बदलाव की बयार और मां की कोख
संजय भट्ट
युद्ध की घोषणा होने के तुरंत बाद बदलाव की बयार चल रही थी, हर कोई अपना पुराना चौला उतार कर नया रंग चढ़ाने को आतुर था। सब कुछ बदल जाने का डर सता रहा था, अर्श से फर्श पर आने का भय मन में जम चुका था। कोई प्रतिष्ठा बचाने के लिए तो कोई प्रतिष्ठा बनाने के लिए अपनी निष्ठा को दॉव पर लगा चुका था। हर आदमी बदलाव की बयार में बहने को तैयार था। लग रहा था इस बार कोई नहीं बचेगा, पुरा का पुरा मंज़र ही बदल जाएगा। बरसों से जिसके साथ थे, जिसके हम निवाला हम प्याला थे, उन्हीं से नफरत होने लगी थी। मन कर रहा था कि जैसे भाग जाएं। जैसे की भागने की प्रथा की शुरूआत हुई डूबते जहाज से चूहों की तरह भागने वालों की होड़ लग गई। हर आदमी भागने की चर्चा करने लगा था। उसे अपना दम घुटते नज़र आ रहा था। घर का माहौल ही खराब हो चला था। सभी बड़े सोंच रहे थे, कि क्या किया जाए ? किसको कैसे रोका जाए ? कैसे अपना घर बचाया जाए? घर में जो सेंध लगी है, उसके लिए क्या उपाय किया जाए?
इतने सारे सवालों के बीच किसी ने सलाह दी, उनके तरफ का कोई अपने पाले में लिया जाए ! बस फिर क्या था, अंधेरे में एक चिंगारी मिल गई। सारी की सारी फौज यह तलाश करने में जुट गई कि वह कमजोर कड़ी कौन होगा? आखिर ”हिम्मत ए मर्दा तो मदद ए खुदा” एक कमजोर ही सही पर कड़ी मिल गई, उसे अपनी ओर मिलाया गया। सभी को युद्ध में जीतना था, किसी को हार का कड़वा रस नहीं पीना था। वे लगातार यह घोषणाएं कर रहे थे कि हमने सब के लिए सब कुछ किया है, लेकिन सामने वालों की दलीलों में भी दम था। दोनों ओर से आरोपों प्रत्यारोपों की तोपें, तीर, तलवार और गोलियों की बौछार हो रही थी। इस बीच निर्णायक ने युद्ध का नियम ही बदल दिया। कोई आमने सामने कुछ नहीं बोलेगा, बस छिप कर वार करना होगा। जैसे ही युद्ध के नियम बदले उनकी ओर से बोलने वालों के वारे न्यारे हो गए। लगातार ऑनलाइन काम करने वाले अनुभवी सैनिकों को तलाशा जाने लगा। वहां गरीबी, बेरोजगारी और अपनी टीम के लिए काम करने वाले सैनिकों की कमी नहीं थी।
सैनिकों की फौज़ बनाने और बनने को कई तैयार थे, लेकिन सेना की रसद का इंतजाम कर पाना सभी के बस की बात नहीं थी। सब को पता था कि रसद किसके पास है और कौन किसकी रसद को रोक सकता है। नियम बनाने वाले भी एक ओर मिल गए, क्या करते बैचारे रसद का सवाल उनके भी सामने था। उन्हें कहा गया कि दूसरी सेना की रसद को काटना है, ध्यान रहे कोई उनको किसी भी प्रकार की मदद नहीं करे। यदि मदद की तो उसको इस लायक बनाओ कि वह भविष्य में किसी की मदद करने के लायक नहीं रहे। इसी उधेड़बुन में रसद पहॅुंचाने वालों की तलाश होने लगी, पता ही नहीं चला कि कौन किसको रसद पहॅुचा रहा है। बस एक ही धून थी रसद रोकना है। अब इसी गलतफहमी में दूसरी सेना के स्थान पर अपनी सेना के रसद देने वालों को ही धर लिया। यह सब चल रहा था, लेकिन निर्णायक को यह भी साबित करना था कि वह किसी से मिला हुआ नहीं है। सो धर लिए गए उनके बारे में प्रचार को रोका गया।
इतना सब चल रहा था मैदान में कई तारे-सितारे, योद्धा-महायोद्धा और इन योद्धाओं को ज्ञान देने वाले ज्ञानचंदों की भी निष्ठा खरीदी जाने लगी। खरीदी बिक्री के इसदौर में सब कुछ बदल रहा था। कहीं कोई टूटे बल्ब खरीद रहा था तो कोई नई एलईडी को, लेकिन चमकेगा कौन यह किसी को पता नहीं था। बदलाव के इस नाटकीय खेल में वो सब कुछ बदल गया, जिसका अनुमान भी नहीं लगा सकते थे। अपनी निष्ठा, प्रतिष्ठा तो कई लोग बदल चुके थे, लेकिन मामला उस समय गंभीर हो गया जब एक पैदा होने वाले बच्चे ने अपने मॉं की कोख ही बदल ली। उस मॉं को कितना भरोसा था अपने मॉ होने पर लेकिन बदलाव की बयार थी और जब सब कुछ बदल रहा था, सब को लग रहा था कि यहां अपना भविष्य ही सुरक्षित नहीं है, तो उस अजन्मे को भी लगा यहां मेरा जन्म ही सुरक्षित नहीं है।