ज्योतिर्विद द्वारकाप्रसाद त्रिवेदी

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि मानव और मानव जीवन मुख्य रूप से तीन वस्तुओं का समन्वय है। पहली वस्तु है- शरीर । दूसरी वस्तु है-मन। ये दोनों जड़ है। तीसरी वस्तु है-आत्मा। यह ईश्वरीय अंश होने से चैतन्य स्वरूप है । ये तीनों एकदुसरे पर आश्रित है। शरीर अकेला कुछ नहीं कर सकता । मन विना शरीर के अक्रियाशील है और आत्मा भी बिना शरीर और मन के क्रियाशील नहीं हो सकती। उसे क्रियाशील होने के लिये शरीर और मन की आवश्यकता है । मन शारीर की मांग करता है और आत्मा भी मन और शरीर की आवश्यकता अनुभव करती है। ये तीनों एक-दूसरे के पूरक है। और एक दूसरे के बिना परोक्ष रूप से, अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। इन तीनों अवस्थाओं में मन की आवश्यकता शरीर और आत्मा दोनों को समान रहती है। अतः मन अधिक महत्वपूर्ण है।

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शरीर की समस्त इन्द्रियों मन के नियन्त्रण में काम करती है तथा मनके कहे अनुसार चलती है। इसलिये मन ही इन्द्रियों का राजा है । मन चैतन्य आत्मा से ऊर्जा शक्ति ग्रहण करता है । अतः मन-शरीर और आत्मा एक दूसरे के पूरक होते हुए भी. अपरोक्ष रूप से, अन्योनायित सम्बन्ध रखते हुए, अपना पृथक अस्तित्व रखते हैं ।

मन शरीर व इन्द्रियों से कर्म कराता है। इसलिये वह कर्मकर्ता और कर्मफल का प्रणेता होकर कर्म बन्धन में आबद्ध होता है। इस तरह स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर की अवधारणा बनती है जिनका संसार के साथ अभिज्ञ सम्बन्ध होता है और मानव-जीवन दो ध्रुवों के बीच स्थापित होता है । (1) बाह्य जगत (2) आन्तरिक जगत बाह्य जगत दिखता है- दृष्टिोचर होता है इसलिये सत्य प्रतीत होता है। आन्तरिक जगत दिखाई नहीं देता इसलिये असत्य प्रतीत होता है। बाहा जगत की उपलब्धि वस्तुओं में है। वस्तु इन्द्रियों की चाहत है और शरीर इन्द्रियों से तृप्ति अनुभव करने लगता है। बाह्य जगत में चकाचौंध है- आकर्षण, शरीर की तृप्ति । परिणामस्वरूप लालसा और प्राप्त करने की चाह जाग्रत होती है, और मन विवश होकर चाहत के लिये भागता है। इतने समग्र साधन, सुख सुविधाओं की उपलब्धि के उपरान्त भी कुछ पीछे छूट जाता है, और यह है आन्तरिक जगत का खालीपन-अशांति-एकांकीपन-उद्देश्य भय जिन्हें भरने की चेष्ठाएँ की जाती है, विभिन्न उपायों और माध्यमों से। यह सतत् प्रक्रिया है।

प्राचीन ऋषियों और मनीषियों ने मन की इस विलक्षण-गति कमजोरी को अपनी दिव्य यौगिक दृष्टि से जाना-पहचाना और इसे प्रारम्भ से ही संस्कारित उपायों द्वारा हमारा मार्गदर्शन किया। ये उपाय ही मन को संस्कारित और शुद्ध रखे जाने के कारण संस्कार कहलाये । मन को धीरे-धीरे प्रशिक्षित कर इसे श्रेष्ठ चिन्तन में लगाये रखने की भावना इनमें समाहित की गई । प्रारम्भ से धैर्यपूर्वक और निरन्तर अभ्यास के परिणामस्वरूप मन की गति उत्कृष्ट भावना से बदलती है और मन की दिशा ही बदल जाती है तथा कर्म भी उसी अनुरूप परिवर्तित होने से आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग खुलता है। मन शुद्ध और शांत रहने से वाणी और कर्म शुद्ध रहते हैं तथा श्रेष्ठ चिन्तन प्राप्त होता है और आन्तरिक जगत का खालीपन धीरे-धीरे दूर होता हुआ शांति का अनुभव होने लगता है।
ये अड़तालीस संस्कार है। इनके माध्यम से जीवन में धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-पुरुषार्थ चतुष्टा की सिद्धि प्राप्त होती है। ये पूर्ण रूप से वैदिक जीवन के अनुरूप है। इसलिये पूर्ण वैदिक रीति से सम्पन्न किये जाते हैं। समय शुद्धि, पूर्ण विधान, सम्बन्धित देवताओं का विशेष उपचार और मन्त्रों से पूजन, सम्बन्धित अग्निदेव का आवाहन, समिधा विशेष एवं हवनीय द्रव्य से हवन एवम् पृथक उपासमा सम्पन्न होती है जिससे सम्बन्धित देवता का कृपा-प्रसाद प्राप्त होकर जीवन के सुख-ऐश्वर्य-सम्पदा प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप ईशा व स्थित निषद् के अनुरूप दृष्ट बनकर जीन की कला का ज्ञान होता है और सुख-वैभव उपयोग या उपभोग के बाद छोड़ने में त्यागने में कोई दुःख नहीं होता। इनका क्रम इस प्रकार है।

