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श्रीमद् भगवत गीता अध्याय-18 : सन्यास योग

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हिंदी पद्यानुवाद : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥
अर्जुन ने पूछा-
महाबाहु श्री कृष्ण! मैं उत्सुक हॅू भगवान
त्याग और सन्यास का मुझे दीजिये ज्ञान ।1।।

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ॥1॥
1. I desire to know severally, O mighty-armed, the essence or truth of renunciation, O
Hrishikesa, as also of abandonment, O slayer of Kesi!

श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥
श्री भगवान ने कहा-
काम्य सुखो के त्याग को कहते है सन्यास
कर्म फलेच्छा त्याग को ज्ञानी कहते त्याग ।।2।।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं॥2॥
2. The sages understand Sannyas to be the renunciation of action with desire; the wise
declare the abandonment of the fruits of all actions as Tyaga.

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥

कहतें है ज्ञानी कि सब, दोषपूर्ण हैं कर्म
इससे उनको त्यागना , ही है सच्चा धर्म
किंतु दूसरों का है मत, यज्ञ दान तप कर्म
नहीं तजे जायें कभी ,यही धर्म का मर्म ।।3।।

भावार्थ : कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं॥3॥
3. Some philosophers declare that all actions should be abandoned as an evil, while others
declare that acts of gift, sacrifice and austerity should not be relinquished.

निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥

किंतु इसी संदर्भ में , मेरा मत सुन पार्थ !
त्याग भी तीन प्रकार का ,कहा गया है तात ।।4।।

भावार्थ : हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है॥4॥
4. Hear from Me the conclusion or the final truth about this abandonment, O best of the
Bharatas; abandonment, verily, O best of men, has been declared to be of three kinds!

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌ ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ॥

यज्ञ, ज्ञान, तप, कर्म तो, कभी नहीं है ज्याज्य
ये तो पावन कर्म हैं ,करते मन को साफ।।5।।

भावार्थ : यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं॥5॥
5. Acts of sacrifice, gift and austerity should not be abandoned, but should be performed;
sacrifice, gift and also austerity are the purifiers of the wise.

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌ ॥

किंतु ये भी सब कर्म हो, त्याग आश अनुराग
किये जायें निश्चित सदा, मेरे मत का राग ।।6।।

भावार्थ : इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है॥6॥
6. But even these actions should be performed leaving aside attachment and the desire for
rewards, O Arjuna! This is My certain and best conviction.

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥

नियत कर्मो का कभी भी उचित न करना त्याग
करता कोई अज्ञानवश तो वह तामस त्याग ।।7।।

भावार्थ : (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी अध्याय के श्लोक 48 की टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है॥7॥

7. Verily, the renunciation of obligatory action is improper; the abandonment of the same
from delusion is declared to be Tamasic.

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌ ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌ ॥

कष्टदायी हैं कर्म ये, देह को पीड़ा दायी
इससे हैं ये त्याज्य, यह कहते ज्ञान अनुयायी।।8 अ।।

यह है बुद्धि की मूर्खता, नहीं त्याग फल लाभ
सिर्फ पलायन वाद है जीवन हित अभिशाप ।।8ब।।

भावार्थ : जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता॥8॥
8. He who abandons action on account of the fear of bodily trouble (because it is painful), he
does not obtain the merit of renunciation by doing such Rajasic renunciation.

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥

निर्धारित सब कर्म तो पार्थ कार्य रूचि साथ
फल इच्छा को त्याग कर करना ही है त्याग ।।9।।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है॥9॥
9. Whatever obligatory action is done, O Arjuna, merely because it ought to be done,
abandoning attachment and also the desire for reward, that renunciation is regarded as Sattwic!
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥

सत्व युक्त निश्शक मन, त्यागी जो विद्वान
किसी कर्म से द्वेष न, किसी में न रममान ।।10।।

भावार्थ : जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है॥10॥
10. The man of renunciation, pervaded by purity, intelligent and with his doubts cut
asunder, does not hate a disagreeable work nor is he attached to an agreeable one.

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न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥

देहधारी का कर्म का त्याग नहीं संभाव्य
किंतु जो फल त्यागी, वही त्यागी है आराध्य ।।11।।

भावार्थ : क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है॥11॥
11. Verily, it is not possible for an embodied being to abandon actions entirely; but he who
relinquishes the rewards of actions is verily called a man of renunciation.

