व्यंग्यकार आशीष दशोत्तर की कलम से : प्रथम पाॅजीटिव की पीड़ा
🔲 आशीष दशोत्तर
टीका मिलने की खुशी ख़बर के बीच वे अपनी घोर उपेक्षा से आहत हैं। व्यवस्था इतनी विवश और इंसान इतना स्वार्थी भी हो सकता है इसका अहसास उन्हें अब हो रहा है। अब तक स्वयं को प्रथम पाॅजीटिव मानकर वे मन ही मन मुदित थे मगर इस जगत के व्यवहार ने उन्हें क्रोधित कर दिया। वे उस दौर के पाॅजीटिव हैं जब पाॅजीटिव को प्रश्नवाचक नज़रों से नहीं देखा जाता था। शहर में एक वे ही तो थे जो हमेशा कहा करते थे, बी पाॅजीटिव, थिंक पाॅजीटिव, डू पाॅजीटिव।
कभी किसी के प्रति नेगेटिव नहीं रहे। मन,वचन और कर्म से शुद्ध पाॅजीटिव। सबको सकारात्मक नज़रों से देखते। बातें सकारात्मक करते। कार्य सकारात्मक करते। यहां तक कि हर चाल सकारात्मक चलते। यानी आपादमस्तक पाॅजीटिव। उनके इसी गुण के कारण लोग उन्हें ‘पाॅजीटिव बाबू‘ कहकर पुकारने लगे। उनकी यही पाॅजीटिविटी उनके लिए मुसीबत का कारण बन गई। जब पाॅजीटिव लोगों की पहचान की जा रही थी तो किसी ने अमले को ख़बर कर दी कि आप पाॅजीटिव को ढूंढ रहे हैं और हमारे यहां तो पाॅजीटिव बाबू ही रहते हैं। यहीं चक्कर हो गया। अमले ने उन्हें पाॅजीटिव प्रयोगशाला का पहला पीड़ित घोषित कर दिया। अख़बारों में फोटो छप गई। उन्हें पहले पाॅजीटिव होने से सारे प्रयोगों से गुज़रना पड़ा। आज की सुविधाओं को देखकर तो वे कहते हैं कि, आज के पाॅजीटिव क्या जाने, पाॅजीटिव होने का दर्द। अरे,हमने जो सहा है वो ये क्या सहेंगे। मगर वे मुश्किल भरे दिन भी उन्हें अपनी पाॅजीटिविटी के कारण मुश्किल नहीं लगे। जैसे-तैसे बुरे दिन निकले। अपने दीर्घ सकारात्मक जीवन में पहली बार वे पाॅजीटिव से नेगेटिव हुए। अमले ने उन्हें बाकायदा नेगेटिव घोषित किया। मगर नेगेटिव घोषित होने के बाद दर्द और बढ़ गए। रोज नज़रें मिलाने वाले नज़रें चुराने लगे। निकट आने वाले दूरियां बढ़ाने लगे। सबकुछ नेगेटिव हो गया।
वे दिन भी जैसे-तैसे काटे गए। इस उम्मीद में कि जब कभी संक्रमण से मुक्ति का रास्ता मिलेगा तब सबसे पहले उन्हें याद किया जाएगा। जैसे ही ख़बर आई कि वैक्सीन आ रही है। सबसे पहले जिन्हें वैक्सीन दी जाएगी उनकी सूची तैयार होने लगी। वे निश्चिंत थे कि टीकाकरण की सूची में भी उनका नाम ही सबसे पहले होगा, मगर वैक्सीन का बैकसीन अलग ही था। इसमें वे कहीं शामिल नहीं किए गए। टीकाकरण के लिए सबसे पहले जिन्हें चुना गया उनमें उनका नाम ही नहीं। कहीं ज़िक्र नहीं। न योद्धाओं में, न सेवाभावियों में, न पीड़ितों में। पहले पाॅजीटिव को सबसे पहले टीका लगना चाहिए। यही सोचकर उनका व्यथित मन बार-बार यही दोहरा रहा है,
आए नज़र थे ऐब इसी खाक़सार में
हम ही गुनाहगार थे जैसे हज़ार में,
दौरे-खिज़ां में मुश्किलें हमने सही मगर
हम ही भुला दिए गए जश्ने-बहार में।
इस उपेक्षा से उनका आहत मन कह रहा है, वे अगर पहले पाॅजीटिव नहीं होते तो लोग जान ही नहीं पाते कि पाॅजीटिव होना क्या होता है। नेगेटिव से पाॅजीटिव होने में उम्र खपा दी। फिर न चाहते हुए भी पाॅजीटिव से नेगेटिव होना पड़ा। ऐसे परिवर्तन पर कितनी पीड़ा होती है, यह कोई नहीं समझ सकता। फिलहाल वे अपने हर स्त्रोत से इस कोशिश में लगे हैं कि उनका नाम भी प्रथम टीका लाभार्थियों में शामिल हो जाए। पीड़ित पाॅजीटिव बाबू के तेवर इस बार पूरी तरह नेगेटिव हो गए हैं।