1 गर्भाधान, 2 पुंसवन, 3 सीमन्तोन्नयन, 4 जातकर्म, 5 नामकरण, 6 अन्न प्रागन 7 चूड़ाकरण, 8 उपनयन,
12 चार वेदव्रत 13 स्नान 14 सहधर्मियों संयोग 19 पञ्चमहायज्ञ. 26 सप्तपाक संस्था, 33 सप्त हिवर्यज्ञ, संस्था, 40 सप्त सोम यज्ञ, संस्था, 48 आठआत्मगुण, 1 दया, 2 क्षमा, 3 शांति, 4 शोच, 5 इन्द्रिया निग्रह, 6 मल भावना, 7 विवेक, 8 समर्पण ।

वर्तमान में इनमें से षोड़श कर्म शेष है और उनमें से कुछेक तो लोप हो गये हैं। या अनुपालन में नहीं है और कुछेक केवल औरपचारिक रूप से सम्पन्न होते हैं । वे भी नगण्य रूप में ।

प्रचलित प्रमुख संस्कार

संस्कारों के अध्यात्मिक महत्व को रेखांकित करने का स्वल्प प्रयास किया गया । कारण कि ये संस्कार जीवन की इस समग्र यात्रा में सम्पादित किये जाने वालों अगस्त को को दिव्यता प्रदान तो करते ही है, साथ ही उनका चिन्तन मनन और आचरण जीवन के विकास क्रम को उच्चता की ओर अग्रसर करता है। जीवन के विकास क्रम का अर्थ है- वर्तमान जीवन के आगे और उसके बाद का जीवन । जीवन के मूल्य तथा तत्व इतने असीम और गंभीर है कि उन सब को समेटकर चल पाना कठिन ही नहीं अपितु असंभव है। यही कारण है कि जीवन के मूल्यों और मूल तत्वों को आध्यात्मिक परिधि में लेकर संस्कारों के माध्यम से एक नये चिन्तन का स्वरूप दिया गया। जिसका अवलम्बन कर हम अपनी इन्द्रियों पर निग्रह, वाणी पर संयम और किये जाने वाले कर्मों पर सुव्यवस्थित सप से विचार कर सके. तांकि स्वस्थ चिंतन और मनन प्राप्त होः और परिणामतः चित्त की निर्मलता के केन्द्रों को अधिक उन्नत कर एक नई विशिष्ट आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान कर सकें।

कर्मों का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है और निर्धारण अति कठिन किये गये कर्मों के शुभाशुभ परिणाम तो भोगना ही पड़ते हैं यह शाश्वत सत्य है । मन तो चंचल है ही और उसकी गति भी अजेय है । प्रकृति प्रदत गुणों के परिणाम स्वरूप यह मन प्रतिक्षण सांसारिक सुख भोगों की और त्वरित आकर्षित होता है। इन सांसारिक सुख भोगों से न तो शांति प्राप्त होती है और न ही सुख वरन आकांक्षाएं बढ़ती चली जाती है और उन्हें पूरा करने के की दिशा में चिन्तन शुरू हो जाता है।

इन समस्त विधाओं को दृष्टिगत रखते हुए हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों, ऋषियों मुनियों मनस्वियों और सिद्ध पुरुषों ने एक नये चिन्तन का मार्ग प्रशस्त किया। इसमें आध्यात्मिक चिन्तन को सुख भोगों के साथ उनकी निःसारता प्रतिपादित करते हुए एक ऐसे मध्यम मार्ग को प्रकाशित किया जिस पर चलकर जीवन श्रेष्ठ निरुपित किया जा सके इस मध्यम मार्ग से हम हमारी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति को मन्त्रों के माध्यम से ब्रह्माण्ड में व्याप्त भौतिक शक्तियों को उनके अधिष्ठाताओं से प्राप्त करते हुए ईश्वरीय चेतना को भी आत्मसात करते और शिक्षा प्राप्त करने की और निरन्तर अग्रसर होते चले जाते है। जन्म के पूर्व से ही जिनका प्रारम्भ हो जाता है । प्रचलित प्रमुख सोलह संस्कारों का क्रम निम्न है :-

