कला सरोकार : ‘संजाबाई का लाड़ाजी, लूगड़ो लाया जाड़ाजी’ आनंद और उत्साह का संचार करता संजा पर्व
⚫ संजा एक लोकपर्व है। मालवा, निमाड़, राजस्थान और पंजाब में यह विशेष मनाया जाता है। यही पर्व महाराष्ट्र में “भुलाबाई “नाम से कुंवारी कन्याओं द्वारा मनाया जाता है। प्रत्येक प्रदेश में यह विभिन्न नामों से अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार यह त्यौहार मनाया जाता है।। संजा पर्व संपूर्ण वातावरण को सुखद और आनंदमय बनाता है। दैनिक जीवन की एक रसता को दूर कर आनंद और उत्साह का संचार करता है। ⚫
“काजल टीकी लेयो बई काजल टीकी लेयो,
काजल टीकी लेन, म्हारी संजा बई ने देओ।
संजा बई रो पीहर सांभर में,
परण पदार्या जडयज में।
छोड़ो अपनी चाकरी ,
पधारो अपने देस।”
भारत त्योहारों का देश है। अंचल से जन्मे लोक संस्कृति के चटक-सरस नवरंग जीवन को नवोर्जा-नवोत्साह से पूर्ण कर देते हैं। संजा एक लोकपर्व है। मालवा, निमाड़, राजस्थान और पंजाब में यह मनाया जाता है। यही पर्व महाराष्ट्र में “भुलाबाई “नाम से कुंवारी कन्याओं द्वारा मनाया जाता है।
प्रत्येक प्रदेश में यह विभिन्न नामों से अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार यह त्यौहार मनाया जाता है।
श्राद्ध पक्ष में सोलह दिन तक रोज लड़कियाँ दीवारों पर गोबर से आकृतियाँ बनाती हैं, जिसे संजा कहा जाता है। संजा माता का पूजन कर संजा के गीत गाए जाते हैं। श्राद्ध में इस उत्सव को मनाने के पीछे कारण यह माना जाता है कि इन दिनों देवी पार्वती अपनी मायके लौटती हैं। लोक गीतों के बोल से यह भी पता चलता है कि संजा माता विवाह उपरांत ससुराल में ज़्यादा समय तक प्रसन्न नहीं रह पाई हैं।
प्रथम दिन पूनम का पाटला बनाया जाता है, दूसरे दिन
बिजौर, तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़, पाँचवें दिन पाँच कुंवारें, छठे दिन छबड़ी, सातवें दिन सातिया या सप्त ऋषि, आठवें दिन आठ फूल, नवें दिन आठ पत्तियों का फूल, दसवें दिन वन्दनवार, ग्यारहवें दिन केले का पेड़, बारहवें दिन मोर-मोरनी, तेरहवें दिन बन्दनवार और चौदहवें दिन किलाकोट, ये सभी आकृतियाँ किलाकोट के अंदर बनाई जाती हैं,किलाकोट अंतिम मांडना है। इनमें क्षेत्रवार कुछ परिवर्तन भी हो सकते हैं।
तिथिवार संजा बनाकर संजा के गीत गाए जाते हैं। उत्सव के दौरान कन्याएँ संजा माता की आराधना करती है, गीत गाकर वे अपने मन की बात कहती हैं। संजा पर्व एक लोकपर्व है। इस पर गाए जाने वाले लोकगीत बहुत ही हृदयहारी एवं सरस होते हैं।
“छोटी सी गाड़ी गुड़कती जाए, गुड़कते जाए,
जी में बैठ्या संजा बाई, घाघरो घमकाती जाए,
चूड़लो छमकाता जाए, बईजी की नथनी झोला खाए,
बताई दो वीरा पीयर जाए।
संजाबाई का लाड़ाजी, लूगड़ो लाया जाड़ाजी।”
महाराष्ट्र और विदर्भ में पार्वती जी की शंकर जी की और गणेश जी की पूजा की जाती है। इस पर्व को महाराष्ट्र में “भुलाबाई” कहते हैं। इसमें पार्वती शंकर और गणेश जी की स्थापना करके पूजन किया जाता है। यह भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर अश्विनी पूर्णिमा तक मनाया जाता है।
इसकी पौराणिक कथा इस प्रकार
एक बार शंकरजी और पार्वतीजी चौपड़ खेल रहे थे। खेल में पार्वती जी की जीत हुई तो शंकर जी नाराज होकर उठकर चले गए। पार्वती जी भीलनी का रूप धारण करके उनको ढूँढने निकली। भील के रूप में शंकर जी उन्हें मिले। भीलनी का अपभ्रंश होकर भुलाबाई और भील का अपभ्रंश होकर भुलोजी नाम पड़ा। उसके बाद में पार्वती जी अपने मायके आई और एक महीने तक वहाँ रही।
“सदा शंभू कांई पूछो जात हमारी,
मैं तो भिलनी जात गंवाई भोला शंभू कांई पूछो जात हमारी
कौन दिशा से आई हो भीलनी कौन दिशा को जैसी,
कसा हो भील की पुत्री कहियो किस कारण वन में सिधारी।
उत्तर दिशा से आई हूँ सदाशिव दक्षिण को में जासी।
बड़ा वो भील की पुत्री कहिए पति कारण वन में पधारी।”
इस पूजा में सजावट के साथ पार्वती जी, शंकर जी मूर्ति रखते हैं और हल्दी की गाँठ गणेश जी के रूप में रखते है। नित्य संध्या काल में कुंआरी लड़कियाँ घर-घर जाकर गीत गाती हैं। ज्यादातर गीतों में शब्दों पर जोर, मेलजोल रहता है। ससुराल और मायके के रहन-सहन, रीति-रिवाजों का वर्णन होता है। गीत गाने के बाद प्रसाद को पहचानना होता है। प्रसाद पहचान के बाद ही उसका वितरण होता है। प्रत्येक घर में जाकर लड़कियाँ गीत गाती है और हर घर में प्रसाद का वितरण होता है।
संयुक्त परिवार का परिचय देने के लिए, किशोरियों की सृजनात्मकता में वृद्धि के लिए, शादी के बाद गृहस्थी कैसी होती है। नाते-रिश्ते-संबंध कैसे होते हैं। ससुराल का वातावरण कैसा होता है। इसके माध्यम से लड़कियाँ वैवाहिक जीवन की पूर्व कल्पना कर लेती हैं। साथ ही घर की स्त्रियाँ भी इसमें सम्मिलित होकर पकवान बनाकर, अपने बचपन को जी लेती हैं। संजा पर्व संपूर्ण वातावरण को सुखद और आनंदमय बनाता है। दैनिक जीवन की एकरसता को दूर कर आनंद और उत्साह का संचार करता है।
⚫ यशोधरा भटनागर