पुस्तक समीक्षा : “रेगिस्तान में नागफनी” रचनाधर्मिता में दृष्टिगोचर होती प्रतिबद्धता
⚫ डॉ. डी.एस.संधु
रेणु अग्रवाल के इस काव्य संग्रह “रेगिस्तान में नागफनी” का समीक्षात्मक अवलोकन करने के पश्चात,रेणु के इस लेखन को लेकर कुछ बिंदु मेरे जेहन में उभरकर आते हैं । जिन्हें में यहाँ सांझा भी कर रहा हूँ कि इस काव्य संग्रह की कविताओं ने मुझे काव्यानंद तो दिया ही , साथ में यह शनैः-शनैः दृढ़तापूर्वक जीवंतता लिए मुझे अपने ही आस-पास घटित होने की अनुभूति से लवरेज करती हुईं जान पड़ती हैं।
इस काव्य संग्रह की प्रथम कविता से ही यह स्पष्ट सोच दृष्टिगोचर होता है कि यह कवियेत्री सच में ‘बहुत कुछ बनना चाहती हूँ मैं ‘ की रचना के माध्यम से संवेदनाओं को अपने जीवन में अपनाएं हुए ,ऐसी बूंद बनने की चाहत लिए हुए है जो धरती पर से सूखा मिटाने के वास्ते पृथ्वी की प्रत्येक नदी, तालाब को अपने आप में लवालव भरने की मानवीयता और परोपकार से सबकी प्यास बुझाने उन मेहनतकशों की हथेलियों की मुस्कान संवारते हुए रोजी-रोटी बनकर भूखों की भूख मिटाने, उनके दुःख बाटने के लिए बहुत कुछ करने की इच्छा जाहिर करती है।
सर्वप्रथम रेणु अग्रवाल की काव्य रचना ‘लक्ष्मीबाई’ मेरे पढ़ने में आई जो एक पुस्तक में अन्य साहित्यकारों के सम्मिलित संग्रह में थी जो इस संग्रह में भी 27वी कविता है। इस रचना ने रेणु अग्रवाल के रूप में अत्यंत सशक्त प्रतिभवान एवं संवेदनशील साहित्यकार से रू-ब-रू कराया। जिसमें एक ऐसी श्रमिक महिला पात्र को रचना के माध्यम से उकेरा है ,जो भूख और दरिद्रता के विरुद्ध संघर्ष करती अपनी पीठ पर बच्चे को बांधे निरंतर अपने वजूद की जंग ईट भट्टे के बीच लड़ते हुए किसी रानी झांसी से कम नहीं लग रही। कितनी ही इमारतों के पडावों पर लगे हैं उसके होने के निशान, सुबह की शुरुवात होते ही निकलती है वह अपने कर्मस्थली पर और शाम की लंबी परछाईयाँ पर रखते हुए अपने कदम आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे की ओर वापस लौटने के साथ प्रश्न चिंह खड़े करना निश्चित ही रेणु की संवेदनाओं को रेखांकित करते हुए साहित्य जगत की इस टिमटिमाती आकाश गंगा में ध्रुव तारे के समान ही स्थान दिलाती प्रतीत होती है।
मैं पूर्णरूपेण आश्वस्त हूँ कि रेणु अग्रवाल की रचनाधर्मिता में वो प्रतिबद्धता दृष्टिगोचर होती है जिसमें हिंदी के समर्थ रचनाकार के रूप में संवेदनाओं के साथ जीवन की विद्रुपताओं के अहसास को अत्यंत निकटता से देखने समझने की असीमित क्षमताएं है। जैसा की रेणु की रचनाओं को समीक्षा की कसौटी पर परखा जाये तो यह सामने आता है कि इनकी रचनाओं की यह विशेषता है कि लेखन में आदर्शवाद के साथ – साथ यथार्थता के रेखांकन उभरकर हमारे समक्ष अपनी मौलिकता के स्पष्ट बिम्ब दिखलाई