वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे झूम-झूम कर कोई राही गीत मिलन के गाए -

झूम-झूम कर कोई राही गीत मिलन के गाए

1 min read

 हिंदी के कवि, गीतकार रहे किशनदास ‘राही’ भी ऐसे ही रचनाकार रहे जिनकी रचनाओं के भीतर मौजूद है एक आंतरिक लय

आशीष दशोत्तर

कविता की अपनी भाषा होती है। अपनी लय और अपना अनुशासन भी। कविता चाहे जिस भाषा में लिखी जाए या जिस बोली में कही जाए उसका आंतरिक भाव उसमें निहित होना चाहिए। कविता तभी प्रभावी और प्रासंगिक होती है जब उसकी आंतरिक लय उसके साथ गतिमान रहे। हिंदी के कवि, गीतकार रहे श्री किशनदास ‘राही’ भी ऐसे ही रचनाकार रहे जिनकी रचनाओं के भीतर एक आंतरिक लय मौजूद रही।

श्री राही ने बहुत ख़ामोशी के साथ अपनी रचनाओं को लिखा । अपने जीवन के संघर्षों के साथ उन्होंने रचना प्रक्रिया को अंजाम दिया। उन्होंने अपने परिवेश से बहुत कुछ ग्रहण किया और उसे अपने शब्दों में आकार भी दिया। वे प्रकाशन, प्रसारण और प्रस्तुतियों से काफी दूर रहे मगर साहित्यिक संगोष्ठियों में मौजूद रहकर अपनी रचनाओं को अभिव्यक्ति देते रहे।

मानवता को परे रखकर रचनाधर्मिता करना संभव नहीं है । प्रकृति, आपसी सम्बन्ध और आसपास का वातावरण हर व्यक्ति को प्रभावित करता है। सृजनशील मनुष्य तो इससे अधिक प्रभावित रहता है । मालवा अंचल से जुड़े और इसमें रच बस गए लोक गीतकार श्री किशनदास ‘राही’ का जीवन भी अपने आसपास के परिवेश में शामिल रहा। 

खेतों में गूंजे अलगूंजे फसलों की हुई सगाई,

उड़ी चुनरिया श्रम बाला की आशाएं गरमाई,

सजनी ने किया सिंगार सजन का नाचा मन मतवाला,

यह मंगल त्योहार द्वार पर ले आया जयमाला।

किशनदास ‘राही’ हिंदी में तो गीत और कविताओं की रचना करते ही रहे ,उन्होंने मालवी और भीली बोलियों में भी श्रेष्ठ रचनाएं लिखीं।आदिवासी अंचल झाबुआ में उनकी शिक्षा हुई। मामा बालेश्वर दयाल जैसे समाजवादी नेता का उन्हें सान्निध्य मिला। इसका प्रभाव यह हुआ कि भीलांचल की भीली बोली का उन पर काफी प्रभाव पड़ा। उन्होंने वहां के लोगों के बीच रहकर भीली बोली को सीखा। भीली को बोलने का अंदाज़ भी पाया। इसके शब्दों को ध्यान से समझा।  वे कहते थे ‘भीली मुझे अपनी ही बोली लगी और इसमें गीत लिखना प्रारंभ किए। भीली गीतों ने मुझे एक अलग पहचान दी।’

भीली में उन्होंने कई महत्वपूर्ण गीत लिखे, जिनमें तीज-त्योहार, स्थानीय परंपरा, आदिवासी अंचल के प्राकृतिक वातावरण और लोगों के रहन-सहन का वर्णन इन गीतों में बखूबी किया । किसी भी बोली के प्रति एक रचनाकार की आत्मीयता और उसके प्रति उसकी रूचि किस तरह स्थापित हो सकती है, इसका प्रमाण उन्होंने अपने इस बोली प्रेम से दिया। यह उनकी रचनात्मक ईमानदारी रही।

राही जी ने मालवी को भी अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। अपनी पारिवारिक और क्षेत्रीय पृष्ठभूमि से उन्हें मालवी की सीख मिलती रही।

‘म्हारा कालज़ा रा कटका जोए रे’ जैसे लोकप्रिय गीत उनके समकालीनों की ज़ुबान पर चढ़े रहे। किशन दास ‘राही’ ने मालवी और भीली के साथ हिन्दी में भी महत्वपूर्ण गीत लिखे जो लोकगीत की शक्ल में ढलकर आम आदमी की जुबान पर चढ़े । आदिवासी अंचल के क्षेत्रों में कई बार किशन दास ‘राही’ के गीत लोगों के मुख से सुने गए।

बांध सेहरा सजा रही स्वागत की अमराई,

पंख पसारे मयूर नाचे, देख-देख परछाई ,

मधुर स्वरों में कोयल बोली प्रीतम द्वारे आए,

झूम -झूम कर कोई राही गीत मिलन के गाए।

            किशन दास ‘राही’ की ख़ासियत  यह रही कि उन्होंने कभी भाषा और बोली में घालमेल नहीं किया। जब भीली में लिखा तो पूरा गीत भीली में ही रहा। जब मालवी में लिखा तो कभी भी हिंदी का शब्द नहीं मिलाया। उन्होंने लिखते वक्त इस पर विशेष ध्यान दिया। जिस बोली में वे लिख रहे हैं यदि उसका कोई उचित शब्द नहीं मिला तो उसकी पड़ताल की। इसके लिए वे उन लोगों के बीच गए जो उस बोली को जानते थे । वहां जाकर उन्होंने उस बोली का शब्द लिया और उसे अपनी रचना में शामिल किया ।

रतलाम बसाने वाले रतन सिंह का वर्णन उन्होंने एक लंबी काव्य गाथा के माध्यम से किया ,जिसमें रतनसिंह के जीवन के काफी सारे  प्रसंग शामिल हैं । इसकी प्रस्तुति जब वह दिया करते थे तो कई घंटों तक उनकी प्रस्तुति प्रभावी हुआ करती थी। उनके गीतों में श्रमिकों ,मजदूरों, ग़रीबों की व्यथा तो शामिल रही है मगर श्रंगार, पर्व प्रसंग के भी उत्कृष्ट गीत उन्होंने लिखे।

फूले पलाश के फूल प्रीत में भेद सभी बिसराए

भरी दुपहरी कमल कली के रवि ने वसन चुराए

जिसे देख बौराई है मधु भंवरों की टोली

प्रणय गीत के गायक खुलकर खेल रहे हैं होली।

सुख साज बजा और प्यार सजा मन मौज मना लो रे।

नगर निगम रतलाम में वर्षों तक फायर लारी वे चलाते रहे मगर उनके गीतों का साथ कभी नहीं छूटा । रतलाम के सागोद मार्ग स्थित आजाद मुनि आश्रम में वे निवासरत रहकर धर्म एवं अध्यात्म से जुड़े रहे मगर साहित्य से कभी विमुख नहीं हुए। उनके गीत आज भी कई जगह सुने जाते हैं। यह उनके गीतों का प्रभाव एवं जीवंतता है। इन गीतों के ज़रिए वे आज भी साहित्यिक वातावरण में मौजूद नज़र आते हैं।

आशीष दशोत्तर

 12/2, कोमल नगर, बरवड रोड
रतलाम-457001
मो.9827084966

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *