साहित्य सरोकार : सृजन का घट, आंसू का जल और जलज जी

आशीष दशोत्तर

⚫ बादलों का बरसना, नदियों का बहना, पहाड़ों का मुस्कुराना, पेड़- पौधों का बतियाना , सूखते सपनों का हरा होना , यह कोरी कल्पना नहीं है। यह अनुभूति है। जिसे यह अनुभूति होती है , वह गिरती बूंदों में भी जीवन के नैतिक मूल्यों की तलाश कर लेता है। वह बहती नदी में भी किसी प्रेरक प्रसंग का मर्म तलाश लिया करता है। वह पहाड़ की मुस्कान में छिपी पीर को महसूस करता है। ⚫

प्रकृति के ऐसे ही दृश्यों और विंबों को एक आकार देने की अद्भुत कला वरिष्ठ भाषाविद् एवं गीतकार डॉ. जयकुमार ‘जलज’ के यहां नज़र आती है । जलज जी के गीतों में, कविताओं में प्रकृति बार-बार लौटती है । बादल बार-बार बरसते हैं । मन बार-बार भीगता है। बादलों का बरसना, नदी का बहना, मन का भीगना, जीवन की उस सच्चाई को बयान करता है जिसे हम या तो भूलते जा रहे हैं या जिसे जानकर भी भूलने की कोशिश कर रहे हैं।

हर कवि का प्रकृति से लगाव होता है। प्रकृति उसे लिखने के लिए आमंत्रित भी करती है, प्रोत्साहित भी करती है और उसके मन में कई तरह के भय भी पैदा करती है। प्रकृति जब प्रफुल्लित होती है तो कवि का मन भी प्रफुल्लित होता है ,लेकिन प्रकृति जब अपने रौद्र रूप में आती है तो कवि भयभीत भी होता है।उसकी चिंता अपने परिवार तक सीमित नहीं रहती बल्कि वह उस समाज की चिंता करता है जो उसका अपना परिवार है। इस चिंता से जलज जी भी अछूते नहीं रहे। वर्ष 1962 में वर्षा पर लिखे उनके दो महत्वपूर्ण गीत उनकी इसी चिंता को बताते हैं । कर्नाटक के धारवाड़ में भाषा विज्ञान संबंधी आयोजन में उन्हें एक माह तक रहना पड़ा । वह बरसात का मौसम था । वहां पर जो चिंताएं उन्होंने महसूस की , उसे अपने गीत में इस तरह ढाला कि ये चिंताएं हर व्यक्ति को अपनी ही प्रतीत होती है।

बरसते हैं आज सारी रात बादल ।

घिर रहे सब ओर से काले घने बादल

और धरती सहमकर ठहरी हुई सी है

आज की रात यों ही कम नहीं थे कुछ

बादलों से और भी गहरी हुई सी है ।

उमस भारी है, हवा चलती नहीं है

याद आती बिछड़ते घर की

सिमट सोई हुई हलचल ।

शक्ति संचित कर हवा जैसे उठी है लो

घनी आंधी फैलती बढ़ती चली आती

गुल हुई बिजली अंधेरा भर गया घर में

नींव सी जैसे मकानों की हिली जाती,

नींद में बच्चे बहुत भयभीत होंगे

उन्हें ढकता जागता होगा

किसी का कांपता आंचल।

(बरसात में घर की याद)

कवि की चिंता केवल उसकी अपनी नहीं होती बल्कि वह समूची मानवता के लिए चिंतित होता है । वह पेड़-पौधों के प्रति चिंतित होता है । वह जल स्त्रोतों के प्रति चिंतित होता है। वह हर उस पीड़ा के प्रति चिंतित होता है जिसे वह महसूस करता है । वरना बरसात में भीगते व्यक्ति को मरुस्थल की चिंता भला कहां होती है ?  जलज जी ने अपने गीतों में इस चिंता को भी ज़ाहिर कर यह संदेश दिया है कि मनुष्यता के तार इतने छोटे नहीं है जो सीमाओं के दायरे में क़ैद रहें। मनुष्य की आत्मा उसी तरह जुड़ी हुई है जैसे आसमान से बरसते जल और तपती पृथ्वी की आत्मा। वे प्रकृति के बिम्बों के माध्यम से मनुष्य के अभावों पर भी रोशनी डालते हैं।

मैं प्यासा रह गया ,बादलों के पनघट पर भी

वे जो मरुथल में बैठे हैं ,उनका क्या होगा ?