(1) गर्भाधान (2) पुंसवन
(3) सीमन्तोन्नयन (4) जातकर्म
(5) नाम करण (6) निष्क्रमण
(7) अन्नप्राशन (8) चूड़ा करण
(9) कर्णवेध (10) विद्यारम्भ
(11) उपनयन (12) वेदारम्भ
(13) केशान्त (14) समावर्तन
(15) पाणिग्रहण (16) अंत्येष्टि

गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च।
नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:।
केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।

त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:।

इनमें प्रथम तीन जन्म के पूर्व बाद के छः जन्म के पश्चात् उसके बाद तीन गुरू के सानिध्य में और बाद के 3 ब्रह्मचर्य आश्रम से (विद्या अध्ययन के बाद) गृहस्थाश्रम के प्रवेश के समय संपन्न होते है। और अंतिम हैं, जीवन मुक्ति के लिये अंत्येष्टि कर्म का चितारोहण । यहाँ गृहस्थों का अंतिम सोपान है और सन्यासियों का प्रथम ।

” संस्कार “

जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते ।।

अर्थात: जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।

अब इन संस्कारों के सम्बन्ध में शास्त्रीय विधीविधान की संक्षिप्त चर्चा करेंगे भारत केआध्यात्मिक और धार्मिक ग्रन्थों में आस्था श्रद्धा विश्वास के साथ देवोपासना का बड़ा महत्व बताया गया है, साथ ही देवी देवताओं की पूजा आराधना का भी विधान दर्शाया गया है जिससे कामनाओं की पूर्तिहोती है। इसका अर्थ होता है पूजा करते समय आस्था और श्रद्धा विश्वासपूर्वक कर्म का निष्पादन करना। तथा अपने स्वयं में भी देवत्व की भावना और प्रतिष्ठा करना,जिससे बाह्य विधी विधानों के अनुसार अपनेभीतर मन में भी देवत्व के भाव का उदय हो और उत्कृष्ट चित्त वृतियों का प्रादुर्भाव होकर चित्त में अद्भूतपवित्रता आनन्द और शांति का अनुभव हो सके।

” संस्कार शब्द संस्कृत भाषा का है और वहाँ इसका व्यापक अर्थों में प्रयोग किया गया है। स्वरूप, संस्करण , धारणा, शुद्धि, पवित्रता,शोभा, धार्मिक कार्य, परिष्करण,विधी विधान आदि के पर्याय में इसका प्रयोग हुआ है। संस्कार से ही संस्कृति की प्रत्युत्पत्ती है। संस्कृति का भी अर्थ होता है मन और हृदय की वृत्तियों को संस्कारों द्वारा परिष्कृत कर उदार और उदात्त बनाना, इसलिए भारत की संस्कृति अध्यात्म पर प्रतिष्ठित रहने के कारण ही विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। इसमे शारिरीक मानसिक आत्मशक्ति सामंजस्य पूर्ण विकास के साथ सत्यऔर सुव्यवस्थितजीवन शैलीका आधार होने से अभ्यान्तरित हैं ” !

अत: परिवर्तनशील है। सभ्यमताओं में बाह्य तत्व होने से कारण क्रमानुसार परिवर्तन होता रहता है। प्रस्तुत प्रमुख संस्कारों में भी आध्यात्मिक भावों के साथ साथ धार्मिक विधियाँ और ज्योतिष शास्त्र के आधार पर समय वृद्धि अथवा मुहूर्त निर्धारण का समावेश किया गया है, जिससे अनुपालन से अथवा सविधी अनुष्ठान से व्यक्ति के भीतर शुद्धि के साथ साथ विलक्षण प्रतिभा का प्रादुर्भाव होता है। भिन्न भिन्न गृह सूत्रों में मतान्तर के कारण विधान या पद्धतियों में थोडा अन्तर है परन्तु मन्त्र प्रयोग लगभग एक समान ही है। सभी संस्कारों में ज्योतिर्दिष्ट मुहूर्त पर मण्डल रचना, कलशाचन, दीपार्चन , दिग्रक्षण, गणेश मातृका पूजन ,संक्षिप्त पुण्यावाचन, नान्दी श्राद्ध अग्निस्थापन ग्रह पूजन, हवन आदि का विधान तथा दान दक्षिणा एवं ब्राह्मण भोजन का भी विधान है !

संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा।
स्याद्योषाप नयनेन वा ॥

अर्थात व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने के लिए
जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।

🔲 प्रस्तुति : बृजेश त्रिवेदी

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