धर्म संस्कृति अध्यात्म : श्रीमद् भगवत गीता संस्कृत, हिंदी एवं अंग्रेजी में द्वितीय अध्याय
पद्यानुवाद : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥
साँख्य योग
संजय ने कहा-
सजल नयन आकुल हदय मन से दुखित महान
ऐसे अर्जुन से सहज , बोले श्री भगवान।।1।।
भावार्थ : संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥
श्रीभगवानुवाच
1. To him who was thus overcome with pity and who was despondent, with eyes full of tears
and agitated, Krishna or Madhusudana (the destroyer of Madhu), spoke these words.
Sri Bhagavaan Uvaacha
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।
भगवान ने कहा-
जो न उचित है वीर को जो देती अपकीर्ति
असमय,बाधक स्वर्ग की अर्जुन यह क्या रीति ?।।2।।
भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥
2. Whence is this perilous strait come upon thee, this dejection which is unworthy of thee,
disgraceful, and which will close the gates of heaven upon thee, O Arjuna?
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥
पार्थ ! न कायर तुम बनो ,अनुचित यह व्यवहार
तज दुर्बलता हदय की , हो लड़ने तैयार।।3।।
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥
अर्जुन उवाच
3. Yield not to impotence, O Arjuna, son of Pritha! It does not befit thee. Cast off this mean
weakness of the heart. Stand up, O scorcher of foes!
Arjuna Uvaacha
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥
अर्जुन ने कहा-
भीष्म द्रोण गुरू पूज्य हैं , करने को संहार
रण में बाणों से उन्हीं का, कैसा प्रतिकार ? ।।4।।
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥
4. How, O Madhusudana, shall I fight in battle with arrows against Bhishma and Drona,
who are fit to be worshipped, O destroyer of enemies?
गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥
भीख माँगना –
भीख माँग खाना भला,इस जग में महाराज
गुरूजन वध के बाद क्या , रूधिर सिक्त साम्राज्य ?।।5।।
भावार्थ : इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥
5. Better it is, indeed, in this world to accept alms than to slay the most noble teachers. But if
I kill them, even in this world all my enjoyments of wealth and desires will be stained with (their)
blood.
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥
समझ न आता उचित क्या ! कल जीतेगा कौन।
जिन्हे मारना पाप , वे खड़े युद्ध हित मौन।।6।।
भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥6॥
6. I can hardly tell which will be better: that we should conquer them or they should conquer
us. Even the sons of Dhritarashtra, after slaying whom we do not wish to live, stand facing us.
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
हीन भाव से व्यापत है मेरा वीर स्वभाव
शरण शिष्य हूँ, क्या उचित मुझे नाथ समझाव।।7।।
भावार्थ : इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥7॥
7. My heart is overpowered by the taint of pity, my mind is confused as to duty. I ask Thee:
tell me decisively what is good for me. I am Thy disciple. Instruct me who has taken refuge in Thee.
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥
क्योंकि सूझता अब नहीं,मुझको कोई उपाय
मन का ताप न मिटेगा,स्वर्ग राज्य भी पाय।।8।।
भावार्थ : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥
8. I do not see that it would remove this sorrow that burns up my senses even if I should
attain prosperous and unrivalled dominion on earth or lordship over the gods.
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥
ऐसा कह श्री कृष्ण से अर्जुन हो चुपचाप
नहीं लडूँगा मैं प्रभो ! मन में भर संताप।।9।।
भावार्थ : संजय बोले- हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान् से युद्ध नहीं करूँगा यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए॥9॥
9. Having spoken thus to Hrishikesa (Lord of the senses), Arjuna (the conqueror of sleep),
the destroyer of foes, said to Krishna: I will not fight, and became silent.
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥
तब सेनाओं बीच में,दुखी सखा को जान
हँसते से, हे भारत ! बोले श्री भगवान।।10।।
भावार्थ : हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले॥10॥
10. To him who was despondent in the midst of the two armies, Sri Krishna, as if smiling, O
Bharata, spoke these words!
( सांख्ययोग का विषय )
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
जिनका शोक न चाहिये उनका शोक महान
व्यर्थ बातें बडी तेरी , हो जैसे विद्धान।।11।।
भावार्थ : श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥
11. Thou hast grieved for those that should not be grieved for, yet thou speakest words of
wisdom. The wise grieve neither for the living nor for the dead.
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥
मैं तुम राजा सभी,न थे,न कोई काल
और न होंगे फिर कभी यह भी नहीं है हाल।।12।।
भावार्थ : न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥
12. Nor at any time indeed was I not, nor these rulers of men, nor verily shall we ever cease
to be hereafter.
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
बचपन,यौवन,वृद्धपन ज्यों शरीर का धर्म
वैसे ही इस आत्मा का है हर युग का कर्म।।13।।
भावार्थ : जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥
13. Just as in this body the embodied (soul) passes into childhood, youth and old age, so also
does he pass into another body; the firm man does not grieve thereat.
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
बाह्य प्रकृति सुख दुख अनुभवदायी
ये अनित्य अनिवार्य हैं इसे सहो हे भाई ।।14।
भावार्थ : हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥
14. The contacts of the senses with the objects, O son of Kunti, which cause heat and cold
and pleasure and pain, have a beginning and an end; they are impermanent; endure them bravely, O
Arjuna!
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
जिन्हें दुखी करते नहीं ये परिवर्तन पार्थ
वही व्यक्ति जीवन अमर , जीते हैं निस्वार्थ।।15।।
भावार्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥
15. That firm man whom surely these afflict not, O chief among men, to whom pleasure and
pain are the same, is fit for attaining immortality!
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥
असत कभी रहता नहीं,सत का कभी अभाव
तत्व ज्ञानियों का यही निश्चित अंतिम भाव।।16।।
भावार्थ : असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥
16. The unreal hath no being; there is no non-being of the Real; the truth about both has been
seen by the knowers of the Truth (or the seers of the Essence).
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
वह अविनाशी अमर है , जग जिसका निर्माण
उसे मिटा सकता नहीं , कोई निश्चित जान।।17।।
भावार्थ : नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥
17. Know That to be indestructible, by whom all this is pervaded. None can cause the destruction of That, the Imperishable.
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥
नाशवान है देह यह , आत्मा अमर अपार
इससे उठ औ”युद्धहित,अर्जुन हो तैयार।।18।।
भावार्थ : इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥18॥
18. These bodies of the embodied Self, which is eternal, indestructible and immeasurable,
are said to have an end. Therefore, fight, O Arjuna!
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
जो इसको हन्ता या कि , मृत करते अनुमान
न मरती ,न मारती,उनका है अज्ञान।।19।।
भावार्थ : जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है॥19॥
19. He who takes the Self to be the slayer and he who thinks He is slain, neither of them
knows; He slays not nor is He slain.
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
आत्मा शाश्वत ,अज अमर,इसका नहिं अवसान
मरता मात्र शरीर है , हो इतना अवधान।।20।।
भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥20॥
20. He is not born nor does He ever die; after having been, He again ceases not to be.
Unborn, eternal, changeless and ancient, He is not killed when the body is killed,
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥
अविनाशी अज सतत जो,उसका कहाँ विनाश
उसके मारण-मरण का झूठा है विश्वास।।21।।
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?॥21॥
21. Whosoever knows Him to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can
that man slay, O Arjuna, or cause to be slain?
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर , करता नये स्वीकार
त्यों ही आत्मा त्याग तन नव गहती हर बार।।22।।
भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥
22. Just as a man casts off worn-out clothes and puts on new ones, so also the embodied Self
casts off worn-out bodies and enters others that are new.
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
शस्त्र न छेदन कर सके,अग्नि न सके जलाय
जल न गीला कर सके,पवन न सके उड़ाय ।।23।।
भावार्थ : इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥23॥
23. Weapons cut It not, fire burns It not, water wets It not, wind dries It not.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
यह अच्छेद्य,अक्लेद्य है,अमर सर्व परिव्याप्त
अचल सनातन अलख है स्वयं आप में आप्त।।24।।
भावार्थ : क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥24॥
24. This Self cannot be cut, burnt, wetted nor dried up. It is eternal, all-pervading, stable,
ancient and immovable.
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥॥
अविकारी,अव्यक्त है,तथा अचिन्त्य अपार
इससे इसके शोक का नहीं कोई आधार।।25।।
भावार्थ : यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं
है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥
25. This (Self) is said to be unmanifested, unthinkable and unchangeable. Therefore,
knowing This to be such, thou shouldst not grieve.
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥
फिर फिर इसको जन्मता ओै मरता भी जान
तुम्हीं कहो हे वीर है दुख का कोई ध्यान।।26।।
भावार्थ : किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है॥26॥
26. But, even if thou thinkest of It as being constantly born and dying, even then, O mighty-armed, thou shouldst not grieve!
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
जो भी लेता जन्म है ध्रुव उसका अवसान
इससे जो निश्चित नियम उसमें क्या दुख भान।।27।।
भावार्थ : क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥
27. For, certain is death for the born and certain is birth for the dead; therefore, over the
inevitable thou shouldst not grieve.
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥
निराकार जो पूर्व में,मध्य में रह साकार
निराकार होते पुनः तो क्या दुख-आधार।।28।।
भावार्थ : हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥28॥
28. Beings are unmanifested in their beginning, manifested in their middle state, O Arjuna,
and unmanifested again in their end! What is there to grieve about?
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥
अचरज से कोई देखता,कहता सुनता कोई
किन्तु बडा आश्चर्य यह जान न पाया कोई।।29।।
भावार्थ : कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥29॥
29. One sees This (the Self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; another hears of It
as a wonder; yet, having heard, none understands It at all.
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
सब शरीर में आत्मा सतत अमर विख्यात
इससे कोई शोक का कारण नहीं है तात।।30।।
भावार्थ : हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है॥30॥
30. This, the Indweller in the body of everyone, is always indestructible, O Arjuna!
Therefore, thou shouldst not grieve for any creature.
( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
मन में विचलित हो न तू,अपना धर्म विचार
क्षत्रिय का तो धर्म है युद्ध ओर प्रतिकार।।31।।
भावार्थ : तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥
31. Further, having regard to thy own duty, thou shouldst not waver, for there is nothing
higher for a Kshatriya than a righteous war.
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
अनायास ही हैं खुले तुझे स्वर्ग के द्वार
भाग्यवान क्षत्रिय ही यह पा पाते उपहार।।32।।
भावार्थ : हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥
32. Happy are the Kshatriyas, O Arjuna, who are called upon to fight in such a battle that
comes of itself as an open door to heaven!
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
यदि तू नहीं करेगा यह धर्म समय संग्राम
तो अपयश देगा तुझे यही “पाप का काम” ।।33।।
भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥
33. But, if thou wilt not fight in this righteous war, then, having abandoned thine duty and
fame, thou shalt incur sin.
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-र्मरणादतिरिच्यते ॥
दीर्घ काल तक करेगें लोग तुझे बदनाम
भले व्यक्ति को,मृत्यु से अधिक दुखद यह काम।।34।।
भावार्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥
34. People, too, will recount thy everlasting dishonour; and to one who has been honoured,
dishonour is worse than death.
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
महारथी जो समझते , तुझको वीर महान
तुझे हटे रणभूमि से देंगे क्या सम्मान ?।।35।।
भावार्थ : और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥
35. The great car-warriors will think that thou hast withdrawn from the battle through fear;
and thou wilt be lightly held by them who have thought much of thee.
