समीक्षा लेख : कलाओं के सामने खड़े संकट में एक चितेरे की कला

आशीष दशोत्तर

बाज़ारवाद के बढ़ते फैलाव और मनुष्यता के प्रति घटते चिंतन ने कलाओं पर भी प्रभाव डाला है। कला के विभिन्न रूप जो कभी मनुष्यता के पैरोकार हुआ करते थे, आज बाज़ार के इशारों पर चल रहे हैं । जो कला कल अपनी उपस्थिति से एक प्रभाव पैदा किया करती थी वह आज बाज़ार में खड़े व्यापारी के प्रभाव को बढ़ाने का काम कर रही है। यही कारण है कि कला रूपों के माध्यम से जीवन का जो सही दृश्य सामने पेश आना चाहिए, वह नहीं आ रहा है।

कलाएं किसी भी समाज की अभिव्यक्ति होती हैं। समाज के सही चित्र को कलाएं ही सामने लाती हैं। यदि कलाएं हैं जनविमुख हो जाएंगी तो फिर सामान्य जनजीवन को सामने लाने का लक्ष्य कहां से पूरा होगा? कला के प्रति हो रही इस बेरुखी और नई पीढ़ी के कलाकारों के सामने बाज़ार की चकाचौंध ने वातावरण को दूषित कर दिया हैं। नई पीढ़ी के कलाकारों के समक्ष रातों रात प्रसिद्ध होने का जुनून भी सवार है । इसी कारण उनका ध्यान कला की समझ विकसित करने के बजाए अपनी प्रसिद्धि पर अधिक हो गया है । यह सब भी बाज़ार का ही खेल है ,मगर इन सब से मुकाबला तो करना ही होगा। गाहे-बगाहे ये परिस्थितियां हमारे उस इतिहास को भी ख़त्म करने का प्रयास करेंगी जो बहुत मेहनत से हमारे कलाविदों ने संजोया है ।

वरिष्ठ चित्रकार और कला के प्रति अलहदा सोच रखने वाले कलाधर्मी श्री अशोक भौमिक ने इन्हीं चिंताओं को अपनी पुस्तक ‘चित्त प्रसाद और उनकी चित्रकला’ के ज़रिए पेश किया है । यह पुस्तक मूल रूप से सुप्रसिद्ध चित्रकार रहे चित्त प्रसाद की चित्रकला पर केंद्रित है मगर इसके साथ ही कला के सामने खड़े संकट को भी सामने लाने की कोशिश की गई है।

नवारुण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 320 पृष्ठीय यह पुस्तक चित्त प्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व को बहुत गहराई से सामने लाती है । यह सही है कि चित्त प्रसाद एक जन पक्षधर चित्रकार थे मगर उनका भारतीय चित्रकला पर अध्ययन और योगदान अविस्मरणीय रहा। भारत की चित्रकला को विभिन्न कला रूपों में देखा गया है । कहीं कांगड़ा, पहाड़ी, राजस्थानी, मुगल दक्षिण भारतीय आदि चित्रकला में इन कला रूपों को विभक्त कर देखा जाता रहा । इन शैलियों के चित्रकारों का जब भी ज़िक्र होता है तो कई नाम हमारे जेहन में उभरते हैं। चित्रकार भले ही किसी क्षेत्र विशेष से जुड़े रहे हो मगर उन्होंने जिस शैली को थामा उस शैली में महारथ हासिल की और उस शैली को विकसित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। बंगाल की यामिनी राय ,नंदलाल बोस, अजीत हलदर और उनके समकक्ष चित्रकारों का स्मरण कौन नहीं करता। दक्षिण भारतीय कला रूपों में राजा रवि वर्मा या फिर महाराष्ट्र के बेंद्रे , रज़ा और पंजाब के चित्रकार शोभा सिंह की अपनी-अपनी शैलियां रही है, जिन्हें कला के विकास में महत्वपूर्ण माना गया। चित्त प्रसाद बंगाल से संबद्ध रहे मगर उन्होंने अपनी चित्रकला को भारतीय चित्रकला बनाया । यही कारण है कि उनके चित्रों में जीवन के दुःख दर्द दिखाई देते हैं। आम आदमी की पीड़ा दिखाई देती है। मनुष्य के सामने पैदा होने वाले संकट दिखाई देते हैं।अशोक जी ने अपनी पुस्तक में चित्त प्रसाद द्वारा रचित चित्रों को भी दिया है । इन चित्रों में उनके द्वारा निर्मित भगत सिंह की शहादत, कश्मीर का जन आंदोलन , तेलंगाना का किसान विद्रोह, विजयवाड़ा का किसान सम्मेलन , मुंबई में नाविकों का विद्रोह, मुंबई की बस्ती में मेहनत करते बच्चे , बंगाल के अकाल पीड़ित और ऐसे ही भारतीय मजदूर और किसानों के संघर्ष के चित्र उनकी जनपक्षीय वैचारिकता को प्रदर्शित करते हैं। ये सारे चित्र भारतीय चित्रकला के लंबे इतिहास में आम आदमी की भूमिका , महिलाओं की स्थिति , युवाओं के उत्साह और जीवन में आते उतार-चढ़ाव की बानगी पेश करते हैं।

