साहित्य सरोकार : जनता जनार्दन के कवि थे आचार्य भानुभक्त
⚫ नेपाली भाषा के पहले कवि
⚫ वाल्मीकि रामायण का नेपाली में अनुवाद
⚫ नरेंद्र गौड़
भारत में जिस प्रकार महर्षि वाल्मीकि और गोस्वामी तुलसीदास के नाम आदर से लिए जाते हैं, ठीक उसी तरह नेपाल में आचार्य भानुभक्त अत्यंत सम्मानित रचनाकार हो चुके हैं। प्रतिवर्ष उनकी जयंती धूमधाम से मनाई जाती है। प्रभात फेरियां निकलती हैं और अनेकानेक आयोजनों के जरिए इस महान कवि तथा अनुवादक को याद किया जाता है। इन दिनों भी उन्हें श्रृध्दासुमन अर्पित करने का सिलसिला लगातार जारी है। उनकी याद में डॉक टिकट और सिक्के जारी हो चुके हैं और कई छात्रों ने उन पर रिसर्च वर्क किया है। नेपाल की जनता उनके साहित्यिक तथा सांस्कृतिक अवदान को अनेक बहानों से स्मरण करती आई है।
कौन थे आचार्य भानुभक्त ?
भानुभक्तजी का जन्म 13 जुलाई सन् 1814 को नेपाल के तनहुं जिले के गांव चुंदी रम्धा में बहुत मालदार परिवार में हुआ था। वह लेखक, कवि तथा अनुवादक थे। उन्हें नेपाली भाषा का पहला कवि माना जाता है। उन्हें संस्कृत के लिखी वाल्मीकीय रामायण का पहली बार नेपाली में अनुवाद करने की वजह से आदिकवि की भी उपाधि दी गई है, लेकिन उनके जीवनकाल में उनकी एक भी किताब नहीं छप सकी और न उन्हें अपेक्षित सम्मान मिला। उनकी मृत्यु के बाद कवि मोतीराम भट्ट ने उनके ग्रंथों को प्रकाशित किया, तब कहीं जाकर नेपाली जनता को भानुभक्त जी की प्रतिभा का पता चला। उनके पिता का नाम धनंजय आचार्य तथा माता का नाम श्रीमती धर्मावती था। पिता शासकीय कर्मचारी थे, भानुभक्त उनके घर पैदा होने वाली पहली संतान थे। यही कारण रहा कि उनका लालन पालन बड़े लाड़प्यार से हुआ। भानुभक्त ने संस्कृत की आरंम्भिक शिक्षा अपने दादा और उच्च शिक्षा भारत के प्रसिध्द वाराणसी नगर में प्राप्त की।
जनता जनार्दन के कवि थे आचार्य भानुभक्त
पुराने जमाने में नेपाल सहित दक्षिण एशियाई भाषाएं अधिकतर लेखन के बजाए मौखिक माध्यम तक सीमित थी,ं जिसकी वजह से किताबें लेखन का कार्य कम ही होता था। वहीं दक्षिण एशिया के अधिकांश लिखित ग्रंथ संस्कृत भाषा में होने के कारण आम नागरिकों की समझ से बाहर थे और उन दिनों शिक्षक तथा छात्र भी सवर्ण हुआ करते थे। दलित समाज के लोग तो ग्रंथों को पढ़ना दूर छू भी नहीं सकते थे। आंचलिक भाषा में साहित्य रचना का रिवाज ही नहीं था। यही कारण था कि गोस्वामी तुलसीदास ने जब रामचरित मानस संस्कृत के बजाए अवधि में लिखी तो काशी के पंडितों ने भारी विरोध किया था। यही हालत नेपाल में भी थी, वहां ज्यादातर ग्रंथ संस्कृत में थे, लेकिन भानुभक्त अकेले ऐसे रचनाकार हुए जिन्होंने संस्कृत के बजाए नेपाल की बहुसंख्यक जनता व्दारा बोली जाने वाली सरल नेपाली भाषा में साहित्य रचना की। इस दिशा में कार्य करने के लिए उन्हें नेपाल के तत्कालीन राणा शासकों की सहर्ष अनुमति भी मिल गई, क्योंकि राजाज्ञा के बिना कलम नहीं उठाई जा सकती थी। यह भी कितनी बड़ी विडम्बना रही कि उनकी लिखी पांडुलिपियों ने उनके जीवनकाल छापेखाने का मुंह नहीं देखा।
