वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे साहित्य सरोकार : मां -

साहित्य सरोकार : मां

1 min read

डॉ. नीलम कौर

माँ तेरे कांधे सर रख रोने को दिल करता है,
कुछ पल तेरी गोद में
सोने को मन करता है।

याद है बचपन की
वो लोरी
भूख को भी सुला
देती थी,
कभी प्यार वाली
झिड़की
रोते-रोते हँसा देती थी,
खाली पतीली में
पकता पानी,
बिन तवे की रोटी भी
भूख मिटा देती थी,
आज वही बचपन के
दिन बुलाने का
मन करता है,
माँ तेरी लोरी सुन
भूखे ही सो जाने को
मन करता है।

तेरी मेहनत के सदके
अब भंडार मेरे भरे हुए,
हर रोज रसोई में
नित नव पकवान हैं
पकते,
मगर वो स्वाद जो
तेरी बातों का था
उबलते पानी के उबाल
में था,
तृप्ति थी तब पेट की
आज नहीं मिलती है,
बस उसी तृप्ति की चाह
में, तेरे दामन में आने
को मन करता है।

चोट जरा सी लगती
हमको,
दर्द से दिल तेरा
तड़पता था,
बहते लहू पर फिर
तेरी जर्जर धोती का
चीर ही बंधता था,
सच माँ तेरे आँसुओं में
दर्द हमारा बह जाता,
माँ तेरे आँचल का
चीर मुझे बहुत याद
आता है,
मन के जख्म बड़े
गहरे हैं,
तेरे दामन में छुप
रोने का मन करता है।

जब जरा हरारत होती
तू पीर,देव मनाती थी
खाली झोली फैला
लंबी उमर की दुआ
माँगती थी,
थे दिन कंगाली के
बहुत, मगर…..
तू कभी कंगाल न थी,
हमारी लंबी उमर
की खातिर
जिस्मानी दौलत
दाँव लगाती थी,
देकर हमको उमर लंबी
तू तो स्वर्ग सिधार गई,
तेरे आशिष के सदके
सबकुछ तो मेरे
पास रहा,
है हरारत में आज भी
तेरे दामन की ठंडी
छाँव में आने का
मन करता है,
माँ तेरे कांधे सर
रख के रोने का मन
करता है।

डॉ. नीलम कौर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *