वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे ओरछा : समृद्ध पुरातत्व और पर्यटन का संगम -

🔲 संदर्भ : नमस्ते ओरछा महोत्सव – 6 से 8 मार्च

हरमुद्दा

ओरछा राम राजा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यह शहर बेतवा नदी के किनारे पर बसा है। बेतवा नदी के दोनों किनारों के पुरातत्त्वीय सर्वेक्षण से पता चलता है कि यह क्षेत्र प्रागैतिहासिक काल से लगातार पुष्पित एवं पल्ल्वित होता रहा है। ओरछा का क्षेत्र बुन्देलखण्ड में आता है।

1581997229344

पूर्व में किए गए सर्वेक्षण से क्षेत्र में कई ताम्राश्म काल के प्राचीन स्थल, तत्कालीन विद्वानों द्वारा खोजे गए। इस काल के बाद इस क्षेत्र में पूर्व ऐतिहासिक काल के ब्राह्मी लिपि के अभिलेख, मौर्य काल, शुंग कालीन, गुप्त, प्रतिहार, परमार, चन्देल राजाओं का क्रमबद्ध रूप से इतिहास हमें देखने को मिलता है।

IMG_20200218_085959

इन शासकों द्वारा बनाये गए मंदिर, मूर्तियाँ एवं आवासीय अवशेष ओरछा, गढ़कुण्डार और टीकमगढ़ आदि के आसपास के गाँवों में देखने को मिलते हैं। बुन्देलखण्ड में 9 वीं शताब्दी के बाद चन्देल शासकों का शासन था, जिनके अवशेष यहाँ के मंदिर, प्राचीन महत्व एवं बावड़ी आदि के रूप में हमें ओरछा के पास के मोहनगढ़ और गढ़कुण्डार किले के आस-पास देखने को मिलते हैं।

12वीं शताब्दी में ओरछा था चन्देल शासकों के पास

चन्द्रबरदाई, जो पृथ्वीराज रासो के दरबार में कवि थे, ने लिखा है कि 12वीं शताब्दी में ओरछा, चन्देल शासकों के पास था। परमर्दिदेव के बाद गढ़कुण्डार किले पर खंगार वंश के राजाओं का शासन हुआ और खूब सिंह खंगार ने अपने को स्वतंत्र शासक के रूप में घोषित किया। सोहनपाल बुन्देला ने अंतिम गढ़कुण्डार शासक हरमत सिंह को 1257 ई. में परास्त कर अपनी बुन्देला सत्ता स्थापित की। जिन शासक ने इस क्षेत्र में शासन किया उनमें सोहनपाल, सहजेन्द्र, पृथ्वीराज, राम सिंह, रामचन्द्र, मेदिनी पाल, अर्जन देव, मलखन सिंह, रूद्रप्रताप आदि महत्वपूर्ण थे।

पूर्व भी यहाँ बसाहट के अवशेष

रूद्रप्रताप ने बुन्देलों की राजधानी गढ़कुण्डार से ओरछा 1531 ई. में स्थानांतरित की। ओरछा के बुन्देला शासकों के पूर्व भी यहाँ बसाहट के अवशेष थे। बुन्देला शासकों ने मात्र उनका पुनर्निर्माण भी किया। इनमें चार दीवारी और प्रवेश द्वार मुख्य थे। बेतवा नदी के किनारे रूद्रप्रताप एवं भारती चन्द्र ने चार दीवारी के भीतर ओरछा किले का निर्माण कराया। ओरछा के बुन्देला शासकों में प्रमुख रूप से भारतीय चन्द्र, मधुकर शाह, राम शाह, वीर सिंह बुन्देला आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें वीर सिंह बुन्देला द्वारा ओरछा में काफी निर्माण कार्य किया गया। इन्हीं के समय बुन्देली स्थापत्य तथा इण्डो-पर्सियन स्थापत्य कला का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। यहाँ के किले, गढ़िया, महल, मंदिर, बावड़ी इत्यादि एवं बुन्देली कलम की भित्ति चित्र, चित्रकला का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाद में बुन्देला शासकों ने अपनी राजधानी टीहरी यानी टीकमगढ़ बना ली। आस-पास के क्षेत्र, जिनमें टीकमगढ़, मोहनगढ़, लिघोरा, दिघौरा, आस्टोन, खरगापुर, बलदेवगढ़ आदि शामिल है, में विरासत भवनों का निर्माण किया।