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्‌ ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्‌ ॥

इष्ट, अनिष्ट या मिश्रफल पाने जिनको चाह
किंतु कर्मफल त्याग की कभी न कोई परवाह।।12।।

भावार्थ : कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता॥12॥
12. The threefold fruit of action-evil, good and mixed-accrues after death to the
non-abandoners, but never to the abandoners.

(कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन)

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌ ॥

कर्म दोष या सिद्धि हित कारण पाँच प्रधान
सांख्य शास्त्र आधार पर अर्जुन तू यह जान ।।13।।

भावार्थ : हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान॥13॥
13. Learn from Me, O mighty-armed Arjuna, these five causes, as declared in the Sankhya
system for the accomplishment of all actions!

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌ ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌ ॥

कर्मक्षेत्र कर्ता तथा साधन विविध अनेक
इन चारों के साथ ही दैवयोग भी एक ।।14।।

भावार्थ : इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ, उसका नाम अधिष्ठान है) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका नाम करण है) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का नाम दैव है) है॥14॥

14. The body, the doer, the various senses, the different functions of various sorts, and the
presiding Deity, also, the fifth,

शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥

मन,वाणी व शरीर से नर करता जो काम
सही गलत उस कर्म के हेतु, पाँच ये नाम।।15।।

भावार्थ : मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं॥15॥
15. Whatever action a man performs by his body, speech and mind, whether right or the
reverse, these five are its causes.

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥

करने वाले को अगर कर्ता का अभिमान
तो समझो वह मंदमति ,है उसको अज्ञान।।16।।

भावार्थ : परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त
साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता॥16॥

16. Now, such being the case, he who, owing to untrained understanding, looks upon his
Self, which is isolated, as the agent, he of perverted intelligence, sees not.

यस्य नाहङ्‍कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥

जिसकी बुद्धि मलिन नहीं, और नहीं अभिमान
बंधकर भी वह मुक्त है, एक निर्दोष समान।।17।।

भावार्थ : जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं कर्ता हूँ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। (जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष पाप से नहीं बँधता।)॥17॥

17. He who is ever free from the egoistic notion, whose intelligence is not tainted by (good
or evil), though he slays these people, he slayeth not, nor is he bound (by the action).
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ॥

ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता ये हैं कर्म प्रेरणा मूल
साधन, क्रिया व कर्ता हैं, साधन कर्म अनुकूल ।।18।।

भावार्थ : ज्ञाता (जानने वाले का नाम ज्ञाता है।), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाए, उसका नाम ज्ञान है। ) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु का नाम ज्ञेय है।)- ये तीनों प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता (कर्म करने वाले का नाम कर्ता है।), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, उनका नाम करण है।) तथा क्रिया (करने का नाम क्रिया है।)- ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है॥18॥
18. Knowledge, the knowable and the knower form the threefold impulse to action; the
organ, the action and the agent form the threefold basis of action.

(तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद)

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ॥

ज्ञान, कर्म, कर्ता के भी होते तीन प्रकार
तीन गुणो की भिन्नता, होने के अनुसार ।।19।।

भावार्थ : गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तु मुझसे भलीभाँति सुन॥19॥
19. Knowledge, action and the actor are declared in the science of the Gunas (the Sankhya
philosophy) to be of three kinds only, according to the distinction of the Gunas. Hear them also duly.

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥

वही ज्ञान है सात्विक, सच्चा और पवित्र
विभिन्न भूलों को देखते अमर और अविभक्त ।।20।।

भावार्थ : जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान॥20॥
20. That by which one sees the one indestructible Reality in all beings, not separate in all the
separate beings-know thou that knowledge to be Sattwic (pure).

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्‌ ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌ ॥

जब भूतों की विविधता में पृथकत्व का भान
तब ऐसे भाव को तो कहते राजस ज्ञान ।।21।।

भावार्थ : किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान॥21॥
21. But that knowledge which sees in all beings various entities of distinct kinds as different
from one another-know thou that knowledge to be Rajasic (passionate).

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्‌॥

जब कोई एक ही कार्य को सब कुछ यह ही भाव
रखकर बिना हेतु आसक्त हो, तो वह तामस भाव ।।22।।

भावार्थ : परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है॥22॥
22. But that which clings to one single effect as if it were the whole, without reason, without
foundation in Truth, and trivial-that is declared to be Tamasic (dark).

नियतं सङ्‍गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥

राग द्वेष से रहित हो, लिप्ति बिना, कृत कर्म
कहलाता है सात्विक, यही धर्म का मर्म ।।23।।

भावार्थ : जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है॥23॥
23. An action which is ordained, which is free from attachment, which is done without love
or hatred by one who is not desirous of any reward-that action is declared to be Sattwic.

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्‍कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌॥

जो फल इच्छा सहित हो, कर्म अहं-सायास
उसको कहते राजस, भले हो बिना प्रयास।।24।।

भावार्थ : परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है॥24॥
24. But that action which is done by one longing for the fulfilment of desires or gain, with
egoism or with much effort-that is declared to be Rajasic.

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌ ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥

बिना विचारे हानि या हिंसा का परिणाम
उसे दिया जाता सदा तामस कर्म का नाम ।।25।।

भावार्थ : जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है॥25॥
25. That action which is undertaken from delusion, without regard to the consequences of
loss, injury and (ones own) ability-that is declared to be Tamasic.

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मुक्तसङ्‍गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥

धैर्य और उत्साह से, लिप्ति मान से मुक्त
हानि-लाभ, दुख-हर्ष से सात्विक कर्म विमुक्त ।।26।।

भावार्थ : जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है॥26॥
26. He who is free from attachment, non-egoistic, endowed with firmness and enthusiasm
and unaffected by success or failure, is called Sattwic.

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥

लोभी हिंस्र, फलेच्छु व भोगी मलिन विचार
हर्ष-शोक के भाव से राजस नित लाचार ।।27।।

भावार्थ : जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है॥27॥
27. Passionate, desiring to obtain the rewards of actions, cruel, greedy, impure, moved by
joy and sorrow, such an agent is said to be Rajasic.

आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥

जो अकुशल, शठ, आलसी, संस्कार से हीन
तामस कर्ता विषादी, मन का रहा मलीन ।।28।।

भावार्थ : जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता। ) है वह तामस कहा जाता है॥28॥
28. Unsteady, dejected, unbending, cheating, malicious, vulgar, lazy and
proscrastinating-such an agent is called Tamasic.
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ॥

तीन भेद धृति, बुद्धि के होते गुण अनुसार
पृथक ओर संपूर्णतः कहता पार्थ ! मैं सार ।।29।।

भावार्थ : हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन॥29॥
29. Hear thou the threefold division of the intellect and firmness according to the Gunas, as I
declare them fully and distinctly, O Arjuna!

प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥

प्रवृत्ति-निवृत्ति, भय-अभय का, बॅंधा मोक्ष का ज्ञान
सात्विक बुद्धि को कार्याकार्य का होता शुभ अनुमान ।।30।।

भावार्थ : हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम प्रवृत्तिमार्ग है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम निवृत्तिमार्ग है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ॥30॥
30. That which knows the path of work and renunciation, what ought to be done and what
ought not to be done, fear and fearlessness, bondage and liberation-that intellect is Sattwic, O
Arjuna!
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥

जो न समझती धर्म की और कार्य की शुद्धि
उसको ही जाता कहा, पार्थ ! राजसी बुद्धि।।31।।

भावार्थ : हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है॥31॥
31. That by which one incorrectly understands Dharma and Adharma, and also what ought
to be done and what ought not to be done-that intellect, O Arjuna, is Rajasic!
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

जो अज्ञानी अधर्म को ,भी कहते हैं धर्म
वह है तामस बुद्धि जो ,करती उलटा अर्थ।।32।।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी यह धर्म है ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है॥32॥
32. That which, enveloped in darkness, views Adharma as Dharma and all things
perverted-that intellect, O Arjuna, is called Tamasic!

