शख्सियत : नंदकिशोर जोशी ‘सलिल’, मेरा ईमान मुट्ठियां ताने इन्हीं के गीत गाता है
आशीष दशोत्तर
दुनिया बूढ़ी हो सकती है मगर कविता हमेशा जवान रहती है । कविता कभी पुरानी या नई नहीं होती। कविता कभी सुनी सुनाई नहीं होती। कविता कभी चुकती नहीं । वह समय के साथ तालमेल बनाते हुए उस वक्त तक मौजूद रहती है जब तक उसका महत्व बना रहे । उसी कविता का महत्व बना रहता है जो अपने समय के साथ आने वाले समय का भी आकलन करते हुए आगे बढ़ती है। ऐसी कविता सदैव पढ़ी जाती है। ऐसी कविता के हमेशा कई अर्थ, प्रतिध्वनियां होती हैं और ऐसी कविता हमेशा एक नई ऊर्जा प्रदान करती है।
एक लंबे समय तक हिंदी काव्य साधना से जुड़कर आम इंसानों के हक़ की आवाज़ बुलंद करते रहे कवि श्री नंदकिशोर जोशी ‘सलिल’ भी एक ऐसे ही रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी कविताओं में अपने समय की विषमताओं को उभारा। उन्होंने अपनी कविताओं को सिर्फ समय व्यतीत करने का माध्यम नहीं बनाया बल्कि उसे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से पुष्ट किया । उस कविता को दुनिया के साथ चलने की ताक़त दी। सामाजिक सरोकारों से उसे जोड़ा। व्यक्ति की विवशताओं को व्यक्त किया । व्यवस्था को ललकारा । शोषित करने वाले समाज को आईना दिखाया और शोषित हो रहे व्यक्ति के कंधे पर हाथ रखा। सलिल जी की कविताएं उनके वक्त की कविताएं ही नहीं थीं बल्कि आज की कविताएं भी हैं। उनकी कविताएं आज भी हमें उतनी ही ताज़गी का आभास करवाती है।
कब तक रहोगे यह घुटन, यह तपन
यह लूटपाट, सरेआम शोषण,
ये खुली हत्याएं
यूं आदमियों का कुत्ते की मौत मरना
फंतासियों के सहारे ही कहोगे?
ये धन्ना सेठ हैरान हैं यह देखकर कि
ग़रीब आदमियों के पैरों की एड़ियां गायब हो गई हैं
मगर पसलियों ने कर ली है
पंजे की शक्ल अख्तियार
इन मिमियाते मुर्दों में जान कहां से आ गई ?
इन्कलाबी मोर्चे पर आगे आ रहे हैं
इन जत्थेदारों के सरदार।
जो खेतों में खाद डालते हैं अपनी ज़िंदगी का
जिनका पसीना फौलाद पिघलाता है
अपनी सांसों की सारंगी पर
मेरा ईमान मुट्ठियां ताने इन्हीं के गीत गाता है ।
सलिल जी का लेखन उद्देश्यपूर्ण था ।उन्होंने अपनी रचनाओं के ज़रिए व्यवस्था पर तो चोंट की ही, साथ ही उस आम आदमी का पक्ष भी लिया जो सदैव उपेक्षा का शिकार होता है । वे सदैव उसके साथ खड़े रहे । यह कहा भी जाता है कि एक रचनाकार को सदैव प्रतिपक्ष में खड़ा होना चाहिए अर्थात वह उस आम आदमी के साथ खड़ा रहे जो तमाम तरह की मुसीबतों को झेलता है, तमाम परेशानियों का सामना करता है , हर उपेक्षा का शिकार होता है और उसे हर कदम पर एक नए संघर्ष का सामना करना पड़ता है । ऐसे में जब रचनाकार उसके संघर्ष के साथ वाबस्ता होता है तो वह उसे संभल भी प्रदान करता है और उसके जीवन से अपने लेखन की शक्ति भी प्राप्त