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कोरोना के संकट काल में व्यक्ति को स्वयं बदलना चाहिए : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

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हरमुद्दा
रतलाम,15 मई। जीवन मिलना संयोग है, जबकि उसे सार्थक और रचनात्मक दिशा में नियोजित करना पुण्य का योग है। जीवन का महत्व जो समझता है,वह जीवन व्यवहार में नैतिकता,ईमानदारी, प्रामाणिकता और पवित्रता का विकास करता है। कोरोना के इस संकटकाल में हर मानव को अपने जीवन में इन मानवीय वृत्तियों का विकास करना चाहिए। जीवन की सार्थकता तभी है, जब विषमतामूलक जगत को समता मूलक बना सके। इसके लिए हर व्यक्ति को व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास करना चाहिए।

यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन से धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में आचार्यश्री ने कहा कि मानव जीवन प्रकृति का अनमोल उपहार है। इस उपहार को उपहार मानकर जीने वाला मानव अपने जीवन में आशा, उत्साह,आनंद और सृजन का विकास करता है। इसके विपरीत जो मानव इस जीवन को उपहार मानकर नहीं जीता है, वह इस जीवन का अवमूल्यन कर बैठता है। विषमतामूलक जगत को समता मूलक बनाने के प्रयास स्वयं से आरंभ होना चाहिए। कुंठित चेतना अपनी चिंतन शक्ति को खो देती है। चिंतन शक्ति के अभाव में बदलाव की बयार नहीं चल सकती। व्यक्ति जब तक केन्द्र में स्वयं को प्रस्थापित नहीं करता, तब तक सामूहिक प्रयासों की सफलता संदिग्ध बनी रहती है। केन्द्र बिंदु में स्वयं को स्थापित करके ही व्यक्ति सृष्टि में अभूतपूर्व परिवर्तन ला सकता है। व्यक्ति-व्यक्ति मिलकर परिवार बनता है, परिवारों का समूह समाज कहलाता है। समाजों से देश बनता है। व्यक्ति का चरित्र पवित्र हो, परिपक्व हो और पारदर्शी हो, तो समाज एवं देश में उसका प्रतिबिम्ब पडे विना नहीं रह सकता। व्यक्ति ईकाई है, इकाई के बिना शून्यों का कोई महत्व और मूल्य नहीं होता।

स्वयं नहीं बदलता लेकिन संसार को बदलने की चेष्टा करता है मनुष्य

आचार्यश्री ने कहा कि वर्तमान समय की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि व्यक्ति स्वयं को बदलना नहीं चाहता और समाज तथा संसार को बदलने की निरर्थक चेष्ठा करता है। यह चेष्ठा कामयाब नही होने पर व्यक्ति कुंठा ग्रस्त हो जाता है। कुंठित चेतना में विकास के अनावृत्त द्वार भी बंद हो जाते है। कुंठा से निराशा पैदा होती है। निराशा से भय, चिंता, उद्वेग और आवेगों का सिलसिला चल पडता है और व्यक्ति हिंसा पर उतारू हो जाता है। यहीं हिंसा आतंक बनती है। कभी-कभी ऐसे कुंठित व्यक्ति अपने को क्रांतिकारी कहलाने लग जाते है, मगर यह कोई क्रांति नहीं बल्कि भ्रांति होती है। क्रांति वह होती है, जो स्वयं विषपान करके दूसरों को अमृत पिलाए।

उच्च लक्ष्य के प्रति समर्पित होना जरूरी

आचार्यश्री ने कहा कि उच्श्रृंखलता, उदंडता और अशांति पैदा करना क्रांतिकारियों का काम नहीं है। क्रांतिकारी अपनी चरित्र शीलता के साथ गलत मूल्यों और गलत तत्वों को निरस्त करने का मनोभाव जगाता है। क्रांति में व्यक्ति परिवर्तन के साथ सामाजिक परिवर्तन का महत्व होता है, ना कि संघर्ष और रक्तपात का है। हिंसा पर उतारू होने वाली क्रांति कभी स्थायित्व ग्रहण नहीं कर सकती। उन्होंने कहा कि सृजनात्मक क्रांति सदैव स्वयं के बलिदान के कंधों पर बैठकर आती है। स्वयं का बलिदान हर कोई नहीं कर सकता। ये चेतना से जागृत होता है और उच्च लक्ष्य के प्रति समर्पित होता है। ऐसे व्यक्ति बहुत कम मिलते है, जो उचित समय पर अपने जीवन की दृष्टि एवं दिशा बदलकर अपने भीतर नई क्रांति को जन्म दे सके। अशांत और उत्तेजित मन से की गई क्रांति आग तो लगा सकती है, लेकिन बाग लगाने के रूप में अभिष्ट निर्माण नहीं कर सकती।

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