कोरोना के संकटकाल में हर व्यक्ति समझे धर्म का मर्म : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज
1 min readहरमुद्दा
रतलाम,10 मई। धर्म का काम किसी का मत बदलना नहीं होता, अपितु मन जीवन और हदय बदलता है। जीवन में जब धर्म उतरता है, तो अहंकार, आग्रह और आवेश की ग्रंथियां अपने आप खुल जाती है। धर्म वहीं होता है, जहां जीव मैत्री, सह अस्तित्व और सदाचार होते है। धर्म सहिष्णुता की ऐसी उजली चादर है, जो दूसरों की अप्रियताओं को ढांक देती है। धर्म का संबंध धन से नहीं जीवन से होता है। जीवन में संस्कारों का जागरण भी धर्म से होता है। धर्म के मर्म को जो नहीं समझते, वे भारी भूल करते है।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव प्रज्ञानिधि,परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि धर्म और धर्मान्धता में अंतर है। मैं ही सच्चा और अच्छा हूं बाकि सब झूठे और बुरे है, यह धर्मान्धता है,क्योंकि धर्म कभी किसी को झूठा या बुरा नहीं कहता है। धर्मान्धता कटुता, कटटरता और कलुषितता पैदा करने वाला अधर्म है। धर्म जब धर्मान्धता से संयुक्त होता है, तो अधर्म से अधिक खतरनाक हो जाता है। धर्मान्धता ने ही सारे बैर, विवाद, विरोध और विद्वेष पैदा किए है। कोरोना के इस संकटकाल में हर व्यक्ति को धर्म का मर्म समझने की चेष्टा करना चाहिए, ताकि संकट से जल्द से जल्द छुटकारा मिल सके।
उन्माद पर अंकुश लगाता है धर्म
आचार्यश्री ने कहा कि धर्म उन्माद और प्रमाद पर अकुंश लगाता है। उससे मानव को जीव मात्र के प्रति सहृदय और संवेदनशील होने की पावन प्रेरणा मिलती है। जिस व्यक्तिा का अंत करण धर्म से भावित हो जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है। जितने भी सदविचार और सदाचार है, वे धर्म को सर्वांगीण बनाते है। नाम और उपासना पद्धतियां अलग-अलग हो सकती है, लेकिन इनके आधार पर कोई भी धर्म छोटा-बड़ा नहीं होता। ज्ञान, दर्शन, आनंद और शक्ति के साथ जो एकरसता है, वह धर्म है। अपने स्वार्थों की पूति के लिए जो लोग धर्म को माध्यम बनाते है, उनकी आत्मा खो जाती है। धर्म स्वार्थ पूर्ति में नहीं स्वार्थों के बलिदान में है। स्वार्थी मनोवृत्ति अधम होती है और सारे अधर्मों की जनक होती है। स्वार्थ, महत्वाकांक्षा, पद, सम्मान की लिप्सा दूर रहकर ही धर्म की विशुद्धता को कायम रखा जा सकता है।
कोई मेल नहीं धर्म और पाखंड का
आचार्यश्री ने कहा कि धर्म कैंची नहीं है और कैंची का काम भी नहीं करता। वह सुई की तरह दो फटे दिलों को जोड़ता हैं। धर्म एक अखंड चेतना है, जब वह खंड-खंड होती है, तो उससे पाखंड पैदा होता है। धर्म और पाखंड का कोई मेल नहीं है। पाखंडियों ने धर्म को जितना बदनाम किया है, उतना अधर्मियों ने नहीं किया। धर्म व्यक्ति के अंतकरण में है, पर उसका प्रतिबिम्ब व्यक्ति के व्यवहार पर पडता हैं। व्यवहार जब तक समता मूलक नहीं होता, तब तक धर्म का जीवन में अवतरण होना नहीं कहा जा सकता। समता धर्म है और विषमता अधर्म है। सहिष्णुता, विवेक और धेर्य सभी धर्म के व्यवहार है। इन्हीं से किसी व्यक्ति के धार्मिक होने की पहचान होती है। अपने जीवन में जो भी इन तीन सूत्रों को अपना लेता है, उसे धार्मिक होने से कोई रोक नहीं सकता। चाहे वह किसी भी जाति, पंथ, परम्परा या देश में जन्म लेने वाला हो। हर व्यक्ति को धर्म का मर्म समझकर उसका आचरण करना चाहिए। इससे ही मानव और मानवता को बचाया जा सकता है।