बात-क़िताब की : तुम लिखो या मत लिखो मैं तो लिखूंगा

आज के दौर में लिखना वैसे भी बहुत दूभर है। ऐसे में आंखों में आंख डालकर लिखना और भी ज़्यादा मुश्किल। लेकिन उम्र की इस सीढ़ी पर पहुंच कर भी एक रचनाकार सितमगरों की आंखों में आंख डालकर संवाद कर सकता है और चुनौती दे सकता है कि वक़्त हर बार आतताइयों का साथ नहीं देता है।

आशीष दशोत्तर

ज़िद, जुनून और जज़्बा ही एक व्यक्ति को जीवंत रखता है । इस जीवंत होने में उसकी रचनात्मकता और सक्रियता का बहुत बड़ा योगदान होता है। एक सृजनात्मक व्यक्ति अपने सृजन से न सिर्फ़ समाज को कुछ देता है बल्कि वह अपने भीतर ऊर्जा भी उत्पन्न करता है। महान साहित्यकारों के जीवन से अगर हम गुज़रें तो पता चलता है कि उन्हें अपनी रचनाओं से, रचनात्मक वातावरण से, सृजनात्मक सामीप्य और पुस्तकों के पठन-पाठन से जो ऊर्जा मिली उसी ने उन्हें मज़बूत बनाया और रचनात्मक भी।

जीवन से हारना, थकना, निराश होना और ख़ामोश हो जाना एक रचनाकार के जीवन का हिस्सा कदापि नहीं हो सकता । इस बात को समझने के लिए हमें वरिष्ठ कवि श्री दुर्गा प्रसाद झाला की कविताओं से गुज़रना होगा।  उम्र के नौ दशक पार कर चुके और बीसियों किताबें की रचना कर चुके श्री झाला की लेखनी अब भी निरंतर चल रही है। उसी शिद्दत से वे आज भी प्रकाशित हो रहे हैं और वैचारिकता के धरातल पर आज भी दृढ़ बने हुए हैं। यह किसी भी रचनाकार के लिए प्रेरणादायक है और नए रचनाकारों के लिए तो एक मिसाल। उम्र के नौ दशक बाद भी निरंतर अपने सामने उपस्थित होते सवालों से टकराना, हालात से जूझना और परिस्थितियों की प्रतिकूलताओं को अपने शब्दों से जवाब देने में श्री झाला जी बहुत महत्वपूर्ण कवि प्रतीत होते हैं। उनके जुनून के हद इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-

तुम लिखो या मत लिखो
मैं तो लिखूंगा
बात जो अपनी उसे
कह कर रहूंगा ।
चाहे खट्टी हो या मीठी
लिख रहा हूं एक चिट्ठी
यह नहीं कागज़ , नदी है
बोलती इसमें सदी है ,
यह सदा बहती रही है
नहीं इसकी हद बंधी है ,
इसके भीतर और बाहर
छलछलाती ज़िन्दगी है।

हाल ही में प्रकाशित श्री झाला के काव्य संग्रह ‘सूरज का हरकारा’  की कविताएं बहुत स्वाभाविक कविताएं हैं । ये कविताएं ऐसी हैं जो सीधे आपको छूती हैं । आपके साथ चलती हैं और आपके भीतर उतरती जाती हैं । इन कविताओं में कहीं कोई दुराव – छुपाव नहीं है । कहीं कोई दुरूहता नहीं है और कहीं किसी तरह की उलझन भी नहीं है।  झाला जी का यह मानना है कि उनकी कविता सिर्फ़ कविता नहीं है , कविता से इतर भी बहुत कुछ है।

मैं कविता नहीं
एक नई सृष्टि रच रहा हूं ।
मैं कविता नहीं
एक नया जीवन रच रहा हूं ।
मैं कविता नहीं
तुम्हारा प्रेम रच रहा हूं ।
मैं कविता नहीं
प्राणों का राग रच रहा हूं ।
मैं कविता नहीं
मुक्ति का संग्राम रच रहा हूं ।
मैं कविता नहीं
भूखे की रोटी रच रहा हूं ।
मैं कविता नहीं
अपने आप को रच रहा हूं।

कवि की यही चिंता उसे सदैव युवा बनाए रखती है । एक कविता कवि को भी रचती है और जब कवि इस बात को महसूस कर लेता है कि वह कविता नहीं रच रहा बल्कि कविता उसे रच रही है तो उसकी कविता जन सामान्य की कविता हो जाती है । यह दो तरफा संवाद है । रॉबर्ट ब्राउनिंग अपनी कविता में कहते भी हैं कि ,’अपने सामने को देखना और उसे अपने भीतर उतार लेना ठीक वैसा ही है जैसा आपके सामने वाला आपको अपने भीतर उतार ले ।’ झाला जी की कविताएं भी इस तरह आपको अपने साथ दिए चलती है जैसे वे आपको अपने साथ लेकर चलते हैं ।
उनकी कविता निराशा का वातावरण पैदा नहीं करती बल्कि एक उम्मीद जगाती है और यह भी सिखाती है कि किसी भी सूरत में पराजय स्वीकारी नहीं जा सकती । वे कहते हैं-

मैं आऊंगा मगर इस तरह नहीं
जैसे हारे हुए लोग आते हैं पस्त हिम्मत होकर ,
मैं आऊंगा मगर इस तरह नहीं
जैसे चिड़िया आती है बाज से डर कर
अपने घोंसले में ।
मैं आऊंगा मगर इस तरह नहीं
जैसे शिकारी आता है
किसी हिरनी की लाश लेकर ।
मैं आऊंगा लेकिन इस तरह नहीं
जैसे कोई थका हारा राहगीर
मंज़िल पर पहुंचे बिना आ जाता है अपने घर।
मैं आऊंगा इस तरह
जैसे कोई योद्धा जय माल पहन कर
आता है अपने लोगों के बीच।