वाल्मीकि रामायण का सरल नेपाली में अनुवाद
महाकवि भानुभक्त ने वाल्मीकि रामायण का आम बोलचाल की नेपाली भाषा में अनुवाद किया। उनके व्दारा अनुदित ’भानुभक्तीय रामायण’ में वाल्मीकीय रामायण का गहरा प्रभाव अवश्य है, लेकिन यह गेयरूप में होने के कारण प्रकाशित होते ही नेपाल की जनता की जुबान पर चढ़ गई। आचार्य भानुभक्त ने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, इस कारण उनकी रचनाओं में नेपाल की ठेठ, किंतु मधुर आंचलिकता मुखर है। इस कारण पढ़ने वालों को लगता है कि यह तो हमारे आसपास का परिवेश है। भानुभक्त की कृतियों में धर्म, देशभक्ति, सामाजिक व्यवहार, साहस, वीरता की भावनाएं समाहित हैं। यही कारण है कि वह आज भी नेपाल के जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित हैैं। भानुभक्त ने अपने जीवनकाल में दो सर्वश्रेष्ठ रचनाएं लिखी, ’भानुभक्तीय रामायण’ तथा जेल जीवन बिताते हुए नेपाल के प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र। भानुभक्त का नाम लिए बिना नेपाली साहित्य को नहीं समझा जा सकता है।
भुगतना पड़ा था कारावास
यह भी कितनी बड़ी विडम्बना है कि महाकवि होने के बावजूद भानुभक्त को कारावास की सजा भुगतना पड़ी थी, सजा काटने के दौरान उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया। उन्हें रिहा करने के सरकार ने आश्वासन अनेक बार दिए, लेकिन उन्हें पूरा नहीं किया। यहां तक कि उनके प्रकरण की सुनवाई तक शुरू नहीं की गई। इस पर उन्होंने कारावास से ही तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री को सम्बोधित अत्यंत मार्मिक पत्र लिखा। यह पत्र पढ़कर नेपाल नरेश की भी आंखें भर आई और तत्काल उन्हें रिहा करते हुए क्षतिपूर्ति के तौर पर धनराशि दी गई। भानुभक्तजी का यही पत्र उनकी लोकप्रिय कृतियों में शामिल है, लेकिन उनके जीवनकाल में एक भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी। भानुभक्त को यह तो अंदाजा था कि एक समय ऐसा आएगा जब वह जनजन के कवि के रूप में प्रतिष्ठित होंगे।
मोतीराम भट्ट ने प्रकाशित कराई किताबें
आचार्य भानुभक्त का निधन 23 अप्रैल सन् 1868 को नेपाल के तनहुं जिले के ग्राम सेतीघाट में हुआ। उनके दिवंगत होने के बाद कवि मोतीराम भट्ट ने आचार्य की कृतियों का पता लगाया और पांडुलिपियां लेकर वाराणसी गए और पुस्तकें छपवाई, तब कहीं नेपाली जनता को भानुभक्त की प्रतिभा और रचनात्मक क्षमता का पता चला। उनकी कृतियों को नेपाली जनता ने हाथों हाथ लिया और वह जनता के कवि बन गए। उन्होंने अपनी एक पुस्तक में काठमांडु घाटी के विराट सौंदर्य और वहां के निवासियों का जीवन संघर्ष अव्दितीय शैली में चित्रित किया है। प्रतिवर्ष नेपाली पंचांग के अनुसार आषाढ़ माह के उनतीसवें दिन नेपाली सरकार और वहां की जनता भानुभक्त जयंती धूमधाम से मनाती है। इस अवसर पर वहां अनेक साहित्यिक तथा सांस्कृतिक आयोजन होते हैं।