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥

जो मन, इंद्रिय, प्राण को धारण करें समान
वही सात्विकी धृति की है पार्थ! सही पहचान ।।33।।

भावार्थ : हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है, उस दोष से जो रहित है वह अव्यभिचारिणी धारणा है।) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं ( मन, प्राण और इंद्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिए भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम उनकी क्रियाओं को धारण करना है।) को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है॥33॥
33. The unwavering firmness by which, through Yoga, the functions of the mind, the
life-force and the senses are restrained-that firmness, O Arjuna, is Sattwic!

यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्‍गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥

कर्म-फल भोग की चाह रख धर्म, अर्थ औ” काम
से जिसकी आसक्ति वह राजस धृति है नाम ।।34।।

भावार्थ : परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति राजसी है॥34॥
34. But that firmness, O Arjuna, by which, on account of attachment and desire for reward,
one holds fast to Dharma, enjoyment of pleasures and earning of wealth-that firmness, O Arjuna,
is Rajasic!

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥

निद्रा, दुख, भय, शोक, मद ,का न करे जो त्याग
वह धृति तामस नाम से , है जग में विख्यात।।35।।

भावार्थ : हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है॥35॥

35. That by which a stupid man does not abandon sleep, fear, grief, despair and also
conceit-that firmness, O Arjuna, is Tamasic!

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌॥

सुख के तीन प्रकार हैं, भेद समझ के जान
रमता मन अभ्यास से, दुख से निकल प्रधान ।।36।।

जो पहले विष सा लगे, अमृत सा परिणाम
मन को करे प्रसन्न उस ,सुख का सात्विक नाम ।।37।।

भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम विष के तुल्य प्रतीत होता है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है॥36-37॥

36. Now hear from Me, O Arjuna, of the threefold pleasure, in which one rejoices by
practice and surely comes to the end of pain!
37. That which is like poison at first but in the end like nectar-that pleasure is declared to
be Sattwic, born of the purity of ones own mind due to Self-realisation.

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌॥

इंद्रिय के संयोग से ,जो लगता सुख धाम
किंतु अंत में विष सा जो, उसका राजस नाम ।।38।।

भावार्थ : जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को परिणाम में विष के तुल्य कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है॥38॥

38. That pleasure which arises from the contact of the sense-organs with the objects, which
is at first like nectar and in the end like poison-that is declared to be Rajasic.

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌॥

जो कि आदि से अंत तक ,मोह में रखता डाल
आलस, नींद, प्रमाद से वह तामस बेहाल ।।39।।

भावार्थ : जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है॥39॥

39. That pleasure which at first and in the sequel is delusive of the self, arising from sleep,
indolence and heedlessness-such a pleasure is declared to be Tamasic.

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः॥

जो तीनों गुण विलग हो, वह न कहीं उपलब्ध
पृथ्वी में या स्वर्ग में, न देवों के प्रारब्ध।।40।।

भावार्थ : पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो॥40॥

40. There is no being on earth or again in heaven among the gods that is liberated from the
three qualities born of Nature.

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(फल सहित वर्ण धर्म का विषय)

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥

ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैष्य के , औ” शूद्रो के कर्म
सहज स्वाभाविक गुणो से , भिन्न हरेक के धर्म ।।41।।

भावार्थ : हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं॥41॥
41. Of Brahmanas, Kshatriyas and Vaishyas, as also the Sudras, O Arjuna, the duties are
distributed according to the qualities born of their own nature!

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ॥

शम, दम, तप औ” सरलता, धैर्य, ज्ञान, विज्ञान
ये ब्राहम्ण के कर्म है, शुचिता, ईश्वर-ध्यान ।।42।।

भावार्थ : अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं॥42॥
42. Serenity, self-restraint, austerity, purity, forgiveness and also uprightness, knowledge,
realisation and belief in God are the duties of the Brahmanas, born of (their own) nature.

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌॥

शौर्य, तेज, धृति, निपुणता, युद्ध में दृढता , दान
शासन पटुता क्षत्रियों , की स्वभाव पहचान ।।43।।

भावार्थ : शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं॥43॥
43. Prowess, splendour, firmness, dexterity and also not fleeing from battle, generosity and
lordliness are the duties of Kshatriyas, born of (their own) nature.

