ज़िन्दगी अब -29 : बुरे वक्त की भलाई : आशीष दशोत्तर
बुरे वक्त की भलाई
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🔲 आशीष दशोत्तर
“किसी भी समय को बुरा क्यों कहते हो भैया। बुरा समय किसी के लिए भला भी तो हो सकता है।” उसकी यह बात सुनकर एक बार तो मुझे धक्का लगा। संक्रमण काल ने कितने ही लोगों को तोड़ दिया, कितने लोगों का अहित हुआ, कितने ही लोग निराश हुए, कितने ही लोग अवसाद में चले गए, कितने ही लोगों की ज़िंदगी बेपटरी हो गई ,और यह कह रहा है कि है बुरा समय किसी के लिए भला भी हो सकता है।
उससे पूछा, इस बुरे समय को तुम भला कह रहे हो। वह कहने लगा, आप इस वक्त के सिर्फ बुरे पक्ष को ही देख रहे हैं। इसकी एक भलाई की तरफ़ आपने ध्यान नहीं दिया।
मुझे आश्चर्य हुआ। इस बुरे दौर में भी कुछ भला हुआ हो ऐसा तो मुझे याद नहीं आता। वह कहने लगा, मेरी बेटी की शादी हो गई है। मैंने उसे खूब बधाई दी। कहा, यह तो बहुत अच्छा काम किया। बेटी अपने घर चली गई ।वह कहने लगा, देखो हुआ न अच्छा काम।
मैंने कहा, इस काम को अच्छा क्यों कहते हो? शादी- ब्याह तो होना ही है। आज नहीं होती तो चार माह बाद हो जाती।
वह कहने लगा यही तो आप नहीं समझ रहे हैं, भैया। इस समय की सारी बुराइयों को मैं भी समझ रहा हूं लेकिन मुझे जो इसमें भलाई दिखी है, उसे आप भी देखिए।
उसकी बातें कुछ पहेली सी लगने लगी। मैंने कहा, भाई ज़रा खुल कर बताओ। वह कहने लगा, आप से मेरी स्थिति छिपी नहीं है। मैं तीन बेटियों का पिता हूं। फैक्ट्री में मेरी नौकरी है। पत्नी भी कुछ काम करती है। इस तरह दोनों की मेहनत से घर चलता है। ऐसे में जब सबसे बड़ी बेटी का रिश्ता पक्का हुआ तो मुझे शादी से ज्यादा चिंता इस बात की सताने लगी कि शादी होगी कैसे? शादी करना आज के दौर में सबसे खर्चीला काम है। एक शादी में जितने लाख के खर्चे लोग बताते हैं उतने हजार भी मेरे पास नहीं थे। जहां बेटी का रिश्ता किया , उस परिवार की इच्छा थी कि शादी धूमधाम से होनी चाहिए। यह एक और संकट की बात थी।। फिर भी यह मानते हुए यह शादी तय की कि जो भी हो शादी तो करना ही है, देखा जाएगा।
शादी मई में निकली। कुछ तैयारियां फरवरी माह से प्रारंभ की ही थी कि मार्च में अचानक लॉक डाउन हो गया। सारी गतिविधियां बंद हो गई। लड़के वालों ने कहा कि शादी को आगे बढ़ा देते हैं। अभी शादी करना ठीक नहीं है। हमने उनकी बात मान ली। शादी का मुहूर्त जून माह में निकला। जून माह की शुरुआत में शादी- ब्याह के लिए अनुमति मिलना शुरू हुई और उसमें यह शर्त रही कि पचास व्यक्तियों से अधिक लोग शादी में शामिल नहीं होंगे।
मेरे लिए तो यह शर्त हज़ार खुशियों के बराबर थी। मुझे इस वक्त ऐसा लगने लगा कि ऊपर वाले ने मेरी सुन ली। लड़के वाले फिर भी तैयार नहीं थे। वे कह रहे थे कि शादी और आगे बढ़ा देते हैं। लेकिन आगे दो साल तक कोई शुभ मुहूर्त नहीं निकल रहा था । मजबूरी में वे भी शादी के लिए तैयार हुए।
सप्ताह भर पहले मेरी बेटी का विवाह धूमधाम से संपन्न हो गया। इस धूमधाम भरे समारोह में दोनों परिवार के पचास लोग शामिल हुए। न एक ज़्यादा, न एक कम। न कोई शोर शराबा, न कोई तड़क-भड़क ,न कोई लाइट- माइक। सब कुछ सादगी से और चंद घंटों में संपन्न हो गया।
आप यकीन मानिए इस शादी का जितना भी खर्चा हुआ उस खर्चे में मुझे एक रुपए की मदद किसी से नहीं लेना पड़ी। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं अपनी बेटी का ब्याह बिना किसी कर्जे के या बगैर किसी की मदद के कर पाऊंगा। इतना सादगी भरा समारोह और मेरी हैसियत के मुताबिक क्या साधारण समय में हो पाता? इस बुरे दौर की वजह से मेरी ज़िंदगी कर्ज़ के दलदल में फंसने से बच गई। मैं तो कहता हूं कि शादी के लिए यह शर्त हमेशा ही लागू कर दी जानी चाहिए। इससे मेरे जैसे कितने ही ग़रीब परिवार शादी के नाम पर होने वाले फालतू खर्चों से बच जाएंगे और कर्ज़ में नहीं डूबेंगे।
मैं उसके चेहरे की तरफ देखता रह गया। इतने बुरे वक्त में भी उसने अपनी झोली में आई इस भलाई को पहचान लिया।
🔲 आशीष दशोत्तर