शख्सियत : श्रेणिक बाफना : हासिल करो अपनी ज़मीन, अपना आकाश और सूरज

 आशीष दशोत्तर

सृजन व्यक्ति को ऊर्जा भी प्रदान करता है और एक दिशा भी।  सृजनशील मनुष्य सदैव सकारात्मक पक्ष में खड़ा होता है। उसे यह पता होता है कि उसकी रचनाधर्मिता से किसका भला हो रहा है और किसका नहीं। उसकी वैचारिक पक्षधरता ही रचनाकार को दिशा प्रदान करती है । जब किसी पृष्ठभूमि पर रचनाकार अपनी कलम चलाता है तो उसकी कविता सिर्फ उसकी नहीं रह जाती , उसकी कविता के साथ वे तमाम लोग चलते हैं जिनके लिए वह लिख रहा है।

एक लंबे समय से निरंतर सृजनरत वरिष्ठ कवि श्रेणिक बाफना की कविताएं भी कुछ ऐसा ही अहसास करवाती हैं। वे एक मौन साधक की तरह निरंतर अपने रचना कर्म में लगे रहे। एक लंबे समय तक साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े रहने और पत्रकारिता जैसे संघर्षमय वातावरण से गुज़रते हुए उन्होंने अपनी रचनात्मकता में कई आयाम जोड़े।

कविता सिर्फ भावनाओं की अभिव्यक्ति ही नहीं

कविता सिर्फ भावनाओं की अभिव्यक्ति ही नहीं होती बल्कि वह हक़ीक़त का आईना भी होती है। जिन जीवन संघर्षों से व्यक्ति का दिन-रात सामना होता है, उन जीवन संघर्षों से गुज़रे बिना एक रचनाकार उन लोगों की आवाज़ नहीं बन सकता। श्रेणिक बाफना के यहां भी रचनाओं में एक अंतर्द्वंद चलता है। उनकी रचनाएं छटपटाहट की रचनाएं हैं। इन कविताओं में एक अकुलाहट है। समाज में व्याप्त विषमताओं के प्रति एक बेचैनी है। आसपास दिखती असमानता के प्रति एक विद्रोह की भावना है।  समाज की विद्रूपताओं के विरुद्ध संघर्ष की ललक नज़र आती है। इन्हीं सब से मिलकर श्रेणिक जी की कविताएं सीधे-सीधे बात करती हैं। ये कविताएं वस्तु स्थिति का चित्रण नहीं करती अपितु एक आह्वान भी करती है। यह आव्हान हर उस व्यक्ति से करती है जो इन पीड़ाओं को भोगने के लिए मजबूर है।

समर अभी खत्म नहीं हुआ

समर लगातार जारी है।

टूट पड़ना है तुम्हें

उस व्याप्त काले अंधियारे के ख़िलाफ़

जहां फ़न फैलाए नाग तुम्हारी अस्मिता-अस्तित्व

को समाप्त करने पर आमादा हैं ।

यहां वे जिस काले अंधियारे की बात कर रहे हैं वह सिर्फ शाब्दिक न होकर काफी गंभीर परिदृश्य से परिचित करवाता है। हर मनुष्य एक ऐसे ही अंधकार से घिरा हुआ है, जहां उसकी अस्मिता पर निरंतर वार किए जा रहे हैं, उसकी पहचान को मिटाया जा रहा है, उसके चरित्र का हनन हो रहा है, उसकी आवाज़ दबाई जा रही है और यह सब करने वाला कौन है? इसी बात को रेखांकित करती श्रेणिक जी की कविताएं गहरे अर्थ पैदा करती है।

किसी भी रचना में शाब्दिक रूप से कही गई बात भिन्न होती है और उसके पीछे छिपी हुई ध्वनि कुछ और एहसास कराती है। कविता को सिर्फ शब्दों की प्रस्तुति समझकर पढ़ने वाला उसके भीतर तक नहीं पहुंच पाता और कविता की गंभीरता से वाबस्ता नहीं होता, मगर जब शब्दों के भीतर से आ रही ध्वनि तक कोई पहुंचता है तो उसे कविता के सही अर्थ पता लगते हैं । श्रेणिक बाफना की कविताओं में भी ऐसी ही ध्वनियां पैदा होती हैं। उनकी व्यस्तताओं और अपने जीवनयापन की व्यस्तताओं के मध्य उन्होंने जिन रचनाओं को आकार दिया वे संख्या में कम हो सकती है मगर अर्थ, मर्म और संदेश में कम नहीं।

मंजिल बहुत क़रीब है लेकिन

अभी काफी लंबा है सफर

यह मत भूलो कि पानी का महत्व

निरंतर बहने में है

तुम्हें पानी की मानिंद बढ़ते ही जाना है

फूल ,शब्द ,पहाड़ ,नदी ,झरने

सब के सब तुम्हारे साथ हैं

सामने बाहें फैलाए खड़ा है पर्वत

तुम्हारे ही वास्ते

उठो निंद्रा त्यागो ,आगे बढ़ो ,हासिल करो

अपनी ज़मीन, अपना आकाश और सूरज।

परेशानियों में घिरे मनुष्य को अगर कविता ताक़त देती है तो इसी तरह देती है । हारे हुए मनुष्य को जीत का एहसास अगर कविता करवाती है तो इसी तरह करवाती है । जो लोग कविता के आशय को नहीं समझते वे इसे सिर्फ शाब्दिक जुगाली ही समझ कर रह जाते हैं ,मगर कविता सिर्फ शाब्दिक जुगाली नहीं, बल्कि जीवन को ऊर्जा प्रदान करने का माध्यम है । कविता से जो ऊर्जा प्राप्त होती है उसका एहसास वही कर सकता है जो इस अनुभव से गुज़रा हो।