पुस्तक की भूमिका में श्री अवधेश प्रधान ने चित्त प्रसाद के जीवन को शब्द आरेख के माध्यम से बखूबी पेश किया है । इस भूमिका में चित्त प्रसाद का पूरा जीवन समाहित है। उन्होंने जीवन वृत्त का बहुत मार्मिक चित्रण किया है। चित्त प्रसाद का जन्म बंगाल के चौबीस परगना जिले के नैहाटी शहर में 15 मई 1915 को हुआ । चित्रकला और मूर्तिकला के प्रति वे शुरू से आकर्षित रहे। यह वह दौर था जबकि देशभर में स्वतंत्रता आंदोलन उफान पर था। चित्त प्रसाद पर भी इन गतिविधियों का प्रभाव पड़ा । चटगांव में रहते हुए वे कम्युनिस्ट साथियों के संपर्क में आए और पार्टी के सदस्य भी बने। कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स वार में 1943 में उनका चित्र पहली बार प्रकाशित हुआ। वे एक अच्छे चित्रकार तो थे ही इसके साथ ही उन्होंने अकाल विरोधी जन जागरण गतिविधियों में अपने गीतों और चित्रों के माध्यम से सक्रिय भूमिका निभाई । उन्होंने मिदनापुर के अकाल पर ‘हंग्री बंगाल’ शीर्षक से ऐतिहासिक रिपोर्ताज लिखा जो 1944 में छपते ही प्रतिबंधित कर दिया गया। मुंबई आने के उपरांत उन्होंने ‘पीपुल्स वार’ और ‘पीपुल्स एज’ के चित्रकार के रूप में कई महत्वपूर्ण चित्र बनाएं । यद्यपि 1950 में वे पार्टी की सक्रिय राजनीति से अलग हो गए और विश्व शांति आंदोलन से जुड़ गए, मगर सक्रिय बने रहे। ‘जिन फरिश्तों की कोई परी कथा नहीं’ श्रंखला के अंतर्गत उन्होंने देश के बाल श्रमिकों का मार्मिक चित्रण किया। कई विदेशी प्रदर्शनों में भी उनके चित्र प्रदर्शित हुए। 1978 में कोलकाता में उनका देहांत हुआ।

पुस्तक में अशोक भौमिक जी ने चित्त प्रसाद के पूरे जीवन वृत्त को बहुत शिद्दत से पेश किया है । चित्त प्रसाद होने का अर्थ, चित्र प्रसाद और उनका समय, चित्र प्रसाद के चित्रों में महिलाएं , बच्चे , मजदूर और किसान, प्रेम, सशस्त्र प्रतिरोध के साथ ही अकाल का ख़बर नवीस और हंग्री बंगाल तथा एक ज़िंदगी बिखरी सी , अध्याय एक चित्रकार के ही नहीं एक मनुष्य के जीवन के भी विभिन्न पहलुओं को पेश करते हैं । चित्त प्रसाद होना हर किसी के बूते की बात नहीं। ऐसे कलाकार विरले होते हैं । कला को केवल कला की हद तक सीमित रखना अलग बात होती है मगर कला को जनहित व तक पहुंचाना, जन पक्षीय पहलुओं को चित्रों के माध्यम से व्यक्त करना, समाज के सामने उस सच को लाना जो कहीं दबाया जा रहा है, यह सब चित्त प्रसाद की कला में मौजूद था, जो इस पुस्तक के माध्यम से सामने आया है।