तप हो या सादा जीवन हो

किससे भूख सहन होती है ,

सिर छप्पर के लिए तरसता

काया बिना वसन रोती है ।

मैं तन के घावों को सीने में निश्शेष हुआ

वे जो मन से भी घायल हैं उनका क्या होगा?

उनका क्या होगा

जलज जी की कविताओं में बादल भी बार-बार लौट कर आते हैं । शायद ये उस आकाश के द्योतक हैं जिसके ज़रिए वे विराट पक्ष को लेकर चलते रहे । जब कवि का दृष्टिकोण बहुत व्यापक होता है, उसकी सोच का फलक़ बहुत विशाल होता है , तभी वह अपनी सोच में बादलों से फैलाव को शुमार करता है। ये बादल सिर्फ़ बादल नहीं है बल्कि ऐसे संदेशवाहक भी हैं जो हर जगह बरस कर एक सुखद वातावरण बनाते हैं। यकीनन हर बादल का अपना जल होता है और उस बादल को उसी रूप में महसूस किए जाने की ज़रूरत है। प्रतिद्वंद्विता की दौड़ में मनुष्य के आंकलन के मानी बदल दिए हैं। एक ही तराजू पर सभी को तौलने की प्रवृत्ति पर जलज जी की कविता प्रहार करती है।

कुछ नखशिख सागर भर देते

कुछ के निकट गगरिया प्यासी

कुछ दो बून्द बरस चुप होते

कुछ की हैं बरसातें दासी

हर बादल का अपना जल है

हर जल की अपनी चंचलता

ऐसा नियम न बांधो, सारे

बादल एक तरफ चुक जाएं।

ऐसा नियम न बांधो

हर दौर में अवसरों की कमी रही है । नए व्यक्ति के सामने सदैव चुनौतियां रहीं और चुनौतियों से जूझने के बाद भी उसे वह सब कुछ नहीं मिल पाया , जिसकी उसे चाहत रही । कवि इस बात को बहुत सीधे तरीके से नहीं कहता। जलज जी के यहां भी यह बात बहुत सादगी के साथ तो आती है मगर प्रकृति का पुट लिए हुए। एक शिक्षक की तरह उन्होंने विद्यार्थियों को पढ़ाने के साथ विद्यार्थियों के जीवन को पढ़ा भी। वहीं उन्होंने महसूस किया कि संभावनाओं के आकाश में उड़ने के लिए आतुर एक परिंदे को उड़ने का अवसर न मिलना यह प्रदर्शित करता है कि हर व्यक्ति के समक्ष चुनौतियां कई सारी हैं, जिनसे उसे खुद ही निपटना होगा।

किसे पता है किस बादल में कितनी क्षमता

बरसा सकता वह धरती पर कितनी ममता,

कितनी जलन तपन को वह नहला सकता है,

कितने मरू देशों में जाकर गा सकता है ,

पर कितना दुर्भाग्य ,दोष किसको दे दें हम

मेघ बहुत उनको छा जाने को

आकाश नहीं मिलता है।

किसे पता है

प्राकृतिक बिम्बों के ज़रिए प्रकृति की बात ही की जाए, यह ज़रूरी नहीं । बात कहने के सलीके को भी जलज जी के यहां सीखा जा सकता है । किस बात को किस तरीके से कहना और कहन में कितनी शालीनता हो, लेकिन उसका असर बहुत गहरा हो, इसके लिए प्रकृति एक महत्वपूर्ण माध्यम बन सकती है।

एक बार वे नदी पर गए

उन्होंने नदी से पूछा –

इस तरह बहती हो

नंगी और निर्लज्ज

कपड़े पहनने चाहिए

और वह एक समूची जीवित नदी

रेत में बदल गई।

ग़ैर रचनाधर्मी

प्रकृति को रूपक बनाकर कई सारे दृश्य जलज जी ने उपस्थित किए हैं। प्रकृति के प्रति उनकी आसक्ति, उनका प्रेम और उस के माध्यम से किसी महत्वपूर्ण बात को कह देना हर किसी के बस में नहीं होता । ख़ासतौर से छांदिक अनुशासन में ऐसी रचनाएं बहुत प्रभावी होती हैं। जलज जी के यहां बरसात के कई आयाम उपस्थित होते हैं।

