शख्सियत : लोकगीतों की परंपरा हमेशा से रही समृद्ध
1 min read⚫ गीत, गजल और नवगीत विधा की रचनाकार साधना गोठवाल का कहना
⚫ नरेंद्र गौड़
हिंदी काव्य में नवगीत का बहुत महत्व है। इसकी प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई और लोकगीतों की समृध्द भारतीय परंपरा से मिलती रही है। हिंदी में वैसे तो महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, सुमन, गोपालसिंह नेपाली आदि कवियों ने बहुत सुंदर गीतों की रचना की है और गीत लेखन की धारा भले ही कम रही है, लेकिन यह पूरी तरह रूकी कभी नहीं। कहना न होगा कि हिंदी काव्य में आज भी नवगीतों का अत्यंत महत्व है।
यह बात गीत, गजल और नवगीत विधा की सशक्त रचनाकार साधना गोठवाल ने कही। इनका मानना है कि रूढ़ अर्थ में नवगीतों की औपचारिक शरूआत नई कविता के दौर में उसके समानांतर ही मानी जाती है। ‘नवगीत’ एक यौगिक शब्द है जिसमें नई कविता तथा गीत विधा दोनों का समावेश है, लेकिन गीत और नवगीत के काल समय में बहुत अंतर है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। जैसे आज हम कोई छायावादी गीत रचें तो उसे आज का नहीं मानना चाहिए। उस गीत को छायावादी गीत ही कहा जाएगा। इसी प्रकार निराला के बहुत सारे गीत नवगीत हैं, जबकि वे गीत की स्थापना के पहले के हैं।
रूपाकार में बदलाव सम्भव
एक सवाल के जवाब में साधनाजी ने कहा कि नवगीत में कथ्य के स्तर पर रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण ‘फण्डा’ है, जबकि गीत का छंद प्रमुख रूपाकार है। तीसरा अंतर कथ्य और उसकी भाषा का है। नवगीत के कथ्य में समय सापेक्षता है। वह अपने समय की हर प्रकार की चुनौती को स्वीेकार करता है। गीत की आत्मा व्यक्ति केंद्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। भाषा के स्तर पर नवगीत छायावादी शब्दों से परहेज करता दिखाई देता है। समय के जटिल यथार्थ आदि की वजह से वह छंद को गढ़ने में लय और गेयता को ज्यादा महत्व देता है।
गीत और कविता में बहुत अंतर
एक सवाल के जवाब में साधनाजी ने कहा कि नवगीत में गीत का होना जरूरी है। यों तो किसी को भी गुनगुनाने से नहीं रोका जा सकता है। किसी एक ढ़ांचे में रची गई समान पंक्तियों वाली कविता को किसी ताल में लयबध्द करके गाया जा सकता हो तो वह गीत की श्रेणी में आती है, किंतु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अंतर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छंदबध्द कोई भी कविता गायी जा सकती है पर उसे गीत नहीं कहा जा सकता है। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिंदी में व्यापक विेकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अंतरे होते हैं। स्थाई और अंतरों में स्पष्ट भिन्नता होना चाहिए। प्राथमिक पंक्तियां जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती हैं और हर अंतरे से उसका स्पष्ट संबंध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है।
अनेक विधाओं में पारंगत
वर्तमान में इंदौर निवास कर रही साधना गोठवाल ने सागर के सर हरीसिंह गौर विवि से स्नाकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की है। आप गीत, गजल सहित प़़द्य की अन्य विधाओं में लेखन करती रही हैं। इसके साथ ही आप कविता, दोहा, क्षणिका, लघुकथा, कहानी लेखन सहित अन्य सामयिक विषयों को केंद्र में रखकर भी रचनाकर्म करती रही हैं। इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित होती रही हैं। इन्होंने अपने समय की कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों का संपादन भी किया। वहीं कुछ स्थाई स्तम्भों में भी लेखन कार्य किया है। आप भाषण कला में भी विशेष पारंगत हैं। साधना गोठवाल ने ’चित्र मूर्ति’ नाम से एक मौलिक विधा का भी सू़़त्रपात किया है। इस विधा को लेकर संकलन भी उपलब्ध है।
कलाकर्म को लेकर प्रदर्शनी आयोजित
आपकी रचनाएं समय- समय पर इंदौर दूरदर्शन से भी प्रसारित होती रही हैं। आप क्रॉफ्ट, ग्रीटिंग कार्ड, गुड़िया निर्माण जैसी कलाओं में भी पारंगत हैं। वहीं इस कला का इन्होंने अनेक लोगों को प्रशिक्षण भी दिया है। इनकी इस कला को लेकर अनेक बार प्रदर्शनियां भी आयोजित हो चुकी हैं। साधनाजी अपने क्षेत्र में जानीमानी समाजसेवी हैं और आप अनेक संस्थाओं की सक्रिय भागीदार रही हैं।
चुनिंदा कविताएं
भवसागर
कई कलाओं से पूर्ण थी
किन्तु भावों के पूर्व
ज्ञान से अपूर्ण थी
कल सरोज के अन्तर में,
मैंने भाव-सागर देखा
तब जाना मर्म भाव का
दुर्गा स्वरूप विराट व्यक्तित्व में,
रसों का अद्भुत समावेश है
तुम एक प्रकाश पुंज हो !
