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मुद्दे की बात : बाल अपराध कानून में परिवर्तन की दरकार

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अपराध की वेतरणी में बहुत गंदगी बह चुकी है। स्थिति बहुत विकट है और इसे सुधारने के लिए बहुत सख्त कानून की आवश्यकता है। हमारी रुचि एक प्रकरण में नहीं , आवश्यक कानूनी बदलाव में हैं। समाज को भी बाल अपराध को रोकने के लिए बहुत काम करने की आवश्यकता है।नागरिक भी ऐसे प्रकरणों को रोकने में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं।

प्रो. डी.के. शर्मा

वर्तमान युग ज्ञान और विज्ञान का समय है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास ने सभी प्रकार की जानकारी, अच्छी और बुरी दोनों, सरलता से सबके लिए उपलब्ध करवा दी है। बहुत छोटे बच्चे भी मोबाइल का उपयोग करके सभी कुछ सीखने लगे हैं, दुर्भाग्य से अच्छाई कम, बुराई ज्यादा। पिछले कुछ वर्षों में बाल और किशोर बच्चों ने जघन्य अपराध किए हैं। कुछ पुनः स्मरण करना उचित होगा। दिल्ली का निर्भयाकांड सबसे ऊपर है। निर्भया के साथ सबसे जघन्य कृत्य एक किशोर ने किया था। उसने उसके गुप्तांग में लोहे का सरिया डाल दिया था। जो वयस्क थे उनको तो फांसी की सजा तो हो गई लेकिन सबसे अधिक क्रुरता करने वाला कानून की आड़ में बच गया। उपलब्ध जानकारी के अनुसार वह आराम की जिंदगी जी रहा है। लोग उसके द्वारा किए दुष्कर्म को भुल गए हैं।

ऐसा ही एक प्रकरण रतलाम में हुआ। स्कूल में पढ़ने वाले दो लड़को ने अपनी सहपाठी लड़की को फंसाकर जबरन एक से अधिक बार रेप किया। नाबालिग होने की आड़ में वे भी बच निकले। उन्होंने स्वीकार किया था कि वे अपने एक महिला शिक्षक को भी फंसाकर उसके साथ रेप करना चाहते थे। बाल अपराधी आराम की जिंदगी जी रहे लेकिन लड़की का जीवन तो नर्क से भी अधिक पीड़ादायी हो गया होगा। ऐसे अनेक प्रकरणों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जिसमें कानून के अनुसार नाबालिग लड़कों ने गंभीर अपराध किए हैं। ऐसे ही एक प्रकरण में 10 – 12 वर्ष के लड़के ने पांच वर्ष की बच्ची के साथ दुराचार किया था।

नाबालिगों द्वारा कार चढ़ाकर लोगों के प्राण लेने की भी कई गंभीर घटनाएं हुई हैं। जिस घटना ने यह आलेख प्रेरित किया है वह नवीनतम पूणे की है जिसमें एक धनाढ्य पिता के नाबालिग पुत्र ने तेजी से कार चलाकर दो लोगों के प्राण ले लिए। कार चलाने के पहले उसने होटल में शराब भी पी। अपने बिगड़ेल पुत्र को बचाने के लिए उसके पिता तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। वहां की पुलिस ने तुरंत कार्यवाही करके लड़के के पिता को भी गिरफ्तार किया। पूणे की पुलिस बधाई की पात्र है। दुःख की बात है डॉक्टरों ने हेरा-फेरी कर अपराधी को बचाने की कोशिश में सहयोग दिया। पुलिस ने उन्हें भी गिरफ्तार किया।

वर्तमान में आईपीसी की धारा 363 के अंतर्गत 16 वर्ष से कम आयु का बालक नाबालिग माना जाता है। बालिका के लिए यह आयु 18 वर्ष है। इस आलेख का उद्देश्य मूल समस्या की ओर ध्यान आकर्षित कर ऐसी घटनाओं को नियंत्रण करने के लिए सुझाव देना है। यद्यपि जिस तेजी से बच्चों का विकास हो रहा है उससे इस तरह की अवांछनीय – अनुचित घटनाओं पर नियंत्रण करना लगभग असंभव हो गया है। आजकल छोटे से छोटे बच्चे के हाथ में भी मोबाइल है जिसमें अच्छी-बुरी सभी जानकारी उपलब्ध है। दुर्भाग्य से बुरी चीज़ें अधिक आकर्षित करती है। इसी का परिणाम सभी प्रकार के बाल अपराध हैं।