राम राजा की नगरी ओरछा

ओरछा को हम अयोध्या के राजा भगवान राम की नगरी के रूप में जानते हैं। जब रानी गणेश कुवंरी अयोध्या से राम राजा को लेकर ओरछा आई तो भगवान राम के दिए गए तीन वचनों में से एक के अनुसार जिस एक जगह रानी कुंवरी द्वारा राम भगवान रखे गए वहीं वे विराजमान हो गए और आज तक वहीं प्रतिष्ठित हैं। वही स्थान आज राम राजा मंदिर के नाम से विख्यात है। यहाँ पर देश-विदेश के श्रद्धालुओं व पर्यटकों के अतिरिक्त स्थानीय, क्षेत्रीय लोग लाखों की संख्या में राम राजा के दर्शन करते हैं। विशेष रूप से तीज-त्यौहारों के अवसरों, रामनवमी, जन्मोत्सव आदि पर्वों पर काफी संख्या में लोग आते हैं और बेतवा नदी में स्नान कर राम राजा की पूजा-अर्चना करते हैं।

ओरछा के 52 राज्य पुरातत्वीय संरक्षित स्मारक

यदि हम राम राजा के साथ ओरछा के 52 राज्य पुरातत्वीय संरक्षित स्मारकों के बारे में भी जानना चाहें तो उनमें भी कई स्थापत्य ऐसे हैं जिनको देख कर ऐसा लगता है कि हम बुन्देल नगरी में हैं। ओरछा में राजा महल, जहाँगीर महल, राय प्रवीण महल है, तो वहीं मंदिरों में चतुर्भुज मंदिर एवं लक्ष्मी मंदिर भी अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है।

राजा महल

राजा महल के निर्माण की नींव राजा रूद्र प्रताप ने सन् 1531 में रखी थी, किन्तु इसका निर्माण कार्य उनके ज्येष्ठ पुत्र भारतीय चन्द्र ने पूर्ण किया। इसके बाद उनके भाई एवं उत्तराधिकारी मधुकर शाह द्वारा कुछ परिवर्तन व परिवर्द्धन कर इसे अंतिम रूप प्रदान किया गया। यह महल दो भागों में विभाजित है। आवास कक्षों के अतिरिक्त दीवान-ए-खास एवं दीवान-ए-आम इस महल के प्रमुख भाग हैं। इनमें सुन्दर भित्ति चित्रों का आलेखन है। इन चित्रों की विषय-वस्तु मुख्यतः श्रीमद् भगवत गीता के आधार पर कृष्ण लीला एवं रामायण की कथा है। इसके अतरिक्त पौराणिक राग-रागिनियों के चित्र भी चित्रित हैं।

जहांगीर महल

इस महल का निर्माण वीर सिंह देव द्वारा मुगल सम्राट जहांगीर के सम्मान में करवाया गया। प्रथम चरण का निर्माण सन् 1606 ई. में मुगल सम्राट जहांगीर के ओरछा आने के पहले पूर्ण हो चुका था। द्वितीय तल के आठ वर्गाकार कक्ष एवं उनके ऊपर गुम्बद और छतरियों का निर्माण सन् 1618 ई. में हुआ। वर्गाकार योजना के इस महल के प्रत्येक कोने पर बुर्ज बने हैं, जिनके ऊपर हाथियों की संरचना है, हिंडोला, तोरण द्वार, लटकती हुई पद्म पंखुड़ीनुमा संरचना राजपूत शैली के स्थापत्य के नमूने हैं। द्वितीय तल के गुम्बदों एवं छतरियों की अलंकृत अष्टकोणीय एवं पद्म संरचना बुन्देली स्थापत्य के प्राथमिक उदाहरण हैं। महल के कक्षों का आंतरिक एवं बाह्य अंतःकरण तथा चित्रण हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य का श्रेष्ठ मिश्रण प्रदर्शित करता है।