ऐसे ही प्रकाश पुंज से,
रसों का अस्तित्व
प्रकाशित होता है
दुर्गा-सी शक्ति,सिंह-सी स्फूर्ती
सरोज-सी कोमलता,
एक अद्भुत सम्मिश्रण की
अद्वितीय प्रतिमूर्ति के
समक्ष मैं एक दीप-सी
प्रज्वलित रही
पर तुम्हारे कहने पर भी
भाव-सागर के नेत्रों की
असीम गहराई में
डूबने के भय से
झांकने का भी साहस न हुआ
अति व्याकुलता ठीक नहीं
मन को भेद देती है
अतः मंद गति से
उतरने दो आंखों में
यदि भाव सागर में गहराई है
तो यहां प्यार के
सागर में विस्तार है
तुम भाव सागर में हो तो
यहां रसों के कुंड हैं
प्रकाश पुंज तले सारे
जगमगा उठेंगें
भाव सागर में गीत गुनगुना उठेंगे
प्यार की तलाश
एक दृश्य था खुले नील गगन का
सपनों के ताने-बाने मिले और
उसे अपने आप में समेट लिया
मैं अकेली रही पड़ी
घिसटते-घिसटते प्यार की खोज में
सीना, पेट, घुटने छुल गये
रिस्ते खून से एक कलाकृति गढ़ दी
लोग खुश हुए
तारीफों के फूल चढ़ाए
पर समय ने फूलों को मुर्झा दिया
एकाकी मन प्यार की तलाश में
छटपटाने लगा
एक प्यार मिला जो
सब कुछ दे गया
पंख निकल आए-
मन झूमने लगा !
उड़ान ऐसी भरी कि
आकाश को अपने में समेट लिया
पर आकाश में पता चला
पंख नकली हैं !!
तो धराशाई हो गया
और मन से रिसता मवाद
बदन में फैल गया
प्यार भागता रहा
मैं दौड़ती रही
पीछे – पीछे
प्यार समुंदर की विशालता में
डुबकी लगा गया
मैं क्षितिज पर खड़ी
टुकुर-टुकुर देखती रही
प्यार फिर जीत गया
मैं फिर हार गई
फिर टूट गई !
तलाश तो जारी रही पर
अब शायद नहीं उड़ पाऊंगी
हो सकता है उस प्यार की
वह मजबूरी हो शायद
समुंदर से फिर निकल आये
तब उसके साथ सिर्फ चल सकूंगी।
मर्म
यादों के बहुत घनेरे बादल
ऐसे गहराए
उजाले में भी रात हो गई
और कुछ बूंदें अश्रु रूप में
टपकीं इन कुछेक बूंदों का गिरना
और पीड़ा की उमस
बिन जल धरती दरकना
उसमें बिलबिलाते
दर्द के कीड़े
मेघ ने गरज,शोर न किया
होता दिल में संताप न हुआ होता
क्यों झांकते हो बार-बार
मेघों की ओट से?
विरहणी की आह
अच्छी नहीं होती !
तेरा ही विनोद अब
तुझे कुरेदता है
देखे गड्ढे दल-दल, कीचड़
तो अपने को आसमां समझता
भूल गया था धरती की
व्यापकता कैसे भूल गया
मेरे समुंदर की गहराई
इन ऊंचे-ऊंचे पर्वतों की
ऊंचाई आ सामने देख
मेरे वक्ष की ताकत
उड़ रहा है तू धूल की तरह
कभी इस घाट
कभी उस घाट ले देख
टूटी फूटी जीम की ताकत
मात्र मुस्कुराने से कविता नहीं बनती
तपे शब्दों से ज्चाला बनती
आज ये शब्द वजूद को
पिघला देंगे तब अहसास होगा
मेरे ठोसपन का।