हमारा उद्देश्य समस्या के कानूनी पक्ष पर विचार करके आवश्यक सुझाव देना है। अपराध के लिए सजा के दो पक्ष है – अपराधी को सजा देकर उससे प्रायश्चित करवाना, दूसरा अन्य व्यक्तियों को अपराध करने से रोकना। विधिशास्त्र (ज्यूरिसप्रुडंस) के अनुसार सजा का उद्देश्य भविष्य में होने वाले अपराध को रोकना भी है। इसीलिए कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए। इनमें सामाजिक परिवेश में होने वाले परिवर्तन के अनुसार बदलाव किया जाना चाहिए।

वर्तमान युग में बच्चे बहुत कम उम्र में सबकुछ समझने लग गए हैं – अच्छा कम, बुरा ज्यादा। इसलिए आईपीसी में निर्धारित नाबालिग, बालक व बालिका दोनों, की उम्र में बहुत अधिक परिवर्तन करने की आवश्यकता है। कई छोटे-छोटे बच्चे बहुत संगीन अपराध कर रहे हैं। वे वर्तमान कानून की आड़ में बच निकलते हैं। बाल अपराध की संख्या को कम करने के लिए कानून में उम्र कम करके कठोर सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए। सजा जितनी अधिक और कठोर होगी अपराधी उतने ही डरेंगे। अरब देशों के उदाहरण हमारे सामने हैं। वहां अपराधों पर कठोर सजा होने के कारण बहुत कम अपराध होते हैं। हमारे यहां भी इसी तरह के प्रावधानों की आवश्यकता है।

हमारा सुझाव है कि केवल 10 वर्ष तक की आयु के बच्चों, लड़के-लड़की दोनों को, नाबालिग माना जाए। 10 वर्ष के ऊपर अपराध के लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए। हमारा कानून पश्चिम से प्रभावित है जिसमें झुठी आदर्शवादिता अधिक झलकती है। अमेरिका में रेप के लिए कोई सजा नहीं है। वहां अर्थदण्ड लगाया जाता है और क्षतिपूर्ति दी जाती है। कठोर सजा के प्रावधान से बाल अपराधी अपराध करने से डरेंगे। इसकी जानकारी उनके पाठ्यक्रम में भी दी जानी चाहिए। बालअपराधियों के माता-पिता को भी कठोर सजा दी जानी चाहिए। सजा के डर से वे अपने बच्चों पर कड़ी नजर रखेंगे और बाल अपराध कम होंगे। उम्र के संबंध में वर्तमान प्रावधान का लाभ उठाकर बाल अपराधियों का बच निकलना समाज के लिए बहुत हानिकारक है। बाल अपराध अधिनियम वर्तमान बाल न्याय अधिनियम 1986 (संशोधित 2000) में बना था। तब से अपराध की वेतरणी में बहुत गंदगी बह चुकी है। स्थिति बहुत विकट है और इसे सुधारने के लिए बहुत सख्त कानून की आवश्यकता है। हमारी रुचि एक प्रकरण में नहीं , आवश्यक कानूनी बदलाव में हैं।

समाज से सरोकार रखने वाले नागरिक भी ऐसे प्रकरणों को रोकने में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं। माता-पिता को बच्चों पर विशेष ध्यान देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इससे बाल अपराध रोके जा सकते हैं। मेडिकल साइंस का सिद्धांत- बीमारी को ठीक करने से अधिक अच्छा उसे रोकना है। यहां भी लागू होता है। समाज को भी बाल अपराध को रोकने के लिए बहुत काम करने की आवश्यकता है।

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