देते हैं। ऐसी कितनी ही स्त्रियों के दुःख दर्द को महसूस किया है,जो अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में अपना सारा जीवन खफा देती हैं। कभी प्रेम में धोखा, कभी पति के जाने के बाद बच्चों को उनकी कामयाबी के पंख लगाने, दो वक्त का आहार जुटाने का हुनर सिखाती हुई कभी भी अविचलित हुए बिल्कुल भी नहीं घबराती, तथा प्रत्येक परेशानी को हंस-हंसकर जीती है ।किन्तु वापस नहीं लौटती। अपने उत्तरदायित्वों से ऐसी महिलाओं को अपने शब्दों में अदम्य हिम्मत को अपनी कलम की धार से स्त्री सशक्तिकरण के मोतियों को तराशकर पिरोती है।
“गुजरी हुई जिंदगी/बहती हुई नदी की धारा/ और दृढ़ निश्चयी स्त्री/कभी वापस नहीं लौटती है।
तनिक भी नहीं घबराती/मुस्कुराकर हर मुश्किल/ गले लगाकर जीती है लेकिन वापस नहीं लौटती हैं।”
हम जीते जी पूछ परख करते नहीं हैं और मृत होने पर फिर श्रृद्धा के ढ़ोग करने के बहाने हम छप्पन भोगों के साथ कौए, कुत्ते, पीपल, ब्राह्मण के रूप में खिलाते हैं। इन सब क्रियाकांडों के आडम्बरों पर तीखा व्यंग्य वाण चलाती हुई, बहुत ही दिलेरी से रेणु पूछती है कि इतना सब होने के बाद फिर क्यों हमें नहीं वो दिखाई देते, जिन्हें हम खिलापिला रहे हैं, इनके नाम का वो सभी जीव-जन्तु क्यों नहीं लेते उनकी खबर ?
“क्या सचमुच आते हैं/बरसों पहले अतीत का / हिस्सा हुए पुरखे।”
“हर बरस उन्हें याद करने का / एक बहाना है श्राद्ध।”
“गिद्ध और बाज झपटते हैं/ कई तरह से खरोंची जाती/ ये औरतें और लड़कियाँ/ ठेकेदारों की बंधुआ मजूर होती हैं।”
चाय के बागानों की महिला श्रमिकों के साथ तमाम तरह के शोषण की पीड़ा और रेणु की संवेदनशीलता को रेखांकित करती इन पंक्तियों से महसूस किया जा सकता है।
“चाय की पत्तियों के साथ /उनका भी दर्द उबलते हुए/दूध और पानी में अपना रंग छोड़ता है।”
रेणु इन सबके बीच निसंकोच यह कहती है कि मैं अभी धीरे -धीरे सीख रही हूँ , क्योंकि जिस मुकाम पर यह खुद को देखना चाहती है वो मंजिल अभी पहुँच से बहुत दूर है और यह साकारात्मकता है जो इस प्रतीभावान रचनाकार को साहित्य के क्षीतिज पर अपना स्थान अवश्य ही दिलायेगी।
“मंजिल दूर है अभी/और लंबा है सफर / सूरज की छाँव में मुझे/ दूर तलक जाना है।”
रेगिस्तान में नागफनी रेणु अग्रवाल का यह काव्य संकलन पाठकों को भरपूर काव्यानंद देगा। तथा उभरती हुई काव्य के इस हस्ताक्षर की असीम संभावनाएं आपके मन मस्तिष्क में सोचने को मजबूर करेगी। ऐसा मेरा विश्वास है।
⚫ डॉ. डी.एस.संधु
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‘रेगिस्तान में नागफनी’
लेखक : रेणु अग्रवाल ।
समीक्षक : डॉ.डी.एस.संधु
प्रकाशक: बुक्स क्लीनिक पब्लिशिंग,
बिलासपुर(छ.ग.)
ISBN:978-93-5823-256-1.
मूल्य : 270/₹
पृष्ठ संख्या :160