रहस्य रोमांच से भरपूर उत्तराखंड की यात्रा : सवा लाख शिवलिंगों वाला गांव लाखामंडल
⚫ मंजु पांगती मन
सवा लाख शिवलिंग इस क्षेत्र में होने के कारण इस गाँव का नाम लाखामंडल होने की बात कही जाती है। लाक्ष्यागृह का अवशेष और सुरंग का मुखद्वार जो अब बंद किया गया है, इसका दूसरा छोर सड़क के पास खुलता है। वहाँ लोग दर्शन करते हैं। लाक्ष्यागृह के अंदर पाँच भाई पांडव, धर्मराज युधिष्ठिर बीच में शिवलिंग के रूप में और चार कोनों में चार भाई खम्भ के रूप में और द्वार पर दो द्वारपाल स्थित हैं।
चकराता विकास खण्ड की एक ग्राम सभा है लाखामंडल। चकराता, कालसी और त्यूनी तीन तहसीलों से मिल कर बना है जौनसार बाबर। विकास नगर से कुछ किलोमीटर आगे चलने के बाद यमुना नदी उत्तरकाशी और देहरादून जनपद की सीमा रेखा बन जाती है। दाईं ओर उत्तरकाशी और बांईं तरफ देहरादून जनपद है।
लाखामंडल चारों तरफ पहाड़ियों के बीच में बसा है। यहाँ पुजारियों की पूजा-अर्चना करने की बारी लगती है। जिस समय जो पुजारी पूजा नहीं कर रहे होते हैं, उस समय वे पर्यटकों को जानकारी दे रहे होते हैं। यहाँ वर्ष भर श्रृद्धालु शिवदर्शन – अर्चना को आते रहते हैं। यहाँ अखंड ज्योति भी जलती है। संतान प्राप्ति के लिए भी यहाँ लोग आते हैं। मंदिर के प्रांगण में न्याय पंचायत बनी है। गाँव का कोई भी विवाद या लडाई-झगड़े, यहीं निपटाए जाते हैं। कोर्ट-कचहरी तक मामला पहुँचता ही नहीं।
यहाँ मंदिर के हर पत्थर में गौखुर के निशान की आकृति बनी है। 1972 की खुदाई में निकले शिवलिंग पर पानी डालने के बाद उस पर दर्पण की तरह कोई भी अपना चेहरा निहार सकता है। मंदिर के प्रांगण में सतयुग, द्वापर और त्रेता युग के शिवलिंग अवस्थित हैं। कुछ अवशेष 2022 की खुदाई में भी निकले हैं, जब यहाँ संग्रहालय बनाया जा रहा था । यहां की एक और दिलचस्प खासियत यह कि जहाँ भी खुदाई करो, वहाँ शिवलिंग निकल आते हैं, ऐसा यहाँ के लोग भी बताते हैं। लाखामंडल से चकराता की तरफ दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद लगभग 200 मीटर की चढ़ाई करो तो पार्वती कुण्ड का लाजवाब नजारा देखा जा सकता है। यहाँ छोटी-छोटी पहाड़ियों पर गाँव बसा है। यहाँ के लोग कहते हैं, होता होगा सुन्दर शहर और कहीं, होते होंगे सुन्दर मंदिर और कहीं पर हमारा लाखामंडल गांव कमल की पंखुडियों की आकृति के पर्वतों के बीच बसा है और यहां का मंदिर अपने आप में दिव्य अनुभूति कराने वाला अनूठा है।
लाखामंडल से नेरूवा हिमांचल