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥
शत्रु निन्द्य शब्दावली का कर घृणित प्रयोग
करने तव अपकीर्ति का पायेंगे संयोग।।36।।
भावार्थ : तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥
36. Thy enemies also, cavilling at thy power, will speak many abusive words. What is more
painful than this!
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
उठ निश्चय कर जीतने का खोया साम्राज्य
मृत्यु हुई भी तो खुला तुझे स्वर्ग का राज्य।।37।।
भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥
37. Slain, thou wilt obtain heaven; victorious, thou wilt enjoy the earth; therefore, stand up,
O son of Kunti, resolved to fight!
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
सुख दुख को सम मान कर लाभ हानि सम जान
धर्म कार्य है युद्ध, उठ , हार औ” जीत समान।।38।।
भावार्थ : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥
38. Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat the same, engage thou
in battle for the sake of battle; thus thou shalt not incur sin.
( कर्मयोग का विषय )
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
सांख्य योग यह,सुन जरा बुद्धियोग की बात
सुन अर्जुन! जिससे न हो तुझे कोई व्याघात।।39।।
भावार्थ : हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥
39. This which has been taught to thee, is wisdom concerning Sankhya. Now listen to
wisdom concerning Yoga, endowed with which, O Arjuna, thou shalt cast off the bonds of action!
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
किये गये हर कर्म का होता कभी न नाश
थोड़ा सा भी धर्म नित करता पाप विनाश ।।40।।
भावार्थ : इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥
40. In this there is no loss of effort, nor is there any harm (the production of contrary results
or transgression). Even a little of this knowledge (even a little practice of this Yoga) protects one
from great fear.
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
शुद्ध कर्म की बुद्धि एक होती सुदृढ महान
अकर्मण्यता है पालती कई बुद्धि अज्ञान।।41।।
भावार्थ : हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥
41. Here, O joy of the Kurus, there is a single one-pointed determination! Many-branched
and endless are the thoughts of the irresolute.
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
वेदों पर वार्तायें मधु करते जो विद्वान
उससे अधिक न और कुछ कर लेते अनुमान।।42।।
जन्मकर्म फलदायी ले स्वर्ग प्राप्ति की चाह
भोग-ऐश्वर्य क्रियाओे की करते है परवाह।।43।।
ऐसे भोगासक्त की कोई न स्थिर बात
समय समय पर बेतुकी करते रहते बात।।44।।
भावार्थ : हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥
42. Flowery speech is uttered by the unwise, who take pleasure in the eulogising words of
the Vedas, O Arjuna, saying: There is nothing else!
43. Full of desires, having heaven as their goal, they utter speech which promises birth as the
reward of ones actions, and prescribe various specific actions for the attainment of pleasure and
power.
44. For those who are much attached to pleasure and to power, whose minds are drawn away
by such teaching, that determinate faculty is not manifest that is steadily bent on meditation and
Samadhi (the state of Superconsciousness)
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥
त्रिगुण विषय से युक्त है वेद तू त्रिगुणातीत
हो,अर्जुन निद्र्वन्द औ मन से भावातीत।।45।।
भावार्थ : हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम योग है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो॥45॥
45. The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes, O Arjuna! Free yourself from the pairs of opposites and ever remain in the quality of Sattwa
(goodness), freed from the thought of acquisition and preservation, and be established in the Self.
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥
जो संभव है कुयें से वह ही दे तालाब
त्यों वेदों में जो सुलभ ब्रम्हज्ञान में आप।।46।।
भावार्थ : सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥
46. To the Brahmana who has known the Self, all the Vedas are of as much use as is areservoir of water in a place where there is a flood.
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
कर्मों पर अधिकार तव हाथ में न परिणाम
फल से रह निरपेक्ष नित रख कर्मो से काम।।47।।
भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥
47. Thy right is to work only, but never with its fruits; let not the fruits of actions be thy
motive, nor let thy attachment be to inaction
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
योगी हो कर कर्म कर,सकल लिप्ति को त्याग
सम दृष्टि ही योग है न कि जीतहार से राग।।48।।
भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम समत्व है।) ही योग कहलाता है॥48॥
48. Perform action, O Arjuna, being steadfast in Yoga, abandoning attachment and balanced in success and failure! Evenness of mind is called Yoga.
