शख्सियत : रचना को मौलिक कहना भ्रामक
⚫ यह मानना है साहित्यकार रत्ना भदौरिया का
⚫ रत्ना भदौरिया स्टाफ नर्स हैं और आश्चर्य है इतनीे व्यस्त व्यस्तता के बावजूद कहानी लिखने का समय निकाल लेती हैं। कविता की अपेक्षा कहानी लिखने में समय बहुत अधिक लगता है। नर्स का जीवन मरीजों के बीच बीतता है और वह उनके शारीरिक ही नहीं पारिवारिक कष्टों को भी गहराई से जानती समझती है। यही कारण है कि इनकी कहानियां एक अत्यंत संवेदनशील गलियों और मुहानों से गुजरकर हम तक पहुंची हैं। ⚫
⚫ नरेंद्र गौड़
’रचना चाहे कहानी, कविता, चित्रकारी ही क्यों न हो उसे नितांत मौलिक और स्वनिर्मित कहना अपने आप में भ्रामक है। कोई भी रचना मौलिक नहीं होती, वह अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों व्दारा लिखी जा चुकी रचना से बहुत सारा ग्रहण करती है। प्रकृति हो या मानव, रचना उनके ज्ञात अज्ञात अवयवों का योग होती है। किंतु विभिन्न कारकों में से जो सर्वाधिक प्रमुख होता है श्रेय उसे ही दिया जाता है।’
यह कहना है उभरती हुई कहानी लेखिका रत्ना भदौरिया का। इनका मानना है कि पिछले तीन चार साल का समय दुःस्वप्न की तरह रहा था। शुरू में कोरोना और उसके बाद देश में राजनीतिक सत्ता की वजह से पैदा की गई अनेक समस्याएं। जाहिर है अपने समय से निरपेक्ष कोई भी संवेदनशील रचनाकार नहीं रह सकता है। इन तमाम बातों का प्रभाव रचनाओं पर अवश्य पड़ेगा। हाल ही में रत्ना जी का पहला कहानी संकलन ’सामने वाली कुर्सी’ छपा और चर्चित हो रहा है, इसमें इनकी छोटी-बड़ी 32 कहानियां संग्रहित हैं। लगभग सभी कहानियां अपने आसपास होने वाली पारिवारिक एवं सामाजिक घटनाओं का बयान करती हैं। इनमें आसपास के मित्र संबंधी सभी हैं। कुछ कहानियां आकार में बहुत छोटी लेकिन अर्थ और परिवेश की गहराई उन्हें बहुत बड़ा बना देती है।
कहानियों का वातावरण है सामाजिक
रत्ना भदौरिया स्टाफ नर्स हैं और आश्चर्य है इतनीे व्यस्त व्यस्तता के बावजूद कहानी लिखने का समय निकाल लेती हैं। कविता की अपेक्षा कहानी लिखने में समय बहुत अधिक लगता है। नर्स का जीवन मरीजों के बीच बीतता है और वह उनके शारीरिक ही नहीं पारिवारिक कष्टों को भी गहराई से जानती समझती है। यही कारण है कि इनकी कहानियां एक अत्यंत संवेदनशील गलियों और मुहानों से गुजरकर हम तक पहुंची हैं। कहानियों का वातावरण सामाजिक है, राजनीतिक नहीं।
मिला संरक्षण और मार्गदर्शन कथाकार मन्नू भंडारी से
उत्तरप्रदेश के रायबरेली जिले के गांव पहाड़पुर कासों, गंगागंज में रहने वाली रत्ना जी स्नातक और मेडिकल नर्स की परीक्षा उत्तीर्ण हैं। इनकी कहानियां, संस्मरण, लघुकथाएं हंस, उत्तरप्रदेश कथा मासिक सहित विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा हिंदी रचनाकार गूगल में भी इनकी अनेक रचनाएं देखी जा सकती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि वर्ष 2017 से 2021 तक इन्हें हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित कथाकार मन्नू भंडारी का संरक्षण तथा मार्ग दर्शन मिलता रहा हैं और उनसे इन्होंने बहुत कुछ सीखा और आत्मसात भी किया है। इन्हें भारत स्काउट गाइड में राष्ट्रपति अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा माधव सेवा संस्थान रायबरेली व्दारा महिला सशक्तिकरण सम्मान से भी नवाजा जा चुका है।
आसान नहीं है रत्ना जी का भी जीवन
