सामाजिक सरोकार : … और वहां कर दिया दादी की अस्थियों का विसर्जन
⚫ रेनू अग्रवाल ‘रेणु’
⚫ आखिर दादी का इतना बड़ा परिवार होते हुए भी कोई अस्थि विसर्जन को आगे नहीं आया, न कोई बेटा, न कोई पोता, न कोई नाती,…..पंडित को दस गुना दक्षिणा देकर पास के एक नाले में ही दादी का अस्थि विसर्जन करवा दिया गया। रमेश की किसी के आगे एक न चली। सब काम खत्म होने पर रमेश वापस अपनी माँ के पास गया। रमेश ने कुछ सोचा और कहा, “तुम बिलकुल सही कह रही हो माँ, इंसान जीते-जी किसी को खुशी नहीं दे पाता और मरने के बाद दिखावे के लिए करोड़ो रुपए खर्च करके समाज को खिलाता है।” ⚫
“बेटा रमेश!…..मुझे तुमसे कुछ कहना है!” पुष्पा कुछ दुखी मन से अपने बेटे से बोली।
“रक जाओ माँ, पंडित जी को दक्षिणा देकर अभी आता हूँ।” रमेश ने अपनी माँ को उम्मीद बँधाते हुए कहा। रमेश की दादी का निधन अभी कुछ ही दिन पहले हुआ था। घर रिश्तेदारों से भरा पड़ा था। सभी दादी को याद कर-करके उनकी बातें कर रहे थे। बहुत बड़ा परिवार था उनका, पाँच बेटे-बहुएँ, तीन बेटियाँ और दमाद, उनके पंद्रह बच्चे। सभी बेटे अच्छे पढ़े-लिखे थे। कोई डॉ. कोई इंजीनियर तो कोई टीचर भी थे। रमेश के पिता एक डॉ. थे और अमरीका में ही रहते थे। प्राय: सभी बेटे बाहर ही रहते थे। इसलिए दादी बेटियों के यहाँ ही गुजर-बसर करती थी। सभी बेटे हर महीने समय से खर्च के लिए पैसे भेज दिया करते थे। दादी बार-बार बेटों को याद कर रोती रहती थी। जब तक जिंदा थी कोई बेटा मिलने नहीं आ पाया और अब जब वो नहीं है तो सारे बेटे मिलकर उनका अंतिम क्रियाकर्म धूमधाम से करना चाहते थे। आज दादी को गए पूरे तीन दिन हो चुके थे।
जैसे-तैसे सबके दबाव में आकर रमेश के पिताजी ने दादी को मुखाग्नि तो दे दी परंतु जब आज तीन दिन बाद अस्थि चुनने का अवसर आया तो सभी पीछे हट रहे थे। कोई भी श्मशान घाट जाना नहीं चाहता था। काफी़ देर तक जब कोई नहीं निकला तो रमेश बौखलाकर बोला, “अरे जीते-जी तो दादी को कष्ट देते रहे आप लोग, कम-से-कम मरने के बाद तो कष्ट मत दो। अंतिम विधि-विधान कर के उन्हें मुक्ति तो दे दो।”
“देखो रमेश, अगर तुम कुछ नहीं जानते तो चुप रहो। हम में से कोई नहीं जाएगा, अस्थि चुनने।” रमेश के छोटे चाचा चिल्लाते हुए बोले।
“मगर क्यों?…वो आप लोगों की माँ थीं, उन्होने आप सबको जन्म दिया था। ऐसा व्यवहार करेंगे आप लोग उनके साथ?” रमेश रोते हुए बोला।
“तुम्हें पता है जो उनकी अस्थि लेकर आएगा या गंगा में भी प्रवाहित करेगा, उस पर बहुत भारी पड़ेेगा। पता नहीं क्या संकट आ पड़े सिर पर?” रमेश की बुआ बोली।
“हाँ, तभी तो हमने दस गुना दक्षिणा देने की बात कहकर पंडित को बुलाया है। सारे क्रियाकर्म यही करेंगे।” रमेश के चाचा ने कहा।
“मगर ऐसा क्या कारण है कि आप लोग दादी का कोई क्रियाकर्म नहीं करना चाहते?” रमेश ने पूछा
“पता है, तुम्हारी दादी डायन थी, मनहूस थी। तभी तो अपने पति को खा गई। ऐसा पूरे शहर में लोग कहते हैं । कई कहानियाँ मशहूर हैं उनके बारे में। ” रमेश की चाची ने डराते हुए कहा।
रमेश आधुनिक ख्यालों का व्यक्ति था। इन सब अंधविश्वासों पर उसे विश्वास नहीं था। उसने सबको बहुत समझाने की कोशिश की परंतु किसी ने उसकी बात नहीं मानी। आखिर दादी का इतना बड़ा परिवार होते हुए भी कोई अस्थि विसर्जन को आगे नहीं आया, न कोई बेटा, न कोई पोता,न कोई नाती,…..पंडित को दस गुना दक्षिणा देकर पास के एक नाले में ही दादी का अस्थि विसर्जन करवा दिया गया। रमेश की किसी के आगे एक न चली। सब काम खत्म होने पर रमेश वापस अपनी माँ के पास गया और बोला, “हाँ माँ, अब कहो क्या कहना था आपको?”
“हाँ बेटा, आज तेरी दादी के बारे में यह सब सुनकर मन में डर सा बैठ गया है। पता नहीं मेरे मरने के बाद मेरा अंतिम क्रियाकर्म होगा भी या नहीं!” माँ ने रोते हुए कहा।
“ऐसा क्यों सोचती हो माँ, क्या तुम्हें अपने बेटे पर बिलकुल भी भरोसा नहीं है।” रमेश ने माँ के आँसू पोछते हुए कहा।
“नहीं बेटा, मरने के बाद कौन क्या करता है, किसने देखा है? मैं चाहती हूँ कि तुम मेरे जीते-जी ही मेरा श्राद्ध मेरी आँखों के सामने करो। मैं सारे विधि-विधान होते हुए जीते-जी देखना चाहती हूँ। जीते-जी ही गंगा-स्नान करना चाहती हूँ। मेरी अंतिम इच्छा यही है। क्या तुम इसे पूरा कर सकते हो?” माँ ने कहा
रमेश ने कुछ सोचा और कहा, “तुम बिलकुल सही कह रही हो माँ, इंसान जीते-जी किसी को खुशी नहीं दे पाता और मरने के बाद दिखावे के लिए करोड़ो रुपए खर्च करके समाज को खिलाता है। पर आपको अगर खुशी मिलती है तो मैं आपकी खुशी के लिए आपकी इच्छा जरूर पूरी करूँगा।” इतना कहकर माँ की गोद मे सिर छुपाकर रोने लगा।