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परिवार की खामी खाती है पूरे समाज को

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त्रिभुवनेश भारद्वाज

(लेखक चिंतक व रचनाकार है)

एक मल्टीफ्लेक्स में पिक्चर देखते मध्यांतर होने पर लोग सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानकर टॉकीज में बैठी महिलाओं को ही देखते हैं। इसमें पढ़े लिखे, वयस्क, जवान, प्रौढ़ वृद्ध सभी होते है। क्या ये नैसर्गिक कुंठा नहीं है समाज की? मानसिकता सार्वजनिक स्थानों पर देखिएगा। एक महिला अगर अकेली है और कुछ सजीधजी है तो उसे कितनी नज़रे भेदती, फाड़ती, नोचती है। दरअसल हमारी शिक्षा में वो बीज ही नहीं, जो समाज को एक सुरक्षित शीलवान और सच्चरित्र भविष्य दे सके।

कुंठाओं की तृप्ति में लग जाते हैं वे भी

मेरे एक मित्र एक बड़े को एज्युकेशन स्कूल के प्राचार्य है उनसे वेदना सुनी तो पता चला आज भी लड़के-लड़कियों को साथ पढ़ाना मुश्किल है। कुछ अपरिपक्व शिक्षक तक अपनी इमेज और ओहदा भूलकर कुंठाओं की तृप्ति में लग जाते हैं।

स्कूल सुरक्षित नहीं रहेंगे तो सच्चरित्र समाज तैयार होगा क्या?

हम कहते हैं समाज को सुविधाओं ने बिगाड़ दिया है लेकिन बात सुविधाओं से अलग दुविधाओं की है। निश्चित भावनाओं के अपने रंग और संस्कार प्रदत्त स्तर है, जो वक्त पड़े सामने आते हैं। स्कूल सुरक्षित नहीं रहेंगे तो सच्चरित्र समाज क्या तैयार होगा। एकांत और अवसर पाकर वासनाएं विकराल रूप ले सकती है लेकिन अंदर बैठे मजबूत संस्कार है तो कुछ भी अप्रिय नहीं हो सकता।क्योंकि कोई पुलिस हर आदमी औरत की रखवाली नहीं कर सकता।

मगर शिवाजी जैसा चरित्र भी देने का करें प्रयास

संस्कार ही रखवाली करते हैं। स्कूल समाज की नर्सरी है और आज पूरे समाज को स्कूल पर ध्यान देना चाहिए। घर परिवारों में बच्चों को आत्म रक्षा घुट्टी में दे मगर शिवाजी जैसा चरित्र भी देने का प्रयास करें। परिवार की खामी पूरे समाज को खाती है। जिस डॉक्टर से सामूहिक बलात्कार कर जिंदा जलाने की जघन्यता कुछ कमीने युवाओं ने की है, वो उनके परिवारों की भूल है। अच्छे संस्कार होते तो महिला को बहिन मानकर सुरक्षित घर छोड़ कर आते लेकिन संस्कार तो वहशी थे, इसलिए वो हुआ जिसे देखकर पूरा देश सहमा हुआ है।

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