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
योग श्रेष्ठ है , नीच है फल इच्छा से काम
बुद्धि बना तू योग की मन पर लगा लगाम।।49।।
भावार्थ : इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥49॥
49. Far lower than the Yoga of wisdom is action, O Arjuna! Seek thou refuge in wisdom;
wretched are they whose motive is the fruit.
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
बुद्धिमान शुभ-अशुभ से रहता कोसों दूर
अतः युद्ध कर योग है कर्मो से भरपूर।।50।।
भावार्थ : समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है॥50॥
50. Endowed with wisdom (evenness of mind), one casts off in this life both good and evil deeds; therefore, devote thyself to Yoga; Yoga is skill in action.
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥
कर्म बुद्धि रख दृढव्रती देते फल रूचि त्याग
जन्म बंध से मुक्त हो पाते पद निर्वाण।।51।।
भावार्थ : क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥
51. The wise, possessed of knowledge, having abandoned the fruits of their actions, and being freed from the fetters of birth, go to the place which is beyond all evil.
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
मोह मलिनता त्याग जो बुद्धि तव होगी शुद्ध
तो संसार प्रपंच से होगा तू प्रिय मुक्त।।52।।
भावार्थ : जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा॥52॥
52. When thy intellect crosses beyond the mire of delusion, then thou shalt attain to indifference as to what has been heard and what has yet to be heard.
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
सुने प्रवादों को भूला जब होगा मन शांत
पा पायेगी बुद्धि तब सहज योग का प्रांत।।53।।
भावार्थ : भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा॥53॥
53. When thy intellect, perplexed by what thou hast heard, shall stand immovable and steady in the Self, then thou shalt attain Self-realisation.
( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥
अर्जुन ने पूँछा
केशव समझायें मुझे स्थिर प्रज्ञ का रूप
कैसी उसकी रीति गति भाषा रहन अनूप।।54।।
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥
54. What, O Krishna, is the description of him who has steady wisdom and is merged in the Superconscious State? How does one of steady wisdom speak? How does he sit? How does he
walk?
भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
भगवान ने कहा-
इच्छाओं को त्याग कर जो मन से बलवान
होता , उसको पार्थ ! सब कहते प्रज्ञ महान।।55।।
भावार्थ : श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥
55. When a man completely casts off, O Arjuna, all the desires of the mind and is satisfied in the Self by the Self, then is he said to be one of steady wisdom!
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
दुखों में जो चिंता रहित सुख में भी निष्काम
वीत राग भय क्रोध में स्थिर प्रज्ञ वह नाम।।56।।
भावार्थ : दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥
56. He whose mind is not shaken by adversity, who does not hanker after pleasures, and who is free from attachment, fear and anger, is called a sage of steady wisdom.
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
आनन्दित जो शुभाशुभ को भी पा दिन रात
सदा राग से रहित जो वही स्थित धी तात।।57।।
भावार्थ : जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥
57. He who is everywhere without attachment, on meeting with anything good or bad, who neither rejoices nor hates, his wisdom is fixed.
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
कछुआ सा इंद्रियों को जो समेट रख शांत
प्रज्ञावान किसी समय होता नही अंशांत।।58।।
भावार्थ : और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥
58. When, like the tortoise which withdraws its limbs on all sides, he withdraws his senses from the sense-objects, then his wisdom becomes steady.
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥
भूख देह की मिटाते तो हैं विषय विकार
किंतु लालसा मिटाता प्रभु का साक्षात्कार।।59।।
भावार्थ : इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥
59. The objects of the senses turn away from the abstinent man, leaving the longing (behind); but his longing also turns away on seeing the Supreme.