श्रेणिक बाफना अपनी कविता में  उस आम आदमी का ज़िक्र बार-बार करते हैं जो तमाम तरह की विसंगतियों में घिरा हुआ है । उनके यहां उसके दुःख- दर्द भी हैं , उसके संताप भी हैं,  उसके सपने भी हैं और उसकी पीड़ाएं भी । वह उसके ठिठुरते हाथों में कविता की ऊष्मा देना चाहते हैं ताकि उस गरमाहट को महसूस कर वह स्वयं को अकेला न समझे।

दिसंबर की अलसुबह

नींद से जागते वक्त मैं देखता हूं

उन ठिठुरते हाथों को जिसमें उतर आई है रश्मियां।

यह क्रिया उनके लिए कोई नई नहीं

बल्कि यह तो उनकी रोजमर्रा ज़िंदगी का

अदद हिस्सा है ।

न जाने कब से मनुष्य को इस प्रक्रिया से गुज़रना पड़ रहा है । श्रेणिक बाफना जी की कविता में उठते सवाल हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। अमूमन इस क्रिया से हर व्यक्ति गुज़रता है मगर वह इससे उबरने में ही अपनी ज़िंदगी बिता देता है। यहां जिस क्रिया से गुज़रने की बात कवि कर रहा है वह काफी अर्थ पैदा करती है । दरअसल कविता भी एक ऐसी ही क्रिया से गुज़र कर सामने आती है ।इसकी क्रिया में कई सारे दृश्य मौजूद रहते हैं । इस क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है ।जब इस क्रिया से गुज़रने वाले व्यक्ति के भीतर कोई प्रश्न उठता है या उसकी अभिव्यक्ति में व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की आवाज़ सुनाई देती है तब वह प्रतिक्रिया उसी क्रिया का परिणाम होती है।

हमारे इतिहास में केवल

राजा -रानी के प्रसंगों का ही उल्लेख भर है

जबकि उस वक्त भी मौजूद थीं

इतिहास को निर्मित करने वाली शक्तियां

फिर क्यों नहीं होता ज़िक्र उन लोगों का

जिन्होंने अपनी मेहनत से कला की उत्कृष्टतम

चीज़ें दी है समाज को

जिनकी वजह से आज भी हमारी

अलग पहचान बरकरार है ।

एक पूरी परंपरा को नकारने, एक पूरी पीढ़ी को नज़रअंदाज़ करने और श्रम शील लोगों के श्रम की उपेक्षा करने के भाव को कविता ही उभार सकती है। कविता ही यह भी तय करती है कि आखिर वे कौन से कारण रहे जिनसे मनुष्यता का क्षरण हुआ। वे कौन सी परिस्थितियां रहीं जिन्होंने मेहनत करने वाले इंसान को उसके वाजिब अधिकार नहीं दिए। वे कौन से कारण रहे जिनसे इंसानियत को को शर्मसार किया।

श्रेणिक जी के यहां ऐसे ही सवाल इंसानियत के पक्ष में खड़े होते नज़र आते हैं । कवि अपनी रचनात्मकता के माध्यम से सीधे-सीधे कोई बात न कह कर बिंबो के ज़रिए और गहन अर्थों के ज़रिए अपनी बात कहता है । श्रेणिक जी के यहां भाषाई विविधता भी नज़र आती है और विषय का व्यापक वर्णन भी । उनकी कविताएं अनावश्यक विस्तार से बचती है और आवश्यक बात कहने से चूकती नहीं । अपने पत्रकारिता के पेशे में उनके समक्ष यकीनन कई ऐसे क़िरदार आए होंगे जिन्होंने समाज में व्याप्त ऊंच-नीच के भाव और शोषित और दलित व्यक्ति के निरंतर पतन के स्वरूप को अभिव्यक्त किया होगा, इसीलिए वे उस मनुष्य के पास जाकर अपने कविता की रचना करते रहे। उसके साथ खड़े रहकर उसकी बात को अपनी बात में कहते रहे।

इसी उहापोह में वह

तलाशने लगती है इतिहास की सही तस्वीर।

बचपन में उनकी नानी रात को सोते वक्त

राजा ,रानी, परियों की कथाएं सुनाया करती थीं

किंतु आज वह उन कथाओं के बारे में सोचती है।

ऐतिहासिक तथ्यों को जिस तरह आज जिस तरह खारिज किया जा रहा है और एक नया इतिहास लिखने की कवायद चल रही है, ऐसे में श्रेणिक जी की कविताओं के इशारे काफी कुछ कहते हैं । इतिहास जिस पर हर व्यक्ति को गर्व होना ही चाहिए, उसके कई सारे दृष्टिकोण हो सकते हैं। इतिहास की अपने तरीके से व्याख्या हो सकती है । इतिहास का देखने का अपना नज़रिया हो सकता है, मगर इतिहास को ख़ारिज कर वर्तमान की कल्पना नहीं की जा सकती और उस पर भविष्य का एक बेहतर महल नहीं खड़ा किया जा सकता है। मजबूत इमारत खड़ी करने के लिए मौजूदा नींव को हिलाना समझदारी नहीं ।

श्रेणिक बाफना की कविताएं भी कुछ ऐसे ही बात करती हैं। वे निरंतर सृजनरत हैं। अब भी साहित्यिक संगोष्ठी में अपनी मौजूदगी के ज़रिए वक्त और हालात को अपनी रचनात्मकता में ढाल रहे हैं यह सुखद है।

 आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर, बरवड रोड
रतलाम-457001
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