विचार सरोकार : मां के देखे स्वप्न का दिव्य साकार रूप थे ‘स्वामी विवेकानंद
⚫ विवेकानंद की बुद्धि तर्कवादी थी वे हर बात को तर्क की कसौटी पर कसते थे और तब तक विश्वास नहीं करते जब तक वे संतुष्ट नहीं हो जाते इसलिए रामकृष्ण देव के उत्तरों से भी वे तुरंत संतुष्ट नही होते । परखे बिना वे रामकृष्ण देव को अपना गुरु स्वीकार नहीं कर सकते थे। ⚫
⚫ श्वेता नागर
12 जनवरी 1863 को धर्मपरायण और शिवभक्तिनी श्रीमती भुवनेश्वरी देवी और प्रख्यात वकील श्री विश्वनाथ दत्त के घर भारत की महान विभूति स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ । भुवनेश्वरी देवी ने स्वामी विवेकानंद के जन्म से पूर्व स्वप्न देखा था कि कैलाशपति शिव उनके सामने खड़े है और देखते ही देखते उस शरीर ने शिशु रूप धारण कर लिया ।वह शिशु उनकी गोद में आकर बैठ गया। इसलिए स्वामी विवेकानंद के जन्म के बाद शिव के ही नाम ‘बिले’ कहकर उन्हें पुकारा जाने लगा । बिले का राशि नाम’ नरेंद्र नाथ ‘ रखा गया । माँ के देखे स्वप्न का दिव्य साकार रूप थे ‘स्वामी विवेकानंद’।
नरेंद्र एक बहुत ही चंचल और शरारती बालक थे । वे पढाई और खेल दोनों में होशियार थे । उन्होंने वाद्य और गायन का भी प्रशिक्षण प्राप्त किया । साधु सन्यासियों का शुरू से ही उनके घर आना जाना था वे उन पर श्रद्धा भाव रखते थे । 1879 में दसवीं करने के बाद नरेंद्र ने कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया । उस समय का प्रसिद्ध कॉलेज था । उन्होंने दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया। लेकिन इसके साथ ही उनके मन में ईश्वर के अस्तित्व और अलौकिक जगत के बारे में भी जानने की तीव्र अभिलाषा जाग्रत हुई। ‘क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है ?’ इस प्रश्न को वे उन्हें जो भी विद्वान ,ज्ञानी और ध्यानी मिलते ,उनसे पूछते पर कोई भी इसका उन्हें सटीक जवाब नहीं दे पाता और उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता।
तर्कवादी थी विवेकानंद की बुद्धि
फिर एक दिन नरेंद्र रामकृष्ण देव से मिले वे माँ काली के मंदिर में एक पुजारी थे उनसे मिलकर भी विवेकानंद ने वही प्रश्न किया तब उन्होंने तुरंत जवाब दिया कि ‘ हां मैंने ईश्वर को देखा है जैसे मैं अभी तुम्हे देख रहा हूँ वैसे ही और इससे भी अधिक स्पष्ट ..’ रामकृष्ण देव के इस उत्तर ने उन्हें विस्मित कर दिया और वे रामकृष्ण देव की ओर आकृष्ट हो उठे ..फिर वे निरंतर उनसे मिलकर उनके आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति पर उनसे प्रश्न करते लेकिन विवेकानंद की बुद्धि तर्कवादी थी वे हर बात को तर्क की कसौटी पर कसते थे और तब तक विश्वास नहीं करते जब तक वे संतुष्ट नहीं हो जाते इसलिए रामकृष्ण देव के उत्तरों से भी वे तुरंत संतुष्ट नही होते । परखे बिना वे रामकृष्ण देव को अपना गुरु स्वीकार नहीं कर सकते थे। इसलिए एक दिन नरेन्द्र ने अपने गुरु की परीक्षा लेने की सोची।
आध्यात्मिक ज्ञान के आगे किया स्वयं को समर्पित
रामकृष्ण देव को भौतिक चीजों से लगाव नहीं था । भौतिक वस्तु का स्पर्श मात्र भी उन्हें विचलित कर देता था। उनके इस भाव की परीक्षा लेने के लिए एक दिन नरेंद्र ने जहां वे सोते थे उस बिस्तर के नीचे एक रुपय्या छुपा दिया। जैसे ही रामकृष्ण देव उस बिस्तर पर लेटे , एकाएक वे ऐसे उछले जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो । जब उन्होंने देखा कि ऐसा इसलिए हुआ कि किसी ने उनके बिस्तर के नीचे उनकी परीक्षा लेने के लिए यह सिक्का रखा था । और बाद में उन्हें पता चला ये काम उनके प्रिय शिष्य नरेंद्र का था । ऐसी कई परीक्षा नरेंद्र ने अपने गुरु की ली और फिर उनके आध्यात्मिक ज्ञान के आगे स्वयं को समर्पित किया । अपने गुरु के दिये दिव्य ज्ञान ने नरेंद्र को आगे चलकर ‘स्वामी विवेकानंद ‘ बनाया।
भारत के भूत ,वर्तमान और भविष्य का किया चिंतन
रामकृष्ण देव के संसार से विदा लेने के बाद उनके दिए गए सूत्र वाक्य ‘मानवता की सेवा ही प्रभु की सेवा है ‘को अपने जीवन का ध्येय बनाया और मानवता के कष्टों का अहसास करने के लिए स्वामी जी ने सम्पूर्ण भारत भ्रमण किया ।
अब उनके लिए मोक्ष यानी भारत की गरीब और पीड़ित जनता के कष्टों को मिटाना ही था । 24 दिसंबर 1892 को स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी पहुंचे। वे सागर में तैरकर एक वीरान चट्टान पर जा पहुंचे और साधना में लीन हो गए । वहां उन्होंने भारत के भूत ,वर्तमान और भविष्य का चिंतन किया।
विश्व के लिए कर गए ऐसा काम
फिर वह घड़ी भी आ गयी थी जिसका इंतजार बड़ी बेसब्री से पूरा भारत ,विश्व और दैवीय जगत कर रहा था । शिकागो की विश्व धर्म महासभा ,जहां स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु रामकृष्णदेव की आध्यात्मिक शक्ति के प्रकाश से सम्पूर्ण मानव जाति के अज्ञान का अंधकार दूर हुआ और एक नवीन सहिष्णु विश्व के निर्माण का आगाज हुआ ।
4 जुलाई 1902 में 39 वर्ष की युवा आयु में बेल्लूर मठ में स्वामी जी ने अंतिम सांस ली अपने जीवन के इतने अल्पकाल में वे भारत और विश्व के लिए वे काम कर गए शायद जिसके लिए सदियां भी कम पड़ जाएँ।