करता है। सलिल जी उस आम आदमी से अपनी कविता को ऊर्जा देने का हुनर जानते थे । आम आदमी के पास जो शक्ति है उस शक्ति को यदि एक रचनाकार का साथ मिल जाए तो वह अपने अधिकारों के लिए मुखर हो सकती है । एक ऐसे वक्त में जब आम आदमी को हर कदम पर निराशा ही मिल रही है और उसके लिए जीवन जीना मौत से बदतर हो गया है ऐसे में सलिल जी जैसे रचनाकारों की उसके साथ पक्षधरता एक साहित्यकार के असली धर्म को निभाती नज़र आती रही।
उन लोगों के वास्ते लिखता हूं मैं
जो अपनी छोटी सी आमदनी में
ज़िंदगी की नाव बहुत मुश्किल से खेते हैं
और जो अपनी दैनिक मृत्यु पर
प्राण बच जाने के दुःख में
ईश्वर को रोज गालियां देते हैं
आम आदमी के लिए ज़िंदा रहना
अब दिलचस्पी नहीं एक लंबी सांसत है
अब उसे मौत से खौ़फ नहीं
ज़िंदा रहने से नफ़रत है।
वे न सिर्फ स्वयं इस आम आदमी के हक़ में खड़े होते हैं बल्कि हर रचनाकार से यह अपेक्षा भी रखते हैं कि वह भी जीवन के दुःख -दर्द को समझे। कविता लिखना आसान है मगर कविता में सार्थक बात कहना बहुत मुश्किल। यह सार्थक अभिव्यक्ति तभी होती है जब वह जीवन के दुःख दर्द से जुड़े । हर उस रचनाकार के सामने एक चुनौती होती है इन दुःख दर्द को समझने, उसे महसूस करने और उसे अपनी कविता में शामिल करने की । कविता में रहस्य ,रोमांच , प्रणय, विरह, श्रंगार और प्रकृति चित्रण का अपना महत्व है मगर जब हमारे सामने कई सारी समस्याएं एक चुनौती के रूप में खड़ी हो तब एक रचनाकार का दायित्व होता है कि वह इन समस्याओं को अपनी रचनाओं के ज़रिए बखूबी उठाएं। सलिल जी खुद भी अपनी रचनाओं में इसे अभिव्यक्त करते रहे और वे अपने रचनाकार साथियों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रेरित करते रहे।
लाभ-शुभ की बहियों से
ख़ून के रेले बह चले हैं ।
अब हमें तेज़ाब पीते हर आदमी को बचाना है
इन शोषित इंसानों के संघर्षों में
हमारी भागीदारी ज़रूरी है
अभी कविता को फूल पत्तियों से
बाद में सजाना है।
रचनाकार सिर्फ अपने समय की व्याख्या नहीं करता है बल्कि वह आने वाले समय के ख़तरों को भी भांपता है। उन ख़तरों से जनता को आगाह करता है। अपनी रचनाओं को वह ताक़त देता है जिससे वह रचना आने वाले वक्त में भी अपनी मौजूदगी बनाए रखे। यही एक रचना की सफलता होती है। सलिल जी की रचनाओं से गुज़रने पर यह आभास होता है कि उन्होंने अपने समय मौजूद समस्याओं को तो उन्हें अभिव्यक्त किया ही साथ ही आने वाले वक्त के ख़तरों को भी उसमें शामिल किया।
संत्रासों को जीते-मरते ,केवल ज़हर रात-दिन पीना
अपने अरमानों के चिथड़े, अपने ही हाथों से सीना,
घुटन-तपन का हवन रोज़ ही, सांसों की समिधाएं जलतीं,
एक मधुर सपना जीने को, सारी उमर दर्द में खोना।