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌॥

गोरक्षा, वाणिज्य, कृषि ,कृत्य है वैश्य स्वभाव
परिचर्या, के कर्म सब ,शूद्र वर्ण के भाव ।।44।।

भावार्थ : खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम सत्य व्यवहार है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है॥44॥
44. Agriculture, cattle-rearing and trade are the duties of the Vaishya (merchant class), born
of (their own) nature; and action consisting of service is the duty of the Sudra (servant class), born
of (their own) nature.

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥

अपने अपने कर्म में , तत्पर पाते सिद्धि
यह भी सुन किस तरह सब , पाते हैं समृद्धि।।45।।

भावार्थ : अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन॥45॥
45. Each man, devoted to his own duty, attains perfection. How he attains perfection while
being engaged in his own duty, hear now.

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

जिससे जग परिव्याप्त है, जिससे सहज प्रवृति
उसकी पूजा स्वकर्म से ,मिलती है समृद्धि।।46।।

भावार्थ : जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है॥46॥
46. He from whom all the beings have evolved and by whom all this is pervaded,
worshipping Him with his own duty, man attains perfection.

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥

हो स्वधर्म परधर्म से , छोटा भले महान
नियत कर्म ही कीर्तिप्रद, सुख पाता इंसान।।47।।

भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता॥47॥

47. Better is ones own duty (though) destitute of merits, than the duty of another well
performed. He who does the duty ordained by his own nature incurs no sin.

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥

अपना कर्म सदोष भी ,कभी नहीं है त्याज्य
अग्नि-धूम्र सम, कर्म सब , हैं दोषो से व्याप्त ।।48।।

भावार्थ : अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं॥48॥
48. One should not abandon, O Arjuna, the duty to which one is born, though faulty; for, all
undertakings are enveloped by evil, as fire by smoke!

(ज्ञाननिष्ठा का विषय )

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति॥

जो निस्पृह रह जितेन्द्रिय, नित, रखे बुद्धि निर्लिप्त
वह सन्यास प्रवृति से , पाता नैष्कर्मक सिद्धि ।।49।।

भावार्थ : सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है॥49॥
49. He whose intellect is unattached everywhere, who has subdued his self, from whom
desire has fled,-he by renunciation attains the supreme state of freedom from action.
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥

सिद्धि प्राप्त कर व्यक्ति ज्यों , करता ब्रह्म की प्राप्ति
सुन यह सच्चा ज्ञान औ”, यह ही सच्ची रीति ।।50।।

भावार्थ : जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ॥50॥
50. Learn from Me in brief, O Arjuna, how he who has attained perfection reaches
Brahman, that supreme state of knowledge.
बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥

शुद्ध बुद्धि रख, संयमित, राग-द्वेष को त्याग
शब्द आदि सब विषय तज एकनिष्ठ कर ध्यान ।।51।।
मन वाणी औ” कर्म पर रख अपना अधिकार
कम भोजन, वैराग्ययुत कर एकांत में ध्यान ।।52।।
अहंकार, बल, दर्प, तज, काम, क्रोध से दूर
निमर्म, शांतिस्वरूप हो, ब्रह्म ध्यान मे डूब ।।53।।

भावार्थ : विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है॥51-53॥
51. Endowed with a pure intellect, controlling the self by firmness, relinquishing sound and
other objects and abandoning both hatred and attraction,

52. Dwelling in solitude, eating but little, with speech, body and mind subdued, always
engaged in concentration and meditation, taking refuge in dispassion,

53. Having abandoned egoism, strength, arrogance, anger, desire, and covetousness, free
from the notion of mine and peaceful,-he is fit for becoming Brahman.

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥

मन प्रसन्न रख, शोक औ” इच्छाओं को त्याग
समदृष्टि से भक्ति मम , कर मुझमें अनुराग।।54।।

भावार्थ : फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है॥54॥
54. Becoming Brahman, serene in the Self, he neither grieves nor desires; the same to all
beings, he attains supreme devotion unto Me

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌॥

जो भक्ति से समझता, मेरा वास्तविक रूप
वही मुझे पाता तथा , हो जाता तद्रूप ।।55।।

भावार्थ : उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है॥55॥
55. By devotion he knows Me in truth, what and who I am; and knowing Me in truth, he
forthwith enters into the Supreme.