रत्ना जी के इस कहानी संकलन में जीवन के अनेक रूप हैं और कहन की सहजता के कारण सभी कहानियां पठनीय हैं। कहानी की भाषा सरल और सहज है। इनमें स्वयं का जीवन संघर्ष भी है जो कि विविध पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है। यह कहानियां एक अतिसंवेदनशील रचनाकार से हमें परिचित कराने का माध्यम भी हैं। स्वयं रत्ना जी का जीवन भी आसान नहीं है, वह अनेक बीहड़ों और समाजिक विडम्बनाओं से भरा हुआ है। जाहिर है कहानियों के पात्र हमारे अपने समाज से आते हैं और यही कारण है कि उनकी तकलीफ हमें अपनी जैसी लगती है। एक छोटे से देहात में पैदा हुई रत्ना जी अनेक जद्दोजहद के बाद आज दिल्ली जैसे महानगर में नौकरी कर रही हैं और आश्चर्य यह कि कहानी जैसी कठिन विधा को अपनाए हुए हैं।
सामाजिक सरोकार रखती है कहानियां
इस संकलन की ’रंग’ कहानी पारिवारिक रिश्तों को लेकर लिखी गई है। जो समाज की पिछड़ी सोच को उजागर करती है। दूसरी जाति में शादी कर लिए जाने को लेकर परिवार की दकियानूसी सोच को व्यक्त करती यह कहानी हमें बहुत देर तक सोचने को मजबूर करती है कि हम कब तक ऐसे समाज का हिस्सा बने रहेंगे। ’प्रमाणपत्र’ कहानी एक बेटी की सफलता और उसकी संघर्ष करते रहने की अदम्य लालसा पर केंद्रित है। ’जीत’ कहानी पुरूष तथा नारी के संबंधों को लेकर है, जहां एक लेखिका को अपने पति के विरोध का सामना करना पड़ता है, क्योंकि पति रमेश नहीं चाहता कि उसकी पत्नी पढ़े लिखे और शोहरत हासिल करे। ’वक्त’ और ’संडास’ जैसी चार पांच कहानियां आकार में छोटी हैं।संकलन की उल्लेखनीय कहानियों की बात की जाए तो विघटन, स्वेटर, आंखों देखा, बीमारी, मां का साथ, ऐसा भी, सामने वाली कुर्सी, रश्मि चाची, परेशानी, करिश्मा, समझ, जिंदगी, हैसियत, वहीं मिलेंगे, पंद्रह मिनट, दरिंदे को शामिल किया जा सकता है।
गांव में सोच अभी भी पिछड़ी हुई लड़कियों को पढ़ाने लिखाने के मामले में
अपनी कथायात्रा के बारे में रत्ना जी का कहना है कि देश को आजाद हुए 77 साल बीतने के बावजूद भी उनके गांव में लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के मामले में लोगों की सोच पिछड़ी हुई है और वह जल्दी उसकी शादी कर देना चाहते हैं। इसके बाद भी उनके पिता और मां ने रत्ना जी की शिक्षा के लिए बहुत कुछ त्याग किया। इनका कहना है कि मन्नू भंडारी जैसी जानीमानी कथाकार का सानिध्य मिला। जिन्होंने लिखने के लिए प्रेरित किया। अपनी रचनाएं वह मन्नूजी को बताया करती थी और वही उनकी प्रेरक रही हैं। रत्ना जी का कहना है कि उनके जीवन का अविस्मरणीय क्षण वह था जब उनकी लधुकथा ‘हंस’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थी। इसी प्रकार ममता कालिया जी से भी भरपूर प्रोत्साहन मिला। जाहिर है रत्ना जी बहुत बड़ी कथाकार नहीं है, इनकी रचनाएं एक रचाव और कुछ बनाने की दिशा में कोशिश भर हैं। इनके शुरूआती लेखन से बहुत आगे जाने की अपेक्षा अवश्य है। यहां डॉ. संत लाल का उल्लेख करना आवश्यक है जिनका मार्ग दर्शन इन्हें मिलता रहा है। संकलन की सशक्त भूमिका भी इन्होंने ही लिखी है।
न केवल छपेंगे अपितु होंगे चर्चित भी
कानपुर के वन्या पब्लिकेशंस से प्रकाशित यह कहानी संकलन रत्ना जी का अंतिम नहीं है। भविष्य में भी इनके अनेक संकलन न केवल छपेंगे वरन चर्चित भी होंगे। इस कथा संकलन में एक बड़ी कथाकार होने की आहट सुनी जा सकती है। कहानियों में अनेक जगह जीवन का बहुत सरल और सहज लगने लगता है और कुछ कहानियां एकदम सपाट हैं, जबकि जीवन उथलपुथल से भरा अगर न रहे तो जीवन कैसा? कहानियां एकदम शुरूआती हैं और इन्हें लेकर बहुत सारी अपेक्षाओं का बोझ लाद देना बेमानी है।