तुम मुझे यूं भुला न पाओगे
⚫ प्रसंग (31 जुलाई) मो.रफी की पुण्यतिथि
⚫ आशीष दशोत्तर
संगीत जगत के लिए 31 जुलाई का दिन स्मरण करने वाला है। इस दिन पार्श्व गायक मोहम्मद रफ़ी की पुण्यतिथि है। मोहम्मद रफ़ी (1924-1980) हिन्दी सिनेमा ही नहीं भारतीय सुगम संगीत जगत के कैसे नक्षत्र रहे जिनकी चमक से पूरा पार्श्व गायन रोशन हुआ। रफ़ी साहब रतलाम में भी अपनी प्रस्तुति देने के लिए आए थे। तत्कालीन महाराजा लोकेंद्र सिंह जो स्वयं संगीत के पारखी थे, उनके साथ रफी साहब की आत्मीयता भी रही, उन्हीं के निमंत्रण पर रफ़ी साहब ने रतलाम में भी बेहतरीन कार्यक्रम दिया था।
पार्श्व गायन में अगर मोहम्मद रफ़ी नहीं होते तो उसकी रिक्तता की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। दुनिया ने जिसे रफ़ी साहब के नाम से पुकारा और मौसिकी के जानकारों ने जिन्हें शहंशाह-ए-तरन्नुम कहा उन्होंने 1940 में अपने सफ़र को शुरू कर मृत्युपर्यंत करीब 26 हज़ार गीतों को अपनी आवाज़ से अमर बनाया। उनके गाए गीतों की संख्या को लेकर काफी असमंजस की स्थिति भी रही मगर सहगल युग के बाद श्रोताओं ने जिस आवाज़ को पसंद किया वह आवाज़ मोहम्मद रफ़ी की ही थी।
हर अवसर के गीतों को दिया स्वर
अपने साथी गायक मुकेश, किशोर,मन्ना डे, तलत महमूद के बीच रहते हुए उन्होंने अपनी आवाज़ के माध्यम से जो स्वर संसार बुना वह हमारे दिल पर बादलों की तरह छाया हुआ है और जिसकी मधुरता हमारें दिलों में कायम है। सदाबहार नग़मों की जब बात आती है तो रफ़ी याद आते हैं। आदमी के जन्मदिन से लेकर मृत्यु तक ऐसा कोई अवसर नहीं होता जब रफी के गाए गीतों के बगैर कोई कार्य हो जाता हो। उनकी आवाज़ में जो कशिश और ख़नक थी वह उनके समकालीन गायकों में भी नहीं मिलती। रफ़ी की आवाज़ कुदरत का नायाब तोहफा थी। ऐसे कलाकार धरती पर कभी-कभी ही आते हैं। रफ़ी ने जितने भी कलाकारों के लिए गीत गाए सभी के लिए उनकी आवाज़ अलग-अलग हुआ करती थी। रफ़ी के गीतों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह गीत किस कलाकार पर फिल्माया गया होगा।
सादगी और नेकनीयती
स्वभाव में रफ़ी फिल्मी दुनिया की तिकड़मबाज़ी से बिल्कुल अलग थे। जो सादगी और नेकनीयती रफ़ी साहब में थी इसके कई उदाहरण उनके जीवन में देखने को मिलते हैं।अपने शुरुआती दिनों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में उन्होंने बहुत कम पारिश्रमिक पर गीत गाए।गाने की रायल्टी को ले कर लताजी के साथ उनका विवाद हुआ जो उनकी दरियादिली का सूचक था।बरसों तक रफ़ी और लता की जोड़ी का कोई गीत नहीं आया मगर जब नर्गिस ने रफ़ी साहब से गुज़ारिश की तो वे सबकुछ भुला कर फिर से लताजी के साथ गाने को राजी हो गए और ज्वैल थीफ के लिए ‘दिल पुकारे ‘ गीत से फिर यह जोडी छा गई। जब किशोर कुमार ने अपनी फिल्म निर्माण किया तो खुद गायक होते हुए भी एक गीत रफ़ी साहब से गवाया क्योंकि किशोर का मानना था कि ये गीत रफ़ी साहब ही गा सकते हैं।और रफ़ी साहब की महानता देखो कि उन्होंने इस गीत के पारिश्रमिक के रूप में किशोर से सिर्फ एक रूपया ही लिया। क्या ऐसे कलाकारों की अब उम्मीद भी की जा सकती है जो अपने समकालीनों के प्रति ऐसी भावना रखता हो? साधारण जीवन और सरल व्यवहार ने रफ़ी को सबका चहेता बना दिया था। रफ़ी के गाए गीत आज भी उनकी उपस्थिति का आभास कराते हैं।
दुनिया के कादरदानों में उनका बसेरा
याद करते हुए हम यह सीखें कि अगर अपनी प्रस्तुति में स्वाभाविकता होती है तो वह कालजयी होती है। अगर सफलता का नशा हमारे सिर नहीं चढ़े और हम अपनी ज़मीन को नहीं भूलें तो प्रसिद्धि का आसमान सदैव हमारे लिए उपलब्ध रहता है। यदि हम सहज,सरल और मिलनसार रहें तो सभी के प्रिय बन सकते हैं।हमारे ही नहीं दुनिया के कद्रदानों के दिलों में जिस प्रकार आज तक मोहम्मद रफी बसे हुए हैं,वैसे ही बसे रहें।
⚫ आशीष दशोत्तर