( भक्ति सहित कर्मयोग का विषय )

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌॥

सभी कर्म कर सदा जो , अर्पण करते भाव
वह पाते हैं ब्रहम पद, कहीं न कोई अभाव ।।56।।

भावार्थ : मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है॥56॥
56. Doing all actions always, taking refuge in Me, by My Grace he obtains the eternal,
indestructible state or abode.

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥

भाव समर्पित कर्म कर, मुझमें लगा कर ध्यान
बुद्धियोग आश्रित हो , नित रख मन मेरा भाव ।।57।।

भावार्थ : सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो॥57॥
57. Mentally renouncing all actions in Me, having Me as the highest goal, resorting to the
Yoga of discrimination do thou ever fix thy mind on Me.
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

मुझमें हो ध्यानस्थ तो , होगा संकट पार
यदि न सुनेगा तो सहज, संभव शीघ्र विनाश।।58।।

भावार्थ : उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा॥58॥
58. Fixing thy mind on Me, thou shalt by My Grace overcome all obstacles; but if from
egoism thou wilt not hear Me, thou shalt perish.

यदहङ्‍कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥

अंह भाव वश यदि तेरा नहीं लडूंगा भाव
तो यह मिथ्या, प्रकृति तो लड़वायेगी आप ।।59।।

भावार्थ : जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा॥59॥
59. If, filled with egoism, thou thinkest: I will not fight, vain is this, thy resolve; Nature
will compel thee.
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्‌ ॥

निज स्वभाव जन्म कर्म को, जो तू नहीं तैयार
विविष हो करना पडेगा, वही तुझे मन मार ।।60।।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा॥60॥
60. O Arjuna, bound by thy own Karma (action) born of thy own nature, that which from
delusion thou wishest not to do, even that thou shalt do helplessly!

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥

ईश्वर सबके हृदय में , करता पार्थ ! निवास
यंत्रारूढ से विश्व को , घुमा रहा दिन रात ।।61।।

भावार्थ : हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है॥61॥
61. The Lord dwells in the hearts of all beings, O Arjuna, causing all beings, by His illusive
power, to revolve as if mounted on a machine!

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥

उसकी शरण में ही तू जा, सच्चे मन के साथ
उसकी कृपा से शांति सह , अचल पद कर प्राप्त ।।62।।

भावार्थ : हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में (लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण होना है) जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा॥62॥
62. Fly unto Him for refuge with all thy being, O Arjuna! By His Grace thou shalt obtain
supreme peace and the eternal abode.

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥

इस प्रकार यह गुप्त से , गुप्त ज्ञान मम दान
कर विचार, फिर कर वही , तुझे जो हो आसान ।।63।।

भावार्थ : इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥63॥
63. Thus has wisdom more secret than secrecy itself been declared unto thee by Me; having
reflected over it fully, then act thou as thou wishest.
सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्‌ ॥

फिर भी सबसे गुह्यतम , सुन यह मेरी बात
तू मुझको है प्रिय बहुत, अतः ये हित की तात ।।64।।

भावार्थ : संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा॥64॥
64. Hear thou again My supreme word, most secret of all; because thou art dearly beloved of
Me, I will tell thee what is good.

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥

मुझमें पूरा मन लगा, भक्त हो नमके प्रणाम
निष्चित मुझको पायेगय, नहीं भीति का काम।।65।।

भावार्थ : हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है॥65॥
65. Fix thy mind on Me, be devoted to Me, sacrifice to Me, bow down to Me. Thou shalt
come even to Me; truly do I promise unto thee, (for) thou art dear to Me.

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

सब धर्मो को छोड़ कर, आ तू मेरे पास
मैं सब पापों से तुझे मुक्ति दूँगा, रख विश्वास ।।66।।

भावार्थ : संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण (इसी अध्याय के श्लोक 62 की टिप्पणी में शरण का भाव देखना चाहिए।) में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर॥66॥
66. Abandoning all duties, take refuge in Me alone; I will liberate thee from all sins; grieve
not.

( श्रीगीताजी का माहात्म्य )

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥

ये न ज्ञान देना उसे ,जो न तपी, मम भक्त
जो अनेच्छु, द्वेषी मेरा, मुझमें न अनुरक्त ।।67।।

भावार्थ : तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-(वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम भक्ति है।)-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए॥67॥
67. This is never to be spoken by thee to one who is devoid of austerities, to one who is not
devoted, nor to one who does not render service, nor who does not desire to listen, nor to one who
cavils at Me.