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
यत्न किये भी इंद्रियां,मथतीं मन बरजोर
ज्ञानी को भी खींचती अर्जुन अपनी ओर।।60।।
भावार्थ : हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं॥60॥
60. The turbulent senses, O Arjuna, do violently carry away the mind of a wise man though he be striving (to control them)
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
वश में कर के इंद्रियाँ,हो मुझसे लवलीन
इंद्रियाँ जिसके वश में है,वही मुनष्य प्रवीण।।61।।
भावार्थ : इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥
61. Having restrained them all he should sit steadfast, intent on Me; his wisdom is steady
whose senses are under control.
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
विषयों के नित ध्यान से बढ़ती है अनुरक्ति
आसक्ति से कामना उससे क्रोधोत्पत्ति।।62।।
भावार्थ : विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥
62. When a man thinks of the objects, attachment to them arises; from attachment desire is
born; from desire anger arises.
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
क्रोध नष्ट करता विवेक,उससे खोती याद
याद बिना सदबुद्धि ओै” बुद्धि के बिना विनाश।।63।।
भावार्थ : क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥
63. From anger comes delusion; from delusion the loss of memory; from loss of memory the
destruction of discrimination; from the destruction of discrimination he perishes.
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
मन जिसका स्वाधीन है,राग द्वेष से दूर
इंद्रिय सुख लेते भी वह आंनद से भरपूर।।64।।
भावार्थ : परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥
64. But the self-controlled man, moving amongst objects with the senses under restraint,
and free from attraction and repulsion, attains to peace.
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
निर्मल मन रखता उसे आंनदित निष्काम
अचल बुद्धि नहि जानती किन्ही दुखों का नाम।।65।।
भावार्थ : अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥
65. In that peace all pains are destroyed, for the intellect of the tranquil-minded soon
becomes steady.
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥
योग बिना चंचल मति,न श्रद्धा न भक्ति
भाव रहित जन से सदा सुख की रही विरक्ति।।66।।
भावार्थ : न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥
66. There is no knowledge of the Self to the unsteady, and to the unsteady no meditation is
possible; and to the un-meditative there can be no peace; and to the man who has no peace, how can
there be happiness?
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
विषयलीन इंद्रियों से होता मन -भटकाव
जैसे जल में हो कोई वायु प्रवाहित नाव।।67।।
भावार्थ : क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥
67. For the mind which follows in the wake of the wandering senses, carries away his
discrimination as the wind (carries away) a boat on the waters
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
अतः पार्थ ! मन जिनका भी सदा विषय से दूर
उनकी स्थिर बुद्धि नित देती सुख भरपूर।।68।।
भावार्थ : इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥
68. Therefore, O mighty-armed Arjuna, his knowledge is steady whose senses are
completely restrained from sense-objects!
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
सदा संयमी जागते जब दुनियाँ की रात
जब जगता संसार यह मुनि का नहीं प्रभात।।69।।
भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥
69. That which is night to all beings, then the self-controlled man is awake; when all beings
are awake, that is night for the sage who sees
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
जैसे भरे समुद्र में नदियाँ आती आप
वैसे शांति समुद्र में खोते सब संताप।।70।।
भावार्थ : जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥
70. He attains peace into whom all desires enter as waters enter the ocean, which, filled from
all sides, remains unmoved; but not the man who is full of desires.
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
सब इच्छायें त्याग नर जो निर्भय निर्भीक
अंहकार से रहित वह पाता शक्ति अलीक।।71।।
भावार्थ : जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है॥71॥
71. The man attains peace, who, abandoning all desires, moves about without longing,
without the sense of mine and without egoism.
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥
ऐसी स्थिति ब्राही जिसमें रह निर्मोह
अर्जुन पाती आत्मा,चिदानंद आरोह।।72।।
भावार्थ : हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥
72. This is the Brahmic seat (eternal state), O son of Pritha! Attaining to this, none is
deluded. Being established therein, even at the end of life one attains to oneness with Brahman.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥2॥