व्यंग्य : वे ‘मग़रूर’ हैं और आप ‘मजबूर’
“उनके बिना आप अपना काम नहीं चला सकते। वे ‘मग़रूर’ हो चुकी हैं और आप ‘मजबूर’। जाने-अनजाने में ही वे इस क़दर ‘फेमस’ हो चुकी हैं कि आप इनके आगे ‘बेबस’ हैं । ये बेधड़क आपकी ज़िंदगी में घुस गई हैं।”
आशीष दशोत्तर
कभी अपना जीवन खंगाल कर देखें, आपको कई ऐसी अप्रासंगिक चीजें मिल जाएंगीं जिनकी आपके जीवन में प्रासंगिकता बन गई है । उनके बिना आप अपना काम नहीं चला सकते। वे ‘मग़रूर’ हो चुकी हैं और आप ‘मजबूर’। जाने-अनजाने में ही वे इस क़दर ‘फेमस’ हो चुकी हैं कि आप इनके आगे ‘बेबस’ हैं । ये बेधड़क आपकी ज़िंदगी में घुस गई हैं।
आपके चाहने न चाहने, मानने न मानने से कोई फर्क नहीं पड़ता। ये रुकती नहीं ।जैसे आपके जीवन में कई ऐसे शब्द अचानक प्रवेश करते हैं और अपना स्थाई मुकाम हासिल कर लेते हैं। फिर कोई चाह कर भी इन्हें निकाल नहीं सकता । आप भले ही अपना ज्ञान बघेरें, खुद की विद्वता की दुहाई दें मगर आपकी एक नहीं चलेगी। आप ऐसे शब्दों से परहेज करना भी चाहें तो आप पर कई सारे आरोप लग सकते हैं। जैसे आपको अव्यावहारिक बताया जाएगा। यह कहा जाएगा,अपना ज्ञान अपने पास रखो, यहां तो ऐसा ही होगा। कोई कहेगा, ज़रा खुद को बदलो। समय के साथ चलना भी सीखो। ऐसे ही रहे तो किसी काम के नहीं रहोगे।
यकीन न हो तो कभी अपने घर की शादी में छपने वाली पत्रिका में बाल मनुहार- ‘ मेले चाचा की छादी में जलूल- जलूल आना’ हटाकर देखिए। घरवालों की नज़रों में आप निष्ठुरीय निशाने पर आ जाएंगे। आप भले ही कहते रहें कि,अपने घर में तो कोई बच्चा है ही नहीं फिर किसी तरफ़ से बाल मनुहार हो रही है? लेकिन आपकी कोई नहीं सुनेगा। ‘सब लिखते हैं तो हम भी लिखेंगे’, ‘अच्छा थोड़ी लगता है’ , ऐसी कई सारी नसीहतों से आप को दबा दिया जाएगा और आपको झक मार कर यह सब मानना पड़ेगा।
वैवाहिक विज्ञापन में ‘अविवाहित’ लिखना भी ज़रूरी है। प्रथम बार विवाह करने वाले को भी यह लिखना पड़ता है और कई बार विवाह करने वाले को भी। न लिखा गया तो लोग शक करेंगे। कुछ लोग ‘अविवाहित’ का लाभ लेते हुए विवाह उपरांत भी विवाह कर लिया करते हैं।
शादी ही क्या आप कहीं भी इन ‘अप्रासंगिकों’ की ‘प्रासंगिकता’ से टकरा नहीं कर सकते। आप दुनिया भर में भले ही अपनी लेखनशैली का लोहा मनवा चुके हों मगर अपने घर में एक ढंग की चिट्ठी लिखने लायक नहीं हैं। कभी घर की शोक पत्रिका ही लिख कर देख लेना, परिवार वाले पचास गलतियां बता देंगे। साथ ही यह नसीहत भी देंगे कि तुम्हारी सोच-समझ अपने पास रखो और यहां ‘ढंग’ से लिखो। अभी एक जगह शोक संदेश देना था। शोक संदेश दुर्भाग्य से एक विद्वान से बनवा लिया गया। उसमें दस जगह संशोधन करने पड़े। शोक संदेश में निधन के आगे ‘कोरोना से नहीं’ न लिखने पर विद्वान की लू उतार दी गई। विद्वान ने कहा, अब कोरोना है ही नहीं इसलिए इसकी क्या ज़रूरत? पर लोग कहां मानने वाले थे। कहने लगे, आजकल यह लिखना ज़रूरी हो गया है। इससे ‘डेथ जस्टिफाई’ होती है। ‘घाटा-नुक्ता’ बढ़िया होता है। सब बेख़ौफ़ जीमने आते हैं।
घर आए मेहमान को चाय-वाय, नाश्ते-वाश्ते, खाने-वाने का पूछना ज़रूरी है। आश्चर्य अब तक किसी ने वाय, वाश्ते, वाने का स्वाद नहीं चखा है। इनके न होने पर भी होना इनका महत्व साबित करता है। पता नहीं ये ‘अप्रासंगिक’ कब वास्तव में अप्रासंगिक होंगे। बहरहाल,सिर्फ शब्द ही नहीं कुछ अप्रासंगिक सशरीर भी आपको घेरे हुए हैं, उससे भी निजात मिलना मुश्किल है।
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