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महिला सशक्तिकरण का प्रतीक  सावित्री फुले

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भारतीय संस्कृति में नारीवाद /फेमिनिज्म ,सतही न होकर संस्कारों की जड़ों से जुड़कर नारी अधिकारों के सशक्तिकरण का विशाल वृक्ष दिखलाई देता है। भारत में वैदिक काल से ही स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का उल्लेख मिलता है जिसका प्रमाण है मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषी महिलाएं ,जो भारतीय नारीवाद / फेमिनिज्म का उत्कृष्ट उदाहरण है।

 श्वेता नागर

फेमिनिज्म यानी नारीवाद ,  वर्तमान समय में यह शब्द अपनी सकरामकता खोता जा रहा है क्योंकि नारी स्वतन्त्रता से कहीं अधिक अब यह नारी स्वच्छंदता की ओर उन्मुख होता दिखाई दे रहा है जो कहीं न कहीं समाज में नारी अधिकारों के लिए सार्थक प्रयास करने के बजाय एक नकारात्मक भूमिका निभा रहा है। भारतीय संस्कृति में नारीवाद /फेमिनिज्म ,सतही न होकर संस्कारों की जड़ों से जुड़कर नारी अधिकारों के सशक्तिकरण का विशाल वृक्ष दिखलाई देता है। भारत में वैदिक काल से ही स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का उल्लेख मिलता है जिसका प्रमाण है मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषी महिलाएं ,जो भारतीय नारीवाद / फेमिनिज्म का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन यह भी सत्य है कि भारतीय समाज में धीरे- धीरे जातिवाद और अन्य बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव से कहीं न कहीं भारतीय समाज में  समानता की कड़ी टूटती दिखाई दी और इसका सबसे बुरा प्रभाव नारी की स्थिति और दशा पर दिखाई दिया।

भारतीय संस्कृति जो न केवल नारी को पुरुष के समान अधिकार व अवसर की बात करती है बल्कि पुरुषों से अधिक अधिकार व अवसर की पैरवी करती है वहाँ सामाजिक विषमता के कारण ऐसी दुःखद स्थिति भी बनी जहाँ नारी को अपने मूलभूत अधिकारों के लिए समाज से संघर्ष करना पड़ा। इसी संघर्ष -पथ पर दिनमान  की तरह उभरी सावित्री बाई फुले। भारतीय समाज में नारी अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली सावित्री बाई फुले का नाम  भारतीय नारीवाद /फेमिनिज्म का पर्याय था।

3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले नायगाँव में सावित्री बाई फुले का जन्म हुआ। मात्र 9 वर्ष की आयु में उनका विवाह ज्योतिबा फुले के साथ हुआ जो कि प्रख्यात समाज सुधारक थे। ज्योतिबा फुले ने ही अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को शिक्षित किया। और इन्हीं सावित्री बाई फुले को देश की प्रथम महिला शिक्षक होने का गौरव भी प्राप्त है। 1848 में पुणे में अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ विभिन्न जातियों की 9 छात्राओं के साथ मिलकर विद्यालय की स्थापना की। सावित्री बाई फुले ने समाज में महिला शिक्षा के अलावा शिशु हत्या रोकने के लिए भी अभियान चलाया। नवजात कन्या शिशु के लिए आश्रम तक खोला। 24 सितंबर 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले द्वारा की गई।

समाज में कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाना यानी काँटों से भरी राह पर चलने के समान होता है। सामाजिक उला हना और विरोध एक ऐसी बंजर भूमि के समान होता है जो नवीन और प्रगतिशील विचारों और कार्यों को पल्लवित और पुष्पित नहीं होने देती है । कुछ ऐसी ही विषम परिस्थितियों से लड़कर सावित्री बाई फुले ने विधवा पुनर्विवाह, , नारी शिक्षा और दलितों के उत्थान के लिए कार्य किया। कन्याओं को पढ़ाने के लिए जब वे स्कूल जाती थी तब उनके विरोधी उन पर पत्थर फेंकते, गंदगी फेक देते थे। इसलिए सावित्रीबाई अपने  साथ हमेशा  एक थैले में एक साडी  लेकर चलती थी। और स्कूल पहुंचकर गंदी कर दी गयी साडी बदल लेती थी। यह प्रसंग सावित्री बाई फुले की समाज सेवा के प्रति उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति  को दर्शाता है।

किसी लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता ने नारी की अभिव्यक्ति की आज़ादी के संबंध में कहा है-

“जब हम बोलते हैं, हमें डर लगता है कि हमारी आवाज को दबा दिया जायेगा। मगर हम चुप रहते तब भी हम डरते हैं इसलिए बोलना ही बेहतर है। ”

सावित्री बाई फुले ने भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति अपने काव्य के माध्यम से की। जिसमें जीवन दर्शन, समाज में व्याप्त विषमता और कुरीतियों के विरुद्ध मुखर अभिव्यक्ति थी । ‘काव्य फुले’ और ‘बावन कशी सुबोध रत्नाकर ‘उनके प्रसिद्ध ग्रंथ है।
वहीं एक प्रेरक बाल गीत जो कि सावित्री बाई फुले ने लिखा था  ,जिसमें बच्चों को समय के सदुपयोग की प्रेरणा दी गयी है –
   “काम जो आज करना है उसे करें तत्काल।
   दोपहर में जो करना है उसे अभी करे,
   पलभर के बाद सारा कार्य इसी पल कर लो।
   काम पूरा हुआ या नहीं न पूछे मौत आने से पूर्व कभी । “

और इन्हीं पंक्तियों के अनुरूप सावित्री बाई फुले ने अपने जीवन का पल- पल अपने काम यानी समाज की सेवा को समर्पित कर दिया जिसका प्रमाण है 10 मार्च 1897 को प्लेग से पीड़ित लोगों की सेवा करते हुए वे स्वयं भी प्लेग से पीड़ित हो गयी थी और यही उनकी मृत्यु का कारण बना। लेकिन सावित्री बाई फुले अपने पवित्र कार्यों के कारण सदैव अमर रहेंगी।

 श्वेता नागर

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