लिव इन और सहवास एक ही बात : खुलापन खयाली होते-होते जिस्मानी हो जाए तो बेहद खतरनाक मोड़ पर ज़िंदगी खत्म

⚫ त्रिभुवनेश भारद्वाज

⚫ “सहवास” के लिए आयु और एक जबाबदार परम्परा विवाह का संस्थापन किया किया, ताकि समाज विकृत न हो ।जिन शहरों ने रात और दिन में अंतर खत्म किया है वो सारे शहर एक भयंकर बदबू को भी ढो रहे हैं जो आने वाले कल के भारत को सही मायने में भारत नहीं रहने देगी।खुलापन खयाली होते होते जिस्मानी हो जाए तो बेहद खतरनाक मोड़ पर ज़िंदगी खत्म होती है। लगता है धीरे धीरे भारत मर रहा है, पश्चिम मुखरित हो रहा है। यह रवायत भारत की उस गौरवमयी संस्कृति को खा रही है, जो हमें संसार में एक मूल्यों पर जीने वाले शिखर राष्ट्र के रूप में और देशों से अलग करता था। ⚫

लिव इन और सहवास एक ही बात है। अंग्रेजी में जिस बात की इजाजत दे सकते हैं, हिंदी में समझने पर आपत्ति हो सकती है। हमारे देश में “सहवास” के लिए आयु और एक जबाबदार परम्परा विवाह का संस्थापन किया किया, ताकि समाज विकृत न हो ।जिन शहरों ने रात और दिन में अंतर खत्म किया है वो सारे शहर एक भयंकर बदबू को भी ढो रहे हैं जो आने वाले कल के भारत को सही मायने में भारत नहीं रहने देगी।खुलापन खयाली होते होते जिस्मानी हो जाए तो बेहद खतरनाक मोड़ पर ज़िंदगी खत्म होती है। ये फ्रीज, टुकड़े सब उसके ही आगे के चरण है।

कितनी ही बार हो चुका जिनका देह मिलन संस्कार

भारत में आज “लिव इन” कल्चर की पैरवी करने वाले कान में बाली, बाजू पर टैटू और तकरीबन वस्त्रहीन लोगों की संख्या में इजाफा हुआ है। संस्कृति और संस्कार के नाम पर घुप्प अंधेरें वाले शहरों में हजारों की संख्या में ऐसे जोड़े दिखाई पड़ेंगे जिनका देह मिलन संस्कार कितनी ही बार हो चुका है और कौमार्य या वर्जिनिटी जैसे बात को दकियानूसी कहते मजाक बनाते हैं।

सांस्कृतिक विनाश में अस्मिता और लाखों साल में स्थापित मर्यादा हो रही तार तार

पश्चिम का चमकता विकास युवाओं के लिए आकर्षण का केंद्र बना और इस आकर्षण की तह में सांस्कृतिक विनाश हमारी अस्मिता और लाखों साल में स्थापित मर्यादाओं को तार तार कर रहा है। उच्च शिक्षा को प्रगति का जरिया बनाकर लाखों युवक युवतियां घर की दहलीज लांघकर सपनों के संसार में प्रविष्ट हुए हैं। इनमें केवल वही कुमार्ग से बचे हैं,जिन्हें अपनी स्वाधीनता का सदुपयोग करके माता पिता के गर्व का आसमान बनाना है, उन्हें छोड़ दें तो अधिकांश युवतियाँ सजातीय जीवन बन्धन और महिलाओं की सुरक्षा के लिए समाज द्वारा निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन करने से कोई गुरेज नहीं करती।

इसे नग्नता नहीं तो और क्या कहेंगे ?

अभी बॉलीवुड का एक केम्पेन देह को प्रतिबंधों से मुक्त करने की पैरवी करने के लिए चलाया जा रहा है और कुंवारी माताओं को सगर्व सदस्यता दे रहा है ।इसे नग्नता नहीं तो और क्या कहेंगे।स्वाधीनता के नाम पर नाइट क्लब, हल्का नशा, सिगरेट सुलगते हुए अर्धनग्न स्थिति में देर रात पुरुष मित्रों के साथ सड़कों पर घूमने वाली युवतियां हमारी सीताओं का सम्मान नहीं करती और धीरे धीरे देह रंजन और अशालीन आनन्द के भंवर में बुरी तरह डूब जाती है और खो देती है महिला का स्वाभिमान और वो अस्मिता जिसे “लाज”कहा जाता है।

हम जितना स्वीकारते गए उतनी गन्दगी बनाने लगी जगह

ये हमारा परिचय नहीं। तरक्की ने महिला पुरुष के अंतर को समाप्त किया है और इस हद तक समाप्त किया है कि आज कई युवतियां युवकों की तरह रहने लगी हैं। हम जितना स्वीकारते गए उतनी गन्दगी सामाजिक स्वीकृति लेकर जगह बनाने लगी ।सजातीय विवाह की विवशता समाप्त करने में इन्हीं पश्चिमी संस्कृति को अपनाए घूमती परियों का ज्यादा योगदान है।

सम्प्रदाय की सीमाएं विवाह बंधन के लिए बेमानी

सजातीय बन्धन टूटे तो कम नुकसान हुआ लेकिन सम्प्रदाय की सीमाएं विवाह बंधन के लिए बेमानी हुई तो समाज को भारी नुकसान हुआ। प्रेम एक अवधूत विषय है जो आज के समय किसी देह में उतरना असम्भव है, जो प्रेम कहा जाता है वो विशुद्ध वासना है। प्रेम तो उपासना है जिसमें चाहत ईश्वर की पूजा की पवित्रता धारण कर लेती है और प्राप्ति के बजाए न्यौछावर करने को अपनी पूजा की सार्थकता का ध्येय बना लेता है, वही प्रेमी हो सकता है। हाथ पैर काटने वाला किसी का प्रेमी हो सकता है क्या?

लगता है धीरे धीरे भारत मर रहा है, मुखरित हो रहा पश्चिम

मुम्बई दिल्ली जैसे महानगरों में समलैंगिकों का जमावड़ा होने लगा है और बेशर्मी “गे” शब्द की वैधानिकता की लड़ाई करने का परचम उठा रही है। लगता है धीरे धीरे भारत मर रहा है, पश्चिम मुखरित हो रहा है। प्रेमी जोड़े का शादी किए बिना लंबे समय तक एक घर में साथ रहना लिव-इन रिलेशनशिप कहलाता है। लिव-इन रिलेशनशिप की कोई कानूनी परिभाषा अलग से कहीं नहीं लिखी गई है। आसान भाषा में इसे दो व्यस्कों (Who is eligible for live-in relationship?) का अपनी मर्जी से बिना शादी किए एक छत के नीचे साथ रहना कह सकते हैं। यह रवायत भारत की उस गौरवमयी संस्कृति को खा रही है जो हमें संसार में एक मूल्यों पर जीने वाले शिखर राष्ट्र के रूप में और देशों से अलग करता था।

⚫ त्रिभुवनेश भारद्वाज

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