कवि की यही जिजीविषा उसे मूल्यवान भी बनाती है और सामर्थ्यवान भी । आज के दौर में लिखना वैसे भी बहुत दूभर है । ऐसे में आंखों में आंख डालकर लिखना और भी ज़्यादा मुश्किल । लेकिन उम्र की इस सीढ़ी पर पहुंच कर भी एक रचनाकार सितमगरों की आंखों में आंख डालकर संवाद कर सकता है और चुनौती दे सकता है कि वक़्त हर बार आतताइयों का साथ नहीं देता है।

समय!
डरो मत
अभी बहुत सारे आदमी
ऐसे बचे हैं
जो आदमी के भेस में छिपे
हैवानों से लड़ रहे हैं
इतना निराश होने की
ज़रूरत नहीं है।

कवि ऐसा इसलिए कह रहा है कि उसे यकीन है कि बुराई अधिक देर तक नहीं रहती । उसे एक ने एक दिन ख़त्म होना ही है । ज़ुल्म को कभी न कभी सर झुकाना ही है । आज अगर दौर बहुत बुरा है तो आने वाले वक़्त में बेहतर दौर भी आएगा ।

विश्वास रखो
सूरज हमेशा के लिए डूबा नहीं है ,
कल फिर उगेगा
चिड़ियाएं उसके स्वागत में
गीत जाएंगी
एक आकाश परी उतरेगी धरती पर
हरे-भरे वृक्ष उसको
अपनी डाली पर झुलाएंगे
विश्वास रखो
तुम्हारी उदासी भी दूर होगी।

श्री झाला जी के यहां विषयों की कमी नहीं और न ही अभिव्यक्ति की। उनका गहन अनुभव उनकी हर कविता में झलकता है। वे हर विषय पर भी शिद्दत से कविताएं लिखते हैं। जीवन और मृत्यु जैसे विषय पर भी वे अपने सामयिक संदर्भ में बात कहते हैं –

जो जीवन जीते हैं
उनके सपने कभी मरते नहीं हैं
जो जीवन जीते हैं
वह हमेशा नदी से गतिशील रहते हैं
जो जीवन जीते हैं
वह प्यार की महक से
हमेशा महकते रहते हैं ,
जो जीवन जीते हैं
मृत्यु से कभी डरते नहीं हैं।

कवि जानता है कि बड़प्पन बड़ा होने में नहीं, छोटा होने में है। यही एक रचनाकार की विनम्रता और उसकी सफलता का परिचायक होता है कि वह बड़ा होकर भी स्वयं को छोटा बताए और समाज को यह संदेश दे कि फलदार डाली ही झुका करती है । ज्ञानवान व्यक्ति ही विनम्र होता है और जो अपना अहंकार और अपने पद, प्रतिष्ठा के मोह को छोड़ देता है वही आम आदमी के जीवन से जुड़ता है और समाज के सामने अपनी बात रख पाता है । इस भाव से रखी गई बात ही समाज को अपनी बात प्रतीत होती है।

मैं छोटा आदमी हूं
छोटे-छोटे सपने देखता रहता हूं।
मैं छोटा आदमी हूं
छोटों की खुशी में ख़ुश रहना चाहता हूं ।
मैं प्रेम करना चाहता हूं
उन छोटे लोगों से
जिनसे कोई प्रेम नहीं करता
मैं जूझना चाहता हूं
अपनी छोटी-मोटी कमजोरी से
ताकि छोटों के हक़ की लड़ाई
पूरी ताक़त से लड़ सकूं।

यहां झाला जी की काव्य ख़ूबी देखिए कि वे छोटा बनना चाहते हैं इसलिए ताकि हर छोटे के साथ क़दम से क़दम मिलाकर संघर्ष कर सकें और उसे उसका हक़ दिला सकें । एक रचनाकार इसी तरह तो पूरे समाज को व्यापक बनाने का प्रयास करता है।

संग्रह की हर कविता एक नयापन लिए हुए है और बहुत सलीके से अपनी बात कहती है। इतने वरिष्ठ रचनाकार का सक्रिय रहना हमारे लिए उम्मीदें जगाता है । झाला जी कहते भी हैं –
हम आदमी हैं
इसलिए हर रात में
उजाले के गीत लिखते हैं ।
हर आह में
विद्रोह सा गरजते हैं ।
हम कभी झूठ का
व्यापार नहीं करते हैं ।
हम आदमी हैं
इसलिए आदमी की लाज रखते हैं।

झाला जी का यह संग्रह सदैव की तरह नई उम्मीदें जगाता है। मन में नया विश्वास पैदा करता है और समाज के सामने यह बात मज़बूती से रखता है कि एक रचनाकार पूरे समाज की भलाई के लिए , उसके उत्थान के लिए , हर परिस्थिति में साथ खड़ा है और अपनी ऊर्जा से पूरी मनुष्यता को ऊर्जा प्रदान कर रहा है।

समीक्षक – 12/2, कोमल नगर, बरवड़ रोड, रतलाम (म.प्र.)
मो.9827084966

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सूरज का हरकारा
कवि – दुर्गा प्रसाद झाला
प्रकाशक – आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल
मूल्य – 280/-

सम्पर्क :
कवि-सृजन, 19 स्टेशन रोड, शाजापुर (म.प्र.)

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