अटल बिहारी वाजपेयी थे राजनीति में संत व्यक्तित्व
श्वेता नागर
संत यानी आचरण में शुचिता, संत यानी निर्लिप्त भाव, संत यानी हृदय में संवेदनशीलता, संत यानी विचारों में ओजस्विता, संत यानी स्थितप्रज्ञ और संत यानी पारदर्शी जीवन । संत के इन्हीं गुणों से परिपूर्ण महान व्यक्तित्व थे हमारे पूर्व प्रधानमंत्री (स्व. ) श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी। जिनका आज 25 दिसंबर को जन्मदिन है। भारतीय राजनीति को अटलजी ने अपनी नैतिकता की दिव्य आभा से आलोकित किया।केवल उच्चारण में ही नहीं आचरण में भी वे भारतीय संस्कृति के रक्षक और पोषक रहे। उन्होंने युवा पीढ़ी को स्पष्ट संदेश दिया कि समाज सेवा राजनीति का मूल लक्ष्य है लेकिन यह तभी संभव है जब साधन और साध्य पवित्र हो।
यह भी एक कटु सत्य है कि राजनीति में पवित्र विचारों के प्रवाह को धन, बल, लालसा और अनुचित प्रभाव की चट्टान रोकने का भरपूर प्रयास करती है लेकिन अटलजी का व्यक्तित्व कल- कल बहती उस पवित्र गंगा नदी की तरह था जिसने अपने आत्मबल और वैचारिक ऊर्जा के प्रवाह से धन, बल, लालसा और अनुचित प्रभाव की चट्टान को खण्ड-खण्ड कर दिया।
व्यवहारिक तौर पर राजनीति और नैतिकता को एक- दूसरे का विरोधी ही कहा जायेगा लेकिन अटल जी ने अपने सिद्धांतों और संस्कारों से राजनीति और नैतिकता को एक- दूसरे का पूरक बना दिया। इसलिए केवल अटलजी के समर्थक ही नहीं उनके विरोधी भी उनके व्यक्तित्व की इस विराटता के आगे नत मस्तक थे।
अटल जी के संसद में दिए उनके पहले भाषण ने ही नेहरू जी को इतना प्रभावित कर दिया था कि उन्होंने अटलजी को भारत का भावी प्रधानमन्त्री तक बतला दिया था।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री गुलामनबी आज़ाद भी अटलजी के विचारों, भाषा शैली और उनकी साफ़गोई के लिए उनके मुरीद हैं संसद में उन्होंने अटल जी के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर कहा था कि –
‘ कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ ।’
(इसका अर्थ है कि आपके होंठ इतने मीठे हैं कि आप गालियाँ भी दे तो बुरा नहीं लगता । )
वहीं अटलजी भी संसद में भले ही अपनी धारदार तर्क और भाषण शैली से विरोधियों को परास्त कर देते हो लेकिन वे केवल नीति संगत विरोध के पक्ष में थे न कि वैयक्तिक स्तर पर दोषरोपण के। स्वच्छ राजनीति के लिए यह सर्वोपरि है।
इससे जुड़ा एक प्रसंग भी है बात 1977 की है जब श्री मती इंदिरा गांधी की निरंकुश सरकार को बुरी तरह हरा कर जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाई उस सरकार में अटलजी विदेशमंत्री बने थे और चूंकि इमरजेंसी को लेकर आम से लेकर खास तक में रोष था इसी रोष के कारण विदेश मंत्रालय में जो पंडित जवाहर लाल नेहरू जी की तस्वीर हमेशा दिखाई देती थी उसे हटा लिया गया। जब अटलजी ने देखा तो उन्होंने कड़क लहजे में मंत्रालय के अधिकारियों से कहा कि ‘वो तस्वीर जहाँ भी है…… उसको फौरन ले आइये और यहाँ लगाइये… नही मिलती तो नेहरूजी की कोई दूसरी तस्वीर लगाइये… मगर लगाइये जरूर। ‘
इस प्रसंग से हमारे आज के नेताओं को यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि विरोध विचारों का होना चाहिए न कि व्यक्ति का ।ऐसा ही एक और प्रसंग है जब अटलजी ने अपने कार्य कर्ताओं को कांग्रेस पर प्रहार करने के बजाय श्रीमती सोनिया गांधी पर प्रहार करने पर टोका । उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा ,’हमें कांग्रेस को धराशायी करना है, उसके कार्यक्रमों और नीतियों पर प्रहार कीजिए ।किसी पर व्यक्तिगत प्रहार करना हमारी राजनीतिक भाषा का अंग नहीं होना चाहिए ।
कवि हृदय अटल जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से अपने हृदय के भावों को राजनीतिक विचारो के बंधनों में न बांधकर मानवीय संवेदनाओं से जोड़ा ।
हिंदू और हिंदुत्व पर अनेक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं लेकिन अटलजी की हिन्दू और हिन्दुत्व पर लिखी उनकी कविता उन सभी ग्रंथों का सार कहा जा सकता है ।अटलजी की रचना ‘मेरी इक्यावन कविताएं ‘ में उनकी कविता की पंक्तियाँ हैं –
‘होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं जग को गुलाम ?
मैंने तो सदा सिखाया करना अपने मन को ग़ुलाम ।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए ?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर में नरसंहार किए?
कब बतलाए काबुल में जा कर कितनी मस्जिद तोड़ी ?
भू-भाग नहीं ,शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय ।
हिन्दू तन-मन हिन्दू -जीवन ,रग-रग हिन्दू मेरा परिचय ।’
सकारात्मकता अटलजी के जीवन का अभिन्न पहलू रहा। वे प्रसिद्ध कवि डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की कविता की इन पंक्तियों को हमेशा सुनाते थे जो युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का पथ-प्रशस्त करती है। पंक्तियाँ हैं-
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले
यह भी सही वह भी सही
वरदान माँगूँगा नहीं।’