बढ़ता भ्रष्टाचार, काले धन की मौजूदगी और उससे उपजी अव्यवस्थाओं के प्रति उन्होंने अपनी रचना में काफी पहले आगाह किया था। बढ़ती महंगाई से परेशान लोगों के साथ भी वे खड़े रहे और उसे आने वाले वक्त के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बताया । यह उनकी रचनात्मक सोच का ही परिणाम था कि उनकी रचनाएं आज भी ऐसी लगती है कि उन्हें आज के हालात में ही रचा गया हो।
काले धन की बैसाखियों के सहारे
टिका हुआ है भयानक तिलिस्म
आम आदमी इसके सामने
बहुत असहाय है, बहुत लाचार है ,
महाजनी सभ्यता की यह व्यवस्था विराट है
हम बहुत बौने हैं इसके सामने
फिर भी सीना ताने खड़े हैं सरे बाज़ार।
इस सर्वग्रासी व्यवस्था से घबरा गए हैं सभी लोग
आदमी और प्रजातंत्र के बीच
फैली हुई है भूख, बेकारी
और कमरतोड़ महंगाई के रोग।
राजनीतिक परिस्थितियों के कारण आम आदमी के जीवन में कई सारे परिवर्तन हुए। एक कवि होने के नाते सलिल जी ने इन परिवर्तनों को काफी शिद्दत उठाया है। बदलती राजनीति के साथ लोगों के जीवन स्तर में आए परिवर्तन को उन्होंने अपनी रचनाओं में शामिल किया और लोगों के भीतर आए परिवर्तन के कारण उनकी राजनीतिक समझ के विकास को भी उन्होंने रेखांकित किया।
राजनीति सिर्फ जनता को प्रभावित नहीं करती,बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों के कारण जनता के भीतर परिवर्तित होने वाले वैचारिक स्तर से राजनीति भी प्रभावित होती है । इस अंतर को बहुत मज़बूती के साथ उन्होंने अपनी रचनाओं में शामिल किया। राजनीति सोचती है कि वह आम आदमी के जीवन को तहस-नहस कर देगी तो यह उस का ख्वाब है मगर आम आदमी यदि सोच ले कि वह राजनीति की कुत्सित धारणाओं को प्रभावित कर दे तो यह संभव है । यहीं से प्रजातंत्र में प्रजा के महत्व को रेखांकित किया गया और उन्होंने अपनी कविता में इसे स्वीकारा भी।
अब हर आदमी समझने लगा है
सत्ता के चुनाव के दांव पेंच,
कुछ न कुछ कर गुज़रने को
अनपढ़ लोग भी हैं आवेश में।
कभी रिश्वतखोरी है, कभी चोर बाज़ारी
धूप और हवा फैला है भ्रष्टाचार पूरे के पूरे देश में।
हमारी नींद भी रहती है साथ अब चिंताओं के
वह सांपन सी अपनी ही स्वप्न शिशु खा जाती है ।
सुख-चैन, आराम शब्दकोश में है
यहां तो कोई घड़ी खुशी का गीत नहीं गा पाती है।
कवि बाहरी बदलाव का ज़िक्र नहीं करता। वह व्यक्ति के भीतर आए परिवर्तन का आंकलन करता है । जब व्यक्ति के भीतर खुशी का संचार होगा तभी समूचा वातावरण खुशियों से सराबोर होगा। एक रचनाकार अगर अच्छे समय की उम्मीद रखता है तो वह यह उम्मीद रखता है कि यह अच्छा समय हर व्यक्ति के भीतर उत्पन्न अच्छे विचारों और अच्छे वातावरण से आए। सिर्फ दिखावे से आया हुआ अच्छा समय सही अर्थों में अच्छा नहीं होता। वह सिर्फ एक छलावा होता है । सलिल जी ने अपनी रचनाओं में इस बाहरी दिखावे और भीतरी अनुभूति को बखूबी शामिल किया था।
खुशबू के झरनों में नहा चुकी है
दिशाएं तो क्या करूं ?