राय प्रवीण महल

इस महल का निर्माण ओरछा के महाराजा राम शाह के अनुज एवं कार्यवाहक शासक इन्द्रजीत सिंह ने अपनी प्रेयसी राय प्रवीण के लिए कराया था। इस अद्वितीय भवन का दो चरण में निर्माण हुआ। प्रथम चरण में भूतल पर दोहरे विशाल दालान एवं दोनों ओर वर्गाकार कक्ष एवं प्रथम तल पर मेहराबदार द्वार युक्त बरामदा एवं कक्षों की संरचना है। यह भाग वास्तुगत विषेषताओं के आधार पर 16 वीं शती के अंतिम दशक का प्रतीत होता है, जबकि महल का आगे का बरामदा एवं पूर्वी संरचना 17वीं शती की है। इसी समय सुन्दर उद्यान एवं आनंद मण्डल बारादरी का निर्माण हुआ, जिसके उत्तरी झरोखे में रायप्रवीण कविता लिखा करती थी।

महल के शीर्ष भाग की संरचना बाह्य अलंकरण एवं भित्ति चित्र बुन्देली शैली के हैं। राय प्रवीण, राजा इन्द्रजीत सिंह की रंगशाला की प्रधान नर्तकी एवं महाकवि केशव दास की शिष्या थी। महाकवि केशवदास ने अपने ”कवि प्रिया” ग्रंथ में राय प्रवीण के सौंदर्य की प्रशंसा की है।

चतुर्भुज मंदिर

चतुर्भुज मंदिर ऐतिहासिक एवं पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस मंदिर का निर्माण महाराज मधुकर शाह द्वारा सन् 1574 ई. में प्रारंभ कराया गया था। महारानी गणेश कुवंरी इस मंदिर में भगवान राम की मूर्ति स्थापित करना चाहती थी किन्तु बुन्देलखण्ड के पश्चिमी भाग पर मुगलों के आक्रमण के समय हुए युद्ध में सन् 1578 ई. में राजकुमार होरल देव के मारे जाने के कारण मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो सका। ऐसी परिस्थिति में महारानी ने भगवान राम की मूर्ति स्वयं के महल में स्थापित की। महाराजा वीर सिंह बुन्देला द्वारा द्वितीय चरण में इस मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया गया। यह मंदिर ऊँचे अधिष्ठान पर स्थित है। इसकी योजना में गर्भगृह, अंतराल, अर्द्धमण्डप एवं मण्डप है। गर्भगृह के ऊपर नागर शैली का शिखर है। चारों कोनों पर लघु कक्षों की संरचना है। मण्डप के ऊपर का निर्माण कार्य ईंट और चूने से किया गया था। यह मंदिर बुन्देला स्थापत्य का महत्वपूर्ण उदाहरण है।

लक्ष्मी मंदिर

लक्ष्मी मंदिर का निर्माण राजा वीरसिंह देव द्वारा सन् 1622 ई. में करवाया गया और परिवर्द्धन राजा पृथ्वी सिंह द्वारा सन् 1743 ई. में करवाया गया। मंदिर एक वर्गाकार प्रांगण में आयताकार योजना में निर्मित है। इसके सभी कोनों पर बहुकोणीय तारांकित बुर्ज बने हुए हैं, जिसमें से एक प्रवेश द्वार बनाया गया है। ईंटों से निर्मित स्मारक एक गढ़ी जैसा प्रतीत होता है और इसका शिखर इसे मंदिर का रूप प्रदान करता है। मंदिर एवं चारों ओर के गलियारों की भित्तियों एवं वितानों पर सुन्दर चित्र बने हैं। इन चित्रों में रामायण, श्रीमद् भगवत गीता के कथानकों के दृश्य हैं। इन चित्रों की शैली 17 वीं से 19वीं शती में विकसित बुन्देली शैली है।