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥

जो मुझमें अनुरक्त जन , को देगा यह ज्ञान
वह पा मेरी भक्ति, आ मिलेगा मुझे निदान ।।68।।

भावार्थ : जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है॥68॥
68. He who with supreme devotion to Me will teach this supreme secret to My devotees,
shall doubtless come to Me.
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥

उससे बढ न प्रिय मेरा, हुआ न होगा कोई
इस धरती पर भक्त से ,प्रिय अति मुझे न कोई ।।69।।

भावार्थ : उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं॥69॥
69. Nor is there any among men who does dearer service to Me, nor shall there be another on
earth dearer to Me than he.

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥

जिसने भी होगा सुना ,यह धार्मिक संवाद
ज्ञान से उसने ही पूजा मुझे हृदय रख याद ।।70।।

भावार्थ : जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ (गीता अध्याय 4 श्लोक 33 का अर्थ देखना चाहिए।) से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है॥70॥
70. And he who will study this sacred dialogue of ours, by him I shall have been worshipped
by the sacrifice of wisdom; such is My conviction.

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌ ॥

श्रद्धावान अद्वेष हिय, सुनेगा जो भी व्यक्ति
वह भी होगा मुक्त, शुभ लोक में हो अनुरक्त ।।71।।

भावार्थ : जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा॥71॥
71. The man also who hears this, full of faith and free from malice, he, too, liberated, shall
attain to the happy worlds of those of righteous deeds.

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥

अर्जुन, तुमने सुना क्या , हो एकाग्र रख ध्यान?
सुनकर तेरा गया क्या – मोह और अज्ञान ?।।72।।

भावार्थ : हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?॥72॥
72. Has this been heard, O Arjuna, with one-pointed mind? Has the delusion of thy
ignorance been fully destroyed, O Dhananjaya?

अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ॥

अर्जुन ने कहा-
अच्युत आप की कृपा से, नष्ट मोह जंजाल
कर्म ज्ञान मिला, भ्रम मिटा, धर्म सकूँगा पाल ।।73।।

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा॥73॥
73. Destroyed is my delusion as I have gained my memory (knowledge) through Thy Grace,
O Krishna! I am firm; my doubts are gone. I will act according to Thy word.

संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ॥
संजय बोला-
वासुदेव औ” पार्थ का सुना मैने संवाद
जो था अद्भुत, ज्ञानमय, रोमांचक महाराज ।।74।।

भावार्थ : संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्‍भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना॥74॥
74. Thus have I heard this wonderful dialogue between Krishna and the high-souled Arjuna,
which causes the hair to stand on end.

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌॥

व्यास कृपा से सुन सका, स्वतः यह अद्भुत ज्ञान
योगेश्वर श्री कृष्ण के मुख निसृत श्रीमान ।।75।।

भावार्थ : श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना॥75॥
75. Through the Grace of Vyasa I have heard this supreme and most secret Yoga direct from
Krishna, the Lord of Yoga Himself declaring it.

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌ ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥

राजन करकर याद फिर, फिर सारा संवाद
केशव अर्जुन मध्य, मैं फिर फिर हर्षित गात ।।76।।

भावार्थ : हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्‍भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ॥76॥
76. O King, remembering this wonderful and holy dialogue between Krishna and Arjuna, I
rejoice again and again!

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥

तथा हे राजन ! याद कर ,प्रभु का अद्भुत रूप
विस्मित, पुलकित गात हॅू, हर्षित साथ अनूप ।।77।।

भावार्थ : हे राजन्‌! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम हरि है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ॥77॥
77. And remembering again and again also that most wonderful form of Hari, great is my
wonder, O King! And I rejoice again and again!

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं तथा धनुर्धर पार्थ
विजय सुनिष्चत वहाँ ही, मेरी मति निस्वार्थ। ।।78।।

भावार्थ : हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है॥78॥
78. Wherever there is Krishna, the Lord of Yoga, wherever there is Arjuna, the archer, there
are prosperity, happiness, victory and firm policy; such is my conviction.

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः॥18॥

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