कविता : संगम के क़रीब ही तो हैं

⚫ कभी इन बहती नदियों के
संगम पर बैठकर देखिए
आपको फिर किसी संगम स्नान
और मोक्ष पाने की चाह नहीं रहेगी। ⚫

⚫ आशीष दशोत्तर

पता नहीं
लोग संगम क्यों जाते हैं ?
जबकि नदियां तो
यहीं बह रही है उनके आसपास ,
बिखेर रही हैं अपनी संपूर्ण आभा
देने को आतुर है अपना सब कुछ ,
अपना अनुभव , अपना धैर्य , अपना ज्ञान 
अपना स्पर्श  और अपना संपूर्ण ख़ज़ाना।

इन बहती नदियों के क़रीब
जाने की कोशिश तो कीजिए ,
ये नदियां आपको सराबोर कर देंगी
पवित्रता की बौछारों से
ये नदियां आपके तन को ही नहीं
आपके मन को भी धो डालेंगी,
मलिनता दूर कर पवित्र कर देंगी।

इन नदियों के बीच बैठकर
आप जो कुछ पाएंगे
वह आपके आने वाले वक़्त को ही नहीं
आने वाली कई नस्लों को शादाब करेगा ।

इन पवित्र नदियों के संगम के
साक्षी बनाकर देखिए ,
अनुभवों का अजस्र स्रोत खुल पड़ेगा ,
बरसों के वे चित्र सामने आ खड़े होंगे
जो कभी खींचे गए थे दिल के कैमरे से ।

ये नदियां बहुत पवित्र हैं
इन नदियों का पानी
किसी पात्र में एकत्र नहीं होगा ,
इसे अपने हृदय में एकत्र करना पड़ेगा ,
जितना एकत्र करेंगे प्यास उतनी बढ़ेगी
प्यास जितनी बढ़ेगी
नदियां उतना ही तृप्त करेंगी,
हर मौसम में लबालब भरी
ये नदियां कभी किसी को
ख़ाली हाथ नहीं लौटाती,
अभागे होते हैं वे
जो इन नदियों के तट पर
खड़े रहते हुए
प्यासे रह जाते हैं।

कभी इन बहती नदियों के
संगम पर बैठकर देखिए
आपको फिर किसी संगम स्नान
और मोक्ष पाने की चाह नहीं रहेगी।

(वरिष्ठ गीतकार, कवि प्रो. अज़हर हाशमी और वरिष्ठ कवि, अनुवादक प्रो. रतन चौहान के बीच अदबी गुफ्तगू को महसूस कर )

⚫ आशीष दशोत्तर

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