छतरियाँ अपनी स्थापत्य कला के लिए महत्वपूर्ण

इन प्रमुख स्मारकों के अतिरिक्त ओरछा के अन्य महत्वपूर्ण स्मारकों में बेतवा नदी के पास बनी छतरियाँ अपनी स्थापत्य कला के लिए महत्वपूर्ण है। इनमें मधुकर शाह, भारती चन्द, वीर सिंह, सुजान सिंह आदि शासकों की छतरियाँ प्रमुख हैं।

किवदंतियों के बगैर बुंदेलखण्ड की कहानी अपूर्ण

यदि हम स्थानीय किवदंतियों की बात करें तो सबसे पहले राम राजा अयोध्या से ओरछा कैसे आए, सभी को मालूम है कि किस प्रकार रानी महल में उनकी प्रतिष्ठा हुई। दूसरी राय प्रवीण का मुगल दरबार में दिल्ली जाना और स्थिति स्पष्ट करने पर संगीतज्ञ राय प्रणीण का ससम्मान वापस ओरछा आना। तीसरी महत्वपूर्ण बात एक महिला का जो दूसरे धर्म की थी उसका राजा के बेटे से प्रेम और उसी के आधार पर चतुर्भज मंदिर की सुरक्षा की कहानी प्रसिद्ध है। इसी प्रकार लाला हरदौल की कहानी भी क्षेत्र में प्रसिद्ध है। इन और इन जैसी कई किवदंतियों के बगैर बुंदेलखण्ड की कहानी पूर्ण नहीं होती।

बुंदेली कलम को बनाता अनूठा

ओरछा में राजा महल, लक्ष्मी मंदिर आदि में बनाए गए भित्ति चित्र बुन्देली कलम के नाम से जाने जाते हैं। इनमें अधिकतर रामायण, कृष्ण लीला और नायक-नायिकाओं आदि के चित्र हैं। इनको बनाने की विधि अत्यंत उन्नत किस्म की थी। प्रारम्भ में चूना सुरखी, बालू एवं जूट की प्रथम सतह बनाई जाती है। जिस पर पुनः चूना एवं शंख पाउडर की परत चढ़ाई जाती थी। समतल एवं चिकनी सतह हेतु कौड़ी और अगेट पत्थर से इसकी सतह की घिसाई की जाती थी। इन्हें सिलेटी बाह्य रेखाकंन एवं वैविध्य रंग द्वारा सँवारा गया है। ये चित्र मुगल शैली के चित्रों की तुलना में कमतर है, लेकिन इनकी ऊर्जा, ऊष्मा एवं विषयगत जुड़ाव बुन्देली कलम को अनूठा बनाता है।

प्रवीण बाग व फूलबाग को पुनर्जीवित करने की योजना

ओरछा के राय प्रवीण बाग एवं फूलबाग को पुनर्जीवित करने की योजना बनाई गई है। ओरछा की सांस्कृतिक धरोहर, महल एवं भवनों की स्थापत्य शैली एवं बुन्देली कलम की दृष्टि से इसे यूनेस्को (UNESCO) ने टेंटेटिव लिस्ट (Tentative List) में नामित किया है। उम्मीद है कि यह शीघ्र ही विश्व धरोहर स्मारक समूह में अंकित हो जायेगा। ऐसा होने पर यह बुन्देलखण्ड का दूसरा विश्व धरोहर स्मारक समूह बनेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may have missed