सच और झूठ
त्रिभुवनेश भारद्वाज
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सच
नहीं भाई नहीं चाहिए
आगे जाइए
यहाँ कोई सुनने वाला नहीं
सब तरफ निपुण व्यवसायी हैं
सच की कीमत कौन चुकाएगा
यहाँ फुर्सत में कोई नहीं
जो रोटी रौंदकर मुसीबत लाएगा
झूठ
ये खूब बिकेगा
इसके सब तलबगार है
सच कहे और सुने ज़माना हुआ
अब तो झूठन खाने
झूठ की जय गाने
की आदत हो गई है
सच
यहाँ किसी को
फूटी आँख नहीं सुहाता
अरे वो तो निरा सूरदास है न
पर अपने आपको दिव्य नयन बताता
सारा बाज़ार
पटा है झूठी चीजों से
उधर प्रेम कुटिया में
सच में झूठ का प्रेम चल रहा है
इधर देखो यहाँ गारा
सोना बता कर बिक रहा है
जाओ भाई जाओ
यहाँ ये झांसा नगर
मिथ्या डगर
मदहोश गली है
यहाँ हरीश चन्द्र की नहीं चली
तो तुम्हारी क्या चलेगी
सच कितना बेबस हो गया है
आज की कलम