मैं 22 जून 2023 लाखामंडल से सुबह 7 बजे चकराता के लिए रवाना हुई। करीब 10 बजे चकराता पहुँच गई। 64 किमी का यह सफर बेहद खूबसूरत रहा। लाखामंडल से सुबह एक टैक्सी निकलती है, चकराता के लिए फिर वही टैक्सी एक बजे वापस आती है। इसी लिए टैक्सी खूब लद कर जाती है। छत पर भी सवारी खूब ठसाठस भरी रहती है, वहीं कुछ एक यात्री तो लटक भी जाते हैं। चकराता पहुँचते – पहुँचते थोड़ी बारिश भी हो गई। चकराता एक सुन्दर व छोटा- सा हिल स्टेशन होने के साथ ही विकास खण्ड और तहसील मुख्यालय भी है। यह पूरा आर्मी कैंट एरिया है।
बारिश की वजह से ठंड बढ़ गई थी। शहर पूरा जागा भी नहीं था और पूरा इलाका कोहरे की जद में था। एक चक्कर लगाने के बाद मैंने एक कप चाय और गरमागरम मोमोज का नाश्ता किया। ज्यादा कुछ था नहीं, इसलिए नीचे उतर कर टैक्सी स्टैण्ड पर आ गई और कालसी के लिए चल पड़ी। चालीस किमी का यह सफर भी शानदार रहा। बरसात के दिनों चकराता में बहुत घना कोहरा छा जाता है। उस दौरान दिन में भी टार्च की मदद से चलना पडता है ,ऐसा मुझे स्थानीय लोगों ने भी बताया।
कालसी यमुना नदी के तट पर बसा एक ऐतिहासिक शहर है। करीब बारह बजे कालसी शहर पहुँचते ही सड़क के बाईं तरफ एक बोर्ड दिखाई दे गया जिस वजह से मैं यहाँ आईं थी। वह था सम्राट अशोक का शिलालेख। मैं वहीं उतर गई और सौ मीटर की दूरी पर स्थित उस बौद्ध स्तूप को गौर से देखा तो रोमांचित हुए बिना नहीं रही। करीब एक घंटा लग गया। अब मुझे जाना था त्यूनी ,उसके लिए मुझे वापस चकराता जाना पड़ रहा था और मैं वापस में उसी रास्ते पर जाना नहीं चाहती थी। किसी ने मुझे बताया कि ढ़ाई बजे शिमला वाली बस त्यूनी होकर जाती है और मैं उस बस में चढ़ गई। टिकट लेते वक्त कंडक्टर ने कहा कि यह बस त्यूनी होकर नहीं जाएगी और शिमला जनपद के नेरूवा गाँव तक ही जाएगी।
मैंने नेरूवा का टिकट ले लिया और नेरूवा की कल्पना करते लगी। गाड़ी टॉन्स नदी के सहारे बनी सड़क पर चलने लगी। लगभग 60 किमी घने जंगलों के बीच बहती टॉन्स नदी की दायीं ओर पहाड़ी की तलहटी पर बनी सड़क पर गाड़ी एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी पर सरक रही थी और बीच में टॉन्स बलखाती हुई हमसे दूर चली गई। फिर एकाएक दिखाई देने लग जाती है। आखिरकार हमने टॉन्स को पार किया और दाईं तरफ चल दिए। अब हम हिमांचल प्रदेश में थे। टॉन्स बायीं तरफ मुड़ कर हिमांचल प्रदेश के सिरमौर जनपद और देहरादून जनपद की सीमा तय करती हुई आगे बहती जा रही थी। यहाँ से नेरूवा अभी 33 किमी दूर था। यहीं पर नेरूवा से लगभग 30-35 किमी दूरी पर ऊंची पहाड़ी चूडधार से निकलने वाली शालवी नदी टॉन्स में मिल जाती है। चूडधार में शिव महादेव का मंदिर है। हजारों की संख्या में वहाँ पर्यटक व श्रद्धालु हर रोज पहुँचे रहते हैं। इसी शालवी के तट पर बसा है नेरूवा गाँव। सात बजे मैं नेरूवा में पहुँची, कमरा तय करने के बाद बाजार का एक चक्कर लगाया फिर भोजन कर निंद्रालीन हो गई।
नेरूवा से कुफरी’ हिमांचल प्रदेश
