स्मरण (31 जुलाई) मुंशी प्रेमचंद एवं मोहम्मद रफी : सादगी के प्रतिमान साधक
⚫ आशीष दशोत्तर
साहित्य और संगीत जगत के लिए 31 जुलाई का दिन स्मरण करने वाला है। इस दिन साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती है और इसी दिन पार्श्व गायक मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि भी। इन दो महान विभूतियों को एक साथ याद करने के कई कारण हो सकते है। परंतु सबसे महत्वपूर्ण कारण तो यही प्रतीत होता है कि इन दो विभूतियों ने अपने कर्म से ऐसी अमिट रेखा खींची जो आज तक सभी के लिए प्रेरणा दायक बनी हुई है।
दोनों महान आत्माओं का स्मरण करते हुए इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विचार किया जाए तो हम पाते हैं कि दोनों ही कलाकारों ने अपने क्षेत्र मेंसंयम,सादगी,सहनशीलता और संवेदनाओं का जो संसार रचा उसमें उनके समकालीन ही नही बल्कि आज तक समस्त प्रशंसक एवं अनुयायी उनके मुरीद बने हुए हैं। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी क़लम से समाज के उन लोगों की आवाज़ को बुलन्द किया जो बंदियों से शोषित और दमित थे। जिनके जीवन में कभी कोई प्रकाश नहीं आने दिया गया था और जो समाज रीति-रिवाजों और कुसंस्कारों के जाल में उलझा हुआ था उसकी पीड़ा को उभारते हुए उसे संबल प्रदान किया। अपने विपुल लेखन में मुंशी प्रेमचंद ने साधारण जीवन का ताना-बाना बुना। जिस संसार में वे रचे-बसे थे उसी को उन्होंने अपने रचना संसार में स्थान दिया। यह किसी भी रचनाकार की ईमानदारी है कि वह जैसा जिये वैसा ही कहे और संसार को वैसा करने के लिए विवश करे। मुंशी प्रेमचंद की लेखनी आज भी सभी को अपने दिल के क़रीब लगती है तो इसीलिए कि उन्होंने अपने दिल से निकली पीड़ा को शब्दों में आकार दिया।
वे सहज,सरल,मिलनसार और सह्दय इंसान तो थे ही उनकी अपनी इच्छाएं भी सीमित थीं। मुंशी प्रेमचंद कालजयी रचनाकार इसीलिए कहे जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने काल को रचनाओं में ढाल कर स्वयं को समय से परे कर लिया था।
हिन्दी सिनेमा ही नहीं भारतीय सुगम संगीत जगत में अगर मोहम्मद रफ़ी नहीं होते तो उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।सहगल के युग के बाद श्रोताओं ने जिस आवाज़ को पसंद किया वह आवाज़ मोहम्मद रफ़ी की ही थी। अपने साथी मुकेश,किशोर,मन्ना डे,तलत महमूद के बीच रहते हुए उन्होंने अपनी आवाज़ के माध्यम से जो भी बुना वह हमारे दिल पर आज भी कायम है। सदाबहार नग़मों की जब बात आती है तो रफी याद आते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ऐसा कोई अवसर नहीं होता जब रफ़ी के गाए गीतों के बगैर कोई कार्य हो जाता हो। उनकी आवाज़ में जो कशिश और खनक थी वह उनके समकालीन गायकों में भी नहीं मिलती। रफ़ी की आवाज़ कुदरत का नायाब तोहफा थी। ऐसे कलाकार धरती पर कभी-कभी ही आते हैं। रफ़ी ने जितने भी कलाकारों के लिए गीत गाए सभी के लिए उनकी आवाज़ अलग-अलग हुआ करती थी। रफी के गीतों से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह गीत किस कलाकार पर फिल्माया गया होगा। स्वभाव में रफी फिल्मी दुनिया की तिकड़मबाज़ी से बिल्कुल अलग थे।साधारण जीवन और सरल व्यवहार ने रफी को सबका चहेता बना दिया था। रफ़ी के गाए गीत आज भी उनकी उपस्थिति का आभास कराते हैं।
यानी ये दोनों महान विभूतियां आज हमारे बीच नहीं होते हुए भी मौजूद है। इन विभूतियों को एक साथ याद करते हुए हम यह सीखें कि अगर अपनी प्रस्तुति में स्वाभाविकता होती है तो वह कालजयी होती है। अगर सफलता का नषा हमारे सिर नहीं चढ़े और हम अपनी ज़मीन को नहीं भूलें तो प्रसिद्धी का आसमान सदैव हमारे लिए उपलब्ध रहता है। यदि हम सहज,सरल और मिलनसार रहें तो सभी के प्रिय बन सकते हैं।आम आदमी के दुःख और उनकी तकलीफ जब तक हमसे एकाकार नहीं होते तब तक हमारी कला में जीवन्तता नहीं आ पाती। इसलिए कोशिश करें कि हमारे दर्द उनके ही दर्द हों जो उपेक्षित और वंचित हैं। हमारे दिल ही नहीं दुनिया के कद्रदानों के दिलों में जिस प्रकार आज तक मुंशी प्रेमचंद और मोहम्मद रफ़ी बसे हुए हैं,वैसे ही बसे रहें । उनका स्मरण करते हुए हम यही प्रार्थना करें।
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