साहित्य समाज को गढ़ता है, अफ़सोस कि अब यहां पढ़ता है कौन
⚫ भीषण भय की चाप और यामिनी की छाती पर फैलता अज्ञान का अट्टहास। पीढियां सुधरती है पीढ़ियों को देखकर। एक ज़माना यह जब पुस्तको की चर्चाएं हुआ करती थी। गोष्ठियों में आज और कल पर चिंतन हुआ करता था। पुस्तकों की दीर्घाएं लगती थी। साहित्य पर परिचर्चाएं होती थी। मुद्रित अक्षरों ने कई बार क्रांतियों को जन्म दिया है। ⚫
⚫ त्रिभुवनेश भारद्वाज
एक बार न्यायविद धर्माधिकारी जी ने कहा था कि जब साए लम्बे और कद छोटे हो तो सांध्य काल होता है। संध्या एक बहुकोणीय रूपक है जो संकेत करती है कि अब क्षण क्षण रात रमेगी चमगादड़ों की फरमाइश पर सन्नाटों की गोद और साय साय करते अँधेरे में निशाचरों का विलास कीर्तन होगा । चेतना सो जाएगी और अचेत का कोरस जागेगा। बात शुरू हुई तो फिर दूर तलक जाएगी।
ये साँझ आखिर किस रात की और इशारा करती है ? और इस रात की कोई उजली सुबह है भी या नहीं ? समय अपनी कहानियां अंधेरों में गढ़ता है क्योंकि इस अँधेरे में साक्ष्य नहीं मिलते हैं मिलते है तो बस मूक कोलाहल,भीषण भय की चाप और यामिनी की छाती पर फैलता अज्ञान का अट्टहास। पीढियां सुधरती है पीढ़ियों को देखकर। एक ज़माना यह जब पुस्तको की चर्चाएं हुआ करती थी। गोष्ठियों में आज और कल पर चिंतन हुआ करता था। पुस्तकों की दीर्घाएं लगती थी। साहित्य पर परिचर्चाएं होती थी। मुद्रित अक्षरों ने कई बार क्रांतियों को जन्म दिया है।
आज कम हो गए हैं पढ़ने लिखने वाले।
अनुभूतियों को बाजार खा गया।
फूर्सत है किसको रोने की दौरे बहार में।
शापित युग का आचरण यही होता है जब सच और सदाचार का इतना अवमूल्यन हो जाए कि मूल्यांकन के मानक सीमातीत होकर गिर जाए तो इसे अभिशप्त काल नहीं तो और क्या कहेंगे । जहां डॉलर कमाने वाला पुत्र प्रतिष्ठा अर्जित पिता से बड़ा हो जाए तो इसे तहजीब का इंतकाल नहीं तो और क्या कहेंगे। सुंदर द्वार वाला घर मनुहारो से अछूता रह जाए तो द्वार की भव्यता दीनता ही दिखाएगी। कहते है जब विचार गिरे तो पुश्तैनी संस्कार उन्हें थाम लेते हैं लेकिन तब जब संस्कारों की अदायगी किसी न किसी स्रोत से आती हो। किताब वही स्रोत है जो गिरतों को थाम सकती है। अच्छा साहित्य जीवन का सृजक है मगर अफसोस कि पढ़ने वाली पीढ़ी खत्म हुई। पुस्तकालय सूनेपन से जूझ रहे हैं और आदमी अपने आपको परिपूर्ण ज्ञानी समझ कर खुद के निर्मित भरम के जाल में फंसा है।