सुबह साढ़े सात बजे मैं, नेरूवा से आगे का सफर तय करने के लिए बस में सवार हुई। यहाँ से सुबह तीन-चार बसें शिमला के लिए निकलती हैं, मैं अंतिम चौथी बस में सवार थी, क्यों कि मुझे बीच में चौपाल में कुछ समय ठहरना था। लगभग 27-28 किमी पर चौपाल आया। यहां छोटा- सा स्थानीय बाजार था ,इस लिए अब यहाँ पर ठहरने का मुझे कोई औचित्य नजर नहीं आया। इसलिए मैंने कुफरी तक का टिकट ले लिया। यहाँ से कुफरी 69 किमी और शिमला 85 किमी था।
नेरूवा जो शालवी के तट पर था। अब यहाँ से ऊपर ऊँचाई की ओर हमें जाना था। रास्ते भर छोटे-छोटे गाड़ गधेरो के साथ बस चल रही थी। यहाँ खड़ी पहाड़ियाँ और गाड़-गधेरों की जड़ से ही देवदार के पेड़ांे का उगा होना मनमोहक दृश्य पैदा कर रहा था। चारों ओर पहाड़ी रंगीन सजी नजर आ रही थी। लोगों के घर दूर-दूर पहाड़ियों में बसे थे। जिनकी हरे, नीले, लाल व स्लेटी छतें पहाड़ियों को जीवंत बना रहे थी। घरों के बीच की जगह सेब के खूब बागान दिखाई दे रहे थे ,जिनकी पहचान सफेद नायलोन की मजबूत जालियों से हो रही थी। ये जालियां सेबों की फसल को ओलो की मार से बचाने के लिए लगाई जाती हैं। पूरी पहाड़ियाँ इन जालियों से आच्छादित थी। मौसम भी आज बादलों व हल्की धुंध वाला था जिस कारण ये पहाड़ियों में लगी जालियां बर्फ होने का भ्रम पैदा कर रही थी।
इन सेब के बागानों के बीच-बीच में देवदार के पेड़ों के समूह पूरी पहाड़ी को शानदार और जानदार बना रहे थे। चोैपाल को पार करने के बाद शुरू होता है देवदार के घने जंगलों के बीचों-बीच का सफर । देवदार के ऊँचे-ऊँचे और घने पेड़ों के बीच से छन कर आती कोहरे की ठंडी-ठंडी फुहारें मुझे मंत्रमुग्ध कर रही थी। बीच में कहीं-कहीं पर कम पेड़ या यूँ कहें कुछ खालीपन था ,वरना पूरे कुफरी पहुँचने तक देवदार के जंगल विद्यमान थे।
छोटा सा हिल स्टेशन कुफरी
कुफरी एक छोटा सा हिल स्टेशन है। यहाँ होटल रिजॉर्ट ही अधिक हैं। चाय की पहाड़ी दुकानें बिल्कुल नहीं है। सड़क की निचली ढलाइन पर गाँव बसा है, लोगों के अपने सेब के बगीचे हैं। बाजार में स्थानीय लोगों का कोई दखल नहीं है। शांत वातावरण में कुफरी से 2 किमी ऊपर की ओर टैक्सी से पर्यटक एडवेंचर एक्टिविटी स्पॉट के लिए जाते हैं, वहाँ से 2 किमी आगे घोड़े की सवारी के बाद ही उस स्पॉट पर पहुँचा जाता है।
स्थानीय लोगों का अच्छा कारोबार चल रहा है। 23 जून की रात मैने कुफरी में बितायी।यहाँ आलू की खेती का रिसर्च सेंटर है। अनेक प्रकार की किस्में यहाँ तैयार की जाती हैं। कई एकड़ में इनके फार्म हैं। आलू की फसल सीधे राज्य सरकार के भंडारगृहों में जाती है।कुफरी की शांत वादियां बहुत मोहक हैं। वहीं सामने हिमालय पर्वत की दिलकश बेहद श्रृंखलाएं दिखाई देती हैं लेकिन आज मौसम साफ नहीं होने के कारण वे दिखाईं नहीं दे रही थी, फिर भी मैंने भरपूर लुत्फ उठाया।