वन तो क्या, मन में भी दहक रहे हैं पलाश,
लेकिन मेरे सामने तो सवाल ये है
कि इतने साल के बाद भी
मेरे देश को है प्रजातंत्र की तलाश।
सलिल जी की कविताओं में शब्दों के पीछे एक पूरा अर्थ आकार लेता हुआ चलता है ।उनकी कविता में ये अर्थ कई सारे प्रश्नों को खड़े करता है और पूरी की पूरी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर देता है। उनकी खजुराहो कविता इस मायने में कई सारे संदर्भों को सामने रखती है । पत्थरों के ज़रिए कविता की परिभाषा, कविताओं के ज़रिए मौन होते शब्दों पर प्रश्न चिन्ह और शब्दों के माध्यम से अर्थो को नए रूप देने की साज़िश, इस कविता के जरिए अभिव्यक्त होती है । वह इसमें तथाकथित कलाविदों को भी कठघरे में खड़ा करते हैं और शब्दों को ग़लत अर्थ प्रदान करने वाले विद्वानों को भी नहीं छोड़ते।
पत्थर शब्द बने और शब्दों ने चुप्पी साध ली।
कुछ शिला खंडों के पल्ले
कलाविदों ने बांध दिए कुछ गोपन अर्थ
सदियां गुज़र गईं, दुनिया देखते नहीं अघाती है
नीले आकाश की आंखों में
आज भी ताज़गी भर आती है ।
यह कविता आज भी पढ़ी जाती है ।
शहराती बस्तियों में फैलता गया जहर और-और,
अब आदमी की प्रतिबद्धता
आदमी को खाने में है
पर इन पत्थरों का ईमान
आज भी वैसा है जैसा पहले था।
सलिल जी बहुत मौन होकर अपनी साधना करते रहे । वे साहित्य के एक ऐसे साथी रहे जिन्होंने बहुत शांत भाव से रचनाएं लिखीं। उसी शांत भाव से वे पढ़ते भी रहे और वही शांत उनकी प्रवृत्ति भी रही । इस मौन के पीछे भी एक मुखरता थी । उनकी शांत वृत्ति के पीछे भी एक तीखापन था जो उनकी रचना में सामने आता रहा । उन्होंने हर इंसान को ताक़त देने वाली रचना रची । उनकी कविताएं कम रहीं मगर वे सीधी जनता से बात करने वाली रहीं। जनता को प्रेरित करने वाली रहीं और जनपक्षधरता को मुखर करती हुई रहीं।
चंद पूंजीपतियों की जानलेवा तिकड़में
भड़भूजे की भाड़ है,
जिसमें चने की तरह सिक रही है
मेरे देश की जनता
अब सीधी चोंट की ज़रूरत है ।
यहां कवि जनता को आगाह भी करता है और उसे साहस भी प्रदान करता है। विषमताओं में घिरे मनुष्य को असहाय बनाने वाली ताक़तों को बेनकाब भी करता है तो मनुष्य का आव्हान भी करता है। रचनाकार का यह दायित्व भी होता है कि वह सिर्फ परिस्थितियों का वर्णन ही नहीं करे बल्कि उनसे मुकाबला करने का मार्ग भी प्रशस्त करे। सलिल जी का यह आह्वान उनके भीतर चल रहे हो उस द्वंद्व को अभिव्यक्त करता है जो सामाजिक विषमताओं से उत्पन्न होता है।
आंखों में उग आए कांटे
पलकें तो बेमौत मर रही।
घुटते देख जागरण का दम
नींद कहीं खुदकुशी कर रही।
दिनभर सत सूरज ने चूसा
और रात को चैन नहीं है ,
माटी की इन दीवारों को
हमदर्दी में पड़ा है रोना।
इंसान को बदतर बनाए जाने की साज़िशों के बीच जब सलिल जी जैसा व्यक्ति अपनी रचनाएं लिखता है तो न सिर्फ साहित्य संपन्न होता है बल्कि वह वैचारिक सोच भी संपन्न होती है जो इस समाज से तमाम तरह के फ़र्क को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है । सलिल जी की रचनाएं आज भी प्रेरित करती हैं, उनकी मौजूदगी का आभास कराती है।
12/2, कोमल नगर
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