थमने दो यह बरसात

तभी निर्णय होगा

कितना जल रुकने को है

कितना बहने वाला है।

कुछ ऐसा पथ है सबके पांव फिसलते हैं

जो रुके हुए हैं लगता वह भी चलते हैं

कोई देखे सबके सब राही से दिखते

बहती गंगा है सबके हाथ मचलते हैं

पथ को अंगड़ाई लेने दो ,निर्णय होगा

लो कौन चरण उस पर आख़िर तक

रहने वाला है।

थमने दो बरसात

प्रकृति में प्रेम भी होता है और प्रेम की अपनी प्रकृति भी होती है । जलज जी की रचनाओं में ये दोनों अनायास ही एक दूसरे से आबद्ध होते दिखाई देते हैं । कवि प्रेम की बात भी करता है तो प्रकृति को माध्यम बनाकर और प्रकृति की बात करता है वहां भी प्रेम उपस्थित होता है। प्रकृति और प्रेम एक दूसरे के पूरक हैं और इसी पूर्णता को जलज जी की रचनाओं में देखा जा सकता है।

यह लघु लहरें इन्हें अकम्पित मत रहने दो

इस तट से उस तट तक इन्हें मुक्त बहने दो,

शब्दों से रेतीला वातावरण भिगो दो।

बैठो थोड़ा पास, तनिक कुछ बोलो

ये गुलाब पंखुरिया खोलो।

बैठो थोड़ा पास

जीवन की आपाधापी में प्रकृति के ये दृश्य हम से छूटते जा रहे हैं । प्रकृति मुस्कुरा रही है मगर मनुष्य को उसकी तरफ़ देखने की फुर्सत नहीं। प्रकृति उसे आवाज़ दे रही है मगर मनुष्य को उसे सुनने का समय नहीं है । ऐसे में कवि बार-बार यह आग्रह करता है कि उस प्रकृति के करीब जाएं, उससे बतियाएं, उसके बीच अपना समय गुज़ारें। प्रकृति हमसे कुछ लेगी नहीं, बल्कि इतना कुछ देगी जिससे हमारी कई सारी मुश्किलें आसान हो जाएंगी।

वह दूर क्षितिज पर धरती से अंबर मिलता

बादल के तन से बिजली लिपटी सोई सी,

झोंका आया, लतिकाओं के झुक गए माथ,

फूलों के भीतर गंध छुपी है खोई सी

ये शत-शत आवाहन किस को मिल पाते हैं ,

इस मौसम को क्षण भर तो बैठ प्रणाम करें।

आओ दो क्षण बैठ कहीं विश्राम करें।

बैठ कहीं विश्राम करें

मन में एक उत्साह प्रकृति भरती है। यही कारण है कि प्रकृति को लेकर हर मन संवेदनशील होता है । शायद ही कोई मनुष्य हो, प्राणी हो या वनस्पति, जो प्रकृति के स्पर्श से प्रभावित न होता हो। इसी प्रकृति के इशारों को जीवन के संकेतों से जोड़ना और जीवन के  मर्म को प्रकृति के दृश्यों से एकाकार करना ही रचनाकार की आकांक्षा होती है। जलज जी के यहां भी ऐसी दृश्यावलियां एकत्रित होकर वह संदेश देती है जो सीधे- सीधे मन में उतरता है।

ऐसे मस्त रहो, जैसे बादल कजरारा

झूम उमड़ती हुई कि बरसाती जलधारा ।

फिर भी नम्र रहो जैसे धरती की माटी

पाओ वह गाम्भीर्य कि जो सागर की थाती ।

ऐसे नाचो जैसे लहरें हो नदिया की

ऐसे इठलाओ जैसे शोभा बिंदिया की ।

फिर भी आंखों के पानी की कीमत जानो,

जिसमें पानी नहीं , न उसको जीवित मानो।

उद्बोधन

विचारों का प्रवाह और दृष्टि का विस्तार कवि अपनी रचनाओं के ज़रिए देता है। जलज जी के यहां यह विस्तार बहुत गंभीरता से आता है।  वे मनुष्य को अपनी दृष्टि का विस्तार आसमान की तरह करने की प्रेरणा देते हैं । ज़मीन से जुड़े रहकर अपने सपनों को आसमान की तरह फैलाना और उन सपनों को पाने के लिए अपनी कोशिशें करना। ऐसी ही प्रेरणा जलज जी की पंक्तियों में भी नज़र आती है।