कला के जन पक्षीय पहलुओं पर जिस तरह विचार किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया गया । अशोक जी भी इस पीड़ा को व्यक्त करते हैं । वे कहते हैं ‘ भारतीय कला समीक्षकों द्वारा जनवादी चित्रकला पर लंबे समय से प्रायः नारे होने का आरोप लगता रहा है । हालांकि समीक्षकों द्वारा ऐसे मानदंडों को बनाने के पीछे बाज़ार का बड़ा हाथ रहा है। बाज़ार में चित्रकला क्रय-विक्रय का सामान होने के कारण, कला के क्रेताओं के वर्ग की रूचि ही आज़ादी के बाद की भारतीय कला की गुणवत्ता निर्धारण का मानक बनीं। अतः कला समीक्षकों के विशाल वर्ग ने कला व्यापारियों के निर्देश पर ऐसे सारतत्व हीन मानक बनाकर एक ऐसी स्थिति को जन्म दिया , जिसके चलते चित्रकला आम जनता से पूरी तरह विच्छिन्न हो गई । यह स्थिति कला के लिए आज भी घातक सिद्ध हो रही है ‌चित्रकला अब एक ऐसी कला विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है जहां कला प्रेमी शब्द , कला संग्रहालय के सामने अर्थहीन हो गया है । जो वर्ग आज चित्र खरीद रहा है या चित्रकला में निवेश कर रहा है वही इसके मानक भी तय कर रहा है । पर यहां सवाल कला का है। किसी मकान, गाड़ी या ऐसे किसी खरीदे बेचे जाने वाली वस्तु का नहीं है, जिसका निर्माण शुद्ध रूप से खरीददारों की रूचि के मुताबिक होना ही सदियों से बाज़ार का स्वाभाविक और तर्कसंगत नियम रहा है ।आज भारतीय चित्रकला में जिन कलाकारों को महत्वपूर्ण माना जा रहा है ,वे केवल बाज़ार में उनकी मांग के आधार पर ही माना जा रहा है । युवा चित्रकारों के लिए यह एक विषम परिस्थिति है, क्योंकि वे ‘ऊंची कीमत पर बिकने वाली कला ही श्रेष्ठ कला है’ ऐसी भ्रामक अवधारणा को सच मान लेने के दबाव में एक दिशाहीनता के शिकार हो रहे हैं।’

यह पुस्तक चित्रकला के विभिन्न मानकों के साथ उन चिंताओं को भी उभारती है जो इस समय सभी कलाओं के सामने खड़े हैं। इस वक़्त कलाओं को बाज़ार का माध्यम बना दिया गया है । अशोक जी की भी यही चिंता है, जिसे उन्होंने चित्त प्रसाद की कला साधना के माध्यम से सामने लाने का सफल प्रयास किया है। यह पुस्तक न केवल चित्त प्रसाद के चित्र और उनकी कला से ही परिचित करवाती है बल्कि हमारे सामने कला को लेकर जो संकट खड़े हुए हैं उनसे भी रूबरू करवाती है। कला की दिशा आज जिस तरह बदली जा रही है, नई पीढ़ी कला को लेकर जो सोच रखती है और उससे कला के भविष्य के सामने मंडराते ख़तरों को भी यहां पर रेखांकित किया गया है । इस लिहाज से यह पुस्तक वर्तमान संदर्भ में विभिन्न कलाओं के कलाकारों को एक समझ प्रदान करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। पुस्तक के एक खंड में चित्त प्रसाद से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएं, उनके मित्रों के विचार है। विद्वान चिंतक सोमनाथ होर ,प्रभाकर कोल्टे, प्रभास सेन, चलासानी प्रसाद राव के चित्त प्रसाद पर लिखे गए आलेख भी समाहित हैं। पोट्रेट गैलरी में चित्त प्रसाद के श्वेत श्याम चित्र भी हैं और रंगीन चित्र भी । यह पुस्तक न सिर्फ़ भारतीय चित्रकला के ऐतिहासिक संदर्भों , चित्रकारों के समक्ष चुनौतियां को उजागर करती है बल्कि एक नए सिरे से कला मानकों को तय करने, उन पर विचार करने और उनकी वर्तमान परिस्थितियों पर चर्चा करने के लिए प्रेरित भी करती है।

आशीष दशोत्तर, 12/2, कोमल नगर
बरवड़ रोड, रतलाम -457001
मो. 9827084966

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