हे राजन! इन शकुनियों को गांधार भेजो!
डॉ. विवेक चौरसिया
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देश में जितने भी अवांछित हैं उन्हें तत्काल देश से निकाल देना चाहिए अन्यथा ये देश में रहकर देश को दीमक की तरह चाटते रहेंगे! देश के सारे भीष्म, सारे द्रोण, सारे कृप, सारे विदुर चाहते हैं कि ‘राजा’ ऐसे सारे अवांछित शकुनियों पर भी तत्काल भ्रू-भंग करें। इनकी उपेक्षा से देश में नए द्यूतपर्व रचे जाने और नए कुरुक्षेत्र गढ़े जाने का ख़तरा बरकरार है!
महाभारत में शकुनि कुरुकुटुंब का एकमात्र अवांछित सदस्य है। कथा है कि जब भीष्म अपने भतीजे राजकुमार धृतराष्ट्र के लिए गांधारराज सुबल के पास उनकी बेटी गांधारी का हाथ माँगने गए तो राजा भावी जमाता को अंधा जान राजी न हुआ। मगर महाबली भीष्म के भय से उसने छह बेटों में सबसे बड़े शकुनि के साथ गांधारी को धृतराष्ट्र से ब्याहने ‘सहर्ष’ रवाना कर दिया।
हस्तिनापुर आकर शकुनि ने अंधे धृतराष्ट्र से बहन का विवाह तो करा दिया किंतु ‘डर में अंधे से बहन ब्याहने की फाँस’ दिल से न निकाल पाया। भाई पाणिग्रहण कराकर गांधार लौटा लेकिन बहन के कुल में कलह का मंसूबा पाले वापस हस्तिनापुर आ गया। फिर तो महाभारत युद्ध के अंतिम दौर में सहदेव के हाथों मौत के घाट उतारे जाने तक वह अवांछित सदस्य हस्तिनापुर में ही पड़ा रहा।
इतिहास साक्षी है यदि शकुनि न होता तो दुर्योधन का पाप वृक्ष इतना न फलफूल पाता। महायुद्ध में मानवता का महाविनाश न हुआ होता। शकुनि ने जीवन भर हस्तिनापुर के अहित की कामना से परिवार में नफऱत के बीज बोये जो आगे चलकर अनगिनत अर्थियों के फल बन सामने आए।
महाभारत कहती है शकुनि द्वापर कर अंश से उत्पन्न हुआ था। मतलब उसमें न सतयुग का सत्य था न त्रेता का पराक्रम! उसका सारा बल छल में ही था। उसने अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने के लिए अपने छल-बल का भरपूर उपयोग किया और कपटपूर्वक द्यूतपर्व रचाकर पाँसों के सहारे सगी बहन के सारे कुल को युद्ध की आग में झोंक दिया। बल का इस्तेमाल उसकी औक़ात नहीं थी। इसलिए उसने छल-कपट से ही सबको मौत के मुँह में पहुँचा दिया।
शकुनि महाभारत का एक पात्र भर नहीं है। वह एक वृत्ति, एक चरित्र, एक स्वभाव है। जिसके सिरे त्रेता में रामकथा की ‘अपजस पोटली’ मंथरा से और कलयुग के भारत में मीरवाइज और ओवैसियों से आकर जुड़ते हैं।
यूँ समझिए कि शकुनि एक जात है, दीमक जिसका गोत्र है और नमकहरामी ही जिसका धर्म! इनके भीतर धँसी नफ़रत और बदले की फाँस इतनी ज़हरीली है कि उसके जुनून में ये अपने परिजनों तक की ज़िंदगी दाँव पर लगाने में नहीं हिचकेंगे। शकुनि के भी सारे छह भाई और दर्जनों बेटे-भतीज़े महाभारत की लड़ाई में मारे गए पर वह अपने मूल द्वापर-धर्म से बाज़ न आया था।
घर के सारे सयानों ने धृतराष्ट्र से हाथ जोड़कर प्रार्थना की थी कि हे राजन! इस दोगले शकुनि को वापस गांधार भेज दो। ये ही सारे फ़साद की जड़ है, लेकिन राजा ने न सुनी!
तब द्वापर की एक रक्तरंजित महाभारत पूरी हुई, आज भारत में कलयुग की नई महाभारत छिड़ी हुई है। देश संकट में है और घर में ही असंख्य अवांछित शकुनि पड़े हैं। जो कोने-कोने में फैल कर दीमक बन देश से दग़ा करने से बाज़ नहीं आ रहे।
जो देशभक्त हैं वे सदा सर्वदा देशवासियों के प्रिय, पूज्य और वांछित हैं। जो देश में रहकर दग़ा करते हैं वे सब अवांछित! सारे सच्चे एपीजे अबुल कलाम और अच्छे बिस्मिल्लाह खाँ भारत की शान हैं। ऐसे सब सच्चे और अच्छे जिनकी ईमानदार वतनपरस्ती से देश का गुलशन गुलो-गुलज़ार बनता है, वे सब सदा हमारे सिर आँखों पर रहेंगे लेकिन टुच्चे गिलानी और ओछे अब्दुल गनी बट जैसे शकुनि देश के कलंक हैं। इन सारे कृतघ्न हामिद अंसारियों और एहसान फ़रोश अमीर ख़ानों को बसों में भरकर उनकी वांछित सीमाओं पर छोड़ आने की घड़ी आ गई है।
वे सब जो कश्मीर में सेना की सख़्ती पर मानवाधिकार का राग अलापते हैं, वे सब जिन्हें भारत माता की जय कहने में शर्म आती है, वे सब जिनकी जुबानें भारत भाग्य विधाता कहने में हकलाती है…अब उन सबकी जुबानें खींचकर उन्हें ‘गांधार’ भेज देने की ज़रूरत है।
इसलिए कि किसी भी परिवार, समाज या राष्ट्र को प्रत्यक्ष शत्रु से उतना ख़तरा नहीं होता जितना इन अवांछित शकुनियों से होता है। सीमा पर खड़ा शत्रु तो साफ़ दिखाई देता है लेकिन घर के भीतर रहने वाले शकुनि सबके बीच सीधे-सादे बने रहकर सबको रणभूमि में धकेल देते हैं।
धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में शकुनि को देश निकाला न दिया तो अंत में ख़ूब पछताया। क्षमा कीजिए! पहले दिन से हमारे ‘राजा’ भी कुर्सी के मोह में आँखों पर पट्टी बाँधे इन शकुनियों को गोद में बैठाए हुए हैं।
पुलवामा कांड के बाद बीते कल राजा की नेत्र-पट्टिका में पड़ी ढील जन गण मन के लिए सुखदायी है। कश्मीर के कथित अलगाववादी नेताओं और असल में शकुनि की नाजायज़ औलादों से उठाई गई सरकारी सुरक्षा के बाद आश्वस्त हुआ जा सकता है कि राजा देश के भीष्म, द्रोण, कृप और विदुरों के अंदेशों और इशारों को समझ साल 1947 से ‘भारत के सिंहासन’ की आँखों पर बंधी पट्टी ही नहीं खोलेगा, पूरी तरह खोलकर इन पर अग्नि-अक्ष भी तरेरेगा।
इसलिए ‘हे राजन! जिस-जिस को जन गण मन गाने से गुरेज़ है, कृपा कर उन शकुनियों को गांधार रवाना करो!’ये न भेजे गए तो हम भी एक दिन हम भी धृतराष्ट्र की तरह पछताएंगे!