तुम आंधी के पांवों से चल कर तो देखो

ऐसा बादल कौन तुम्हारी राह न छोड़े

आसमान की तरह ह्रदय को फैलाओ तो ,

ऐसी धरती कौन तुम्हारी छांह न ओढ़े

यह पहाड़ जो अपराजेय दिखाई देता

शीश झुकाता आया है सम्मुख घायल के ।

तुम थकान से समझौता करके बैठे हो,

पलक पाॅंवड़े मुरझाते होंगे मंज़िल के।

तुम थकान से

समय ने परिस्थितियों को बदल दिया है। परिस्थितियों ने मनुष्य को बदल दिया है। आज मनुष्य के सामने चिंताएं अनेक हैं लेकिन वे सभी ख़ुद उसी से जुड़ी हुई हैं। वह ख़ुद से आगे देख ही नहीं पाता है। ऐसे में लाखों-करोड़ों लोगों के बारे में सोचना और कोई फैसला लेना चंद लोगों ने अपना दायित्व समझ लिया है । जब व्यक्ति स्वयं समाज की चिंताओं से विमुख हो जाता है तो ऐसे ही लोग समाज की बागडोर को अपने हाथों में ले लिया करते हैं। प्राकृतिक विंबो के ज़रिए जलज जी ने ऐसे लोगों की सोच पर भी प्रहार किया है

किस लहर से डूबते हैं किस लहर से पार होते,

आज निर्णय कर रहे वे जो न जल को जानते हैं ।

आंसुओं का रंग क्या है ,

भूख क्या है ,प्यास क्या है ,

सभी कुछ है किंतु फिर भी

आदमी के पास क्या है?

जो पसीने को नहीं पहचानते हैं

जानते हैं जो न सीमित

आंख में आकाश क्या है ?

किस दिशा से आ रहे हम

किस दिशा को जा रहे हैं

आज निर्णय कर रहे हैं

जो न हम को जानते हैं।

निर्णायक गण

व्यक्ति का अहम उसे आगे नहीं बढ़ने देता है। ऐसे में एक रचनाकार का यह धर्म हो जाता है कि वह मनुष्य को विचारवान होने की प्रेरणा दे, संस्कारवान होने की प्रेरणा दे, विनम्र होने की राह बताए और इन सब से अधिक मनुष्य होने की तरफ प्रवृत्त करे। जलज जी की पंक्तियां भी मनुष्य के इन्हीं नैतिक मूल्यों की स्थापना की बात करती हैं।

मैं लहरों की तरह एक क्षण मिला बह गया

जाने क्या था अहं, चला , फिर नहीं मुड़ा मैं

पर तुम तट जो अटल प्रतीक्षा रही तुम्हारी

सागर तक जा, फिर बादल बन कर बरसा मैं,

सहज समर्पण से तुमने यों मुझे हराया

दुनिया की हर बात बहुत फीकी लगती है।

जाने क्या मस्ती

समय की विडंबना और झूठ के साम्राज्य में सच किस तरह व्यथित है, इसे जलज जी ने अपने गीत में बखूबी उभारा है। इस गीत को जब भी पढ़ा-सुना जाता है, तब-तब यह गीत उसी वक़्त का नज़र आता है। इस गीत में उन लोगों को बेनकाब करने की ताक़त भी महसूस होती है जो झूठ के सहारे मंज़िलों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं । बिना ज्ञान के ज्ञानियों का निर्णय करना, बिना अनुभव के अनुभवी लोगों पर राज करना , बिना विचार के वैचारिकता के पुल बांधना , यह सब हर दौर में हुआ है और आज भी हो रहा है । जलज जी की कविता ऐसे लोगों पर ही कटाक्ष करती है।

जो ग़लत है वही सबसे तेज़ चलता है

व्यर्थ है जो वही ऊपर को उभरता है

पतन के गज से सफलता मापते हैं सब

चेतना का गांव सा जैसे उजड़ता है ।

सुबह लाने के लिए जूझो न जूझो हो तुम

किंतु हंसकर इस अंधेरे को सहो तो मत ।

धार में संभलो न संभलो तुम

कूल पर रहकर बहो तो मत।

सुबह लाने के लिए

जलज जी का एक और सुप्रसिद्ध गीत है, जिसमें वे आंसू के जल के ज़रिए समाज के उस नैतिक पतन की व्याख्या करते हैं जो हमारे समय का सच है। अभाव में जीवन-यापन कर रहे मनुष्य को अब तक उसका सुख नहीं मिल पाया है। आंखों में लाखों सपने लिए युवा रोज़गार की तलाश में भटक रहे हैं। दो वक़्त की रोटी के लिए करोड़ों लोग आज भी कई-कई तरह से स्वयं को मजबूरियों में धकेल रहे हैं। ऐसे में मनुष्य का पतन होना, आंख के पानी के पतन के समान है जिसके बाद किसी सुख की कल्पना नहीं की जा सकती। कवि फिर भी इन विषमताओं के समक्ष खड़ा होकर यह विश्वास दिलाता है कि हर पल प्रयास करने से ही सफलता हासिल होती है । अंधेरे का मुकाबला एक दीप जलाने से ही होता है। रोशनी तम का प्रतिकार करने पर ही मिलती है।

