ने उस समय की थी, उसके जैसी गलती आज भी दोहराई जा रही है। बहुओं की जुबान आज भी नहीं खुल रही है और गलत का साथ दिया जा रहा है।

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