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महर्षि नारद जयंती पर विशेष : नारद की पत्रकारिता में स्वार्थ नहीं केवल परमार्थ था निहित

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नारद तीनों लोकों में निर्भीकता से परिभ्रमण कर स्थितियों का जायजा लिया करते थे और बुरी शक्तियों के विनाश के लिए युक्तियां किया करते थे। उनका अपना कोई घर नहीं, कोई सन्तात नहीं और कोई सुख सुविधाओं का हेतु भी नहीं। एक सरिता की तरह सदा प्रवाहित रहने वाला व्यक्तित्व है नारद का। निष्पक्ष और दैवीय संस्कारों की संस्थापना जिस पत्रकारिता में आता है वो पत्रकारिता नारद की स्मृति को अमर बनाती है।आज के परिदृश्य में पत्रकारों को इधर की उधर करने वाला कहा जा सकता है लेकिन उद्देश्य पवित्र नहीं होने से पत्रकारिता कलंकित होती है।

त्रिभुवनेश भारद्वाज “शिवांश

आज नारद जयंती है और नारद को संसार का पहला पत्रकार कहा जाता है। नारद की पत्रकारिता में सूचनाओं का जन हितेषी संप्रेषण मिलता है।नारद की सूचनाओं में अंततः लोक मंगल की कामना निहित रही है इसलिए नारद तीनों लोकों में निर्भीकता से परिभ्रमण कर स्थितियों का जायजा लिया करते थे और बुरी शक्तियों के विनाश के लिए युक्तियां किया करते थे। यदि नारद को पत्रकारिता का पहला सूर्य माना जाए तो नारद के निःस्वार्थ व्यक्तित्व पर भी ध्यान दिया जाए। उनका अपना कोई घर नहीं,कोई सन्तात नहीं और कोई सुख सुविधाओं का हेतु भी नहीं।एक सरिता की तरह सदा प्रवाहित रहने वाला व्यक्तित्व है नारद का।निष्पक्ष और दैवीय संस्कारों की संस्थापना जिस पत्रकारिता में आता है वो पत्रकारिता नारद की स्मृति को अमर बनाती है।

आज के परिदृश्य में पत्रकारों को इधर की उधर करने वाला कहा जा सकता है लेकिन उद्देश्य पवित्र नहीं होने से पत्रकारिता कलंकित होती है।नारद ने अपनी महत्वपूर्ण सूचनाओं से किसी को “ब्लैकमेल”नहीं किया बल्कि हरि शरण अर्थात अच्छाई की और जाने का मार्ग प्रशस्त किया।नारद की पत्रकारिता अंततः दैवीय राज व्यवस्था स्थापित करने की थी।असुरों के समूल नाश के लिए भगवान को प्रेरित नारद ने ही किया और नारद ने कभी कोई गैरजिम्मेदार अथवा असत्य सूचना भगवान को नहीं दी।इन अर्थों में नारद साफ सुथरी और लोक मंगल की पत्रकारिता को आगे बढाते दिखते हैं इसलिए नारद से कोई रूष्ट नहीं अपितु समस्त लोकों में नारद का सम्मान हुआ है।

नारद का महत्व

देवर्षि नारद को देवों का दूत, संचारकर्ता और सृष्टि का पहला पत्रकार कहा जाता है।नारद विध्वंसक पत्रकार नहीं अपितु जन हतैषी पत्रकार थे । मान्‍यताओं के अनुसार नारद मुनि का जन्‍म सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी की गोद से हुआ था। ब्रह्मवैवर्तपुराण के मतानुसार ये ब्रह्मा के कंठ से उत्पन्न हुए थे।  देवर्षि नारद को महर्षि व्यास, महर्षि वाल्मीकि और महाज्ञानी शुकदेव का गुरु माना जाता है।नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन का कारण नारद की सर्वकालिक सर्व लौकिक महत्ता है।


हिन्दू शास्त्रों में नारद

नारद मुनि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के 26 वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पाञ्चरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।


वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।
नारद मुनि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।

देवर्षि नारद जी

श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पाञ्चरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।

वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारदजी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है – देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं।

आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारदजी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारदजी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।

त्रिभुवनेश भारद्वाज “शिवांश

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