सींचें जल कितना ही रेत पी जाती है

अंकुओं पर दोपहरी आग बरसाती है ।

आंखों के जल का यह ,एक पतन और

रौशनी उगाने का एक जतन और।

एक जतन और

निरंतर बहते रहना ही जीवन की पहचान है। बरसात में जगह-जगह पोखर भर जाते हैं लेकिन थोड़ी सी तपन होते ही वे सभी सूख भी जाते हैं । तालाब का जल भरा ज़रूर होता है मगर दुर्गंध मारने लगता है। ऐसे में एक रचनाकार मनुष्य को यह सीख देता है कि निरंतर बहने में ही जीवन का प्रवाह छिपा हुआ है। बहता हुआ पानी कई ज़िंदगियों को खुशहाल करता है। प्रकृति को एक नया रूप देता है। पत्थरों को लुढ़कना भी सिखाता है। फिर ऐसी नदी के समान मनुष्य क्यों नहीं बनता।

बहती रही एक नदी चुपचाप

शांत और निर्मल -केवल नदी ,

तह दर तह आर्द्र होती गईं शताब्दियां

और फैलती गई हरियाली

अनुपजाऊ समर्पित चट्टानें

बदलती गई उपजाऊपन में

यहां से वहां तक पोर पोर में

एक सजल अनुभव है नदी।

नदी की तलाश

डॉ. जयकुमार ‘जलज’ उस शख़्सियत का नाम है जिसने महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के समक्ष अपनी कविता सुनाई भी और जवाब में निराला जी की कविता सुनी भी। यह क्षण कितना दुर्लभ होगा, इसकी कल्पना से ही हम रोमांचित हो उठते हैं। ऐसे में जलज जी स्वयं जब निराला के बारे में सोचते हैं तो वे निराला को अपने क़रीब ही पाते होंगे। निराला की बात करते हुए भी जलज जी के यहां प्रकृति के, परिवेश के परिधान लहराने लगते हैं।

नद था सैलानी

मरुथल में हरियाली भरने आया था ,

दाएं ,बाएं, नीचे रेत रेत थी

ऊपर सूखी हुई हवाओं का साया था ।

फिर भी वह बढ़ चला हरे संकल्पोंवाला

कटने लगा मरुस्थल का बंजर अंधियारा

बिखरी रेतीली भींतें, बंध्या परिपाटी

दूब गोद में, हंसती नूतन मां सी माटी।

निराला और हम

प्रकृति के प्रति आसक्ति और रुझान से यह बात तो पता चलती ही है कि एक रचनाकार को अपने परिवेश के प्रति कितना सतर्क और संवेदनशील होना चाहिए । जलज जी जब प्रकृति के प्रति इतने संवेदनशील होकर अपनी बात कहते हैं। अपनी हर कविता में प्रकृति के बिम्बों का इस्तेमाल करते हैं, तो वह उस खुलेपन का पक्ष लेते हैं जो मनुष्य को उड़ने के लिए प्रेरित करता है, उसे अपने हाथ-पैर फैलाने की प्रेरणा देता है।

सघन हुए बादल

लो, फैल चले।

यहां-वहां सभी कहीं

नीले ,सांवले , भरे भरे गहरे, कजरारे ,काले ।

आह ! उस रेखा को कैसे बचाऊंगा

जाने किस क्षण वह भी बरसे

मेरे ही द्वार से गुज़रे ।

आह ! उस रेखा को कैसे पहचानूंगा ।

बादल रेखा

और न जाने कितने ही ऐसे दृश्य हैं जिन्हें जलज जी ने अपनी रचनाओं में बांधा है। ऐसे सुंदर और मनोरम दृश्य सिर्फ़ प्रकृति का वर्णन भर नहीं हैं, बल्कि यह प्रकृति के साथ जीवन का तादात्म्य स्थापित करने के समान है । जब कवि मनुष्य और प्रकृति को एक होने की सीख देता है तो वह समूची सृष्टि को एक करने की बात करता है। वैमनस्य का विसर्जन और सौमनस्य का सृजन ही उसका मूल उद्देश्य होता है । जलज जी के इस प्रकृति प्रेम से भी उसी सृजनशीलता की प्रेरणा प्राप्त होती है।

आशीष दशोत्तर

⚫ 12/2, कोमल नगर
बरवड़ रोड
रतलाम -457001(म.प्र.)
मो 9827084966

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