ज़िन्दगी अब- 17 : बोझ तले : आशीष दशोत्तर
बोझ तले
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🔲 आशीष दशोत्तर
बीच बाज़ार में उसकी ठेला गाड़ी पर रखे बोरे फिसल कर गिर गए। ठेला गाड़ी के दोनों तरफ बोरे गिरने से पीछे का ट्रैफिक जाम हो गया। लोग जोर-जोर से हार्न बजाने लगे। कुछ ने कहा, कितना सामान भर लेते हो इतनी सी ठेला गाड़ी में। इतना सामान कैसे ले जाओगे। किसी ने सुझाव दिया, ले जाना ही है तो रस्सी से बांध लिया कर। एक ने कडक आवाज़ में कहा, अब खड़ा-खड़ा देख क्या रहा है, उठा इन्हें।
यह नेक सुझाव देने वाले वे लोग थे जो अपने दो पहिया वाहन पर बिना मास्क के सवार थे और उसके बिखरे हुए बोरों के बीच से अपने वाहन को निकालने की कोशिश कर रहे थे। चंद पलों में उसने अपनी बोरियों को ठेले के पास खिसका लिया और ट्रैफिक फिर से ठीक हो गया। गिरे हुए बोरो को वह फिर से ठेले पर जमाने लगा। ठेले को सड़क के किनारे लाकर, उसने ठेले के नीचे रखी रस्सी से सभी बोरों को बांधा और दो घड़ी सुस्ताने के लिए बैठ गया।
यह दृश्य देख मुझसे रहा नहीं गया। मैं उसके क़रीब पहुंचा। पूछा, इतने सारे बोरे एक थैला गाड़ी में लेकर क्यों जाते हो? तुम्हारी हालत देखकर लगता नहीं कि इतना बोझ तुम उठा पाओगे। उसने एक वाक्य में मेरी सारी सहानुभूति को आईना दिखा दिया। उसने कहा , जीने के बोझ के आगे यह बोझ क्या है ,बाबूजी। जीवन जीने के लिए ऐसे बोझ उठाना तो हमारे नसीब में लिखा है।
यह कहकर उसने अपने ठेले के नीचे रखी पानी की बोतल निकाली और बैठकर पानी पीने लगा। मैंने कहा गर्मी का मौसम है ,ऐसे में इतना सारा सामान एक साथ क्यों ले जाते हो। थोड़ा-थोड़ा ले जाया करो। वह कहने लगा ,यह सामान मेरी एक बार की मजदूरी के लिए तय है। इससे कम सामान अगर ठेला गाड़ी में में ले जाता हूं तो मजदूरी कट जाती है। यह बात सुन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मजदूरी का यह कौन सा नियम है, इसका उल्लेख तो किसी सरकारी पत्र में भी कभी देखने को नहीं मिला। उसकी बात में मेरी रुचि जागी। मैंने कहा एक बोरा इसमें अगर कम ले जाओगे तो मजदूरी कैसे कम होगी ? उसने कहा, जहां का सामान मैं ले जाता हूं वहां के व्यापारी ने मेरी ठेला गाड़ी की एक ट्रिप के लिए इतने बोरे निर्धारित कर रखें हैं। इसी आधार पर वह मुझे दिनभर का मेहनताना देता है। दिन भर में उसकी दुकान से इतने ही बोरे भरकर मुझे अलग-अलग स्थानों पर ले जाने पड़ते हैं। दिन भर में पंद्रह ट्रिप करना होती है। इतना करने पर मुझे दिन भर की मजदूरी मिल पाती है। अब आप ही बताइए कि मैं बोरे न ले जाऊं तो क्या करूं। उसकी हालत और उसकी बात सुन मुझे उस पर काफी दया भी आ रही थी और आत्मग्लानि भी हो रही थी कि हम ऐसी व्यवस्था में जी रहे हैं जहां ऐसे लोगों के लिए बातें और घोषणाएं तो तो काफी है लेकिन हक़ीक़त में कुछ नहीं है।
यह मजदूर पास के किसी गांव में रहता है। वहां से रोज साइकिल चलाकर शहर में आता है ।शहर में व्यापारी ने उसे ठेला गाड़ी किराए पर दे रखी है, जिसका दिन भर का किराया वह व्यापारी को ही देता है। आते से ही उसकी मजदूरी शुरू हो जाती है। जहां-जहां सामान भिजवाना है वहां के लिए वह ठेला गाड़ी में बोरे भरना शुरू करता है। उन स्थानों पर पहुंचाता है। शाम होने तक उसका यह सिलसिला जारी रहता है। बीच में आधे घंटे के लिए वह अपने साथ लाया टिफिन खाता है और फिर अपने काम में लग जाता है। इस पूरे दिन भर के काम के उसे तीन सौ रुपए मिलते हैं। कभी ट्रिप कम होती है या निर्धारित बोरे ठेला गाड़ी में वह नहीं रख पाता है तो इसमें कटौती भी हो जाती है। उसकी जरूरतों , बीमारियों आदि से व्यापारी को कोई लेना देना नहीं। पिछले तीन महीनों के दौरान उसने जो कुछ भोगा वह काफी दर्दनाक था। काम नहीं होने से उसकी हालत ख़राब थी। जैसे-तैसे यह काम शुरू हुआ। इसलिए वह चाहता है कि अपने ट्रिप की संख्या और बढ़ाए ताकि उसे कुछ अधिक मजदूरी मिले। जिससे वह बीते महीनों में लोगों से लिए कर्ज को चुका सके।
यह दर्दनाक दास्तान एक मजदूर की नहीं। ऐसे अनेकों मजदूर हैं, जिन्हें हम और आप हर दिन बाज़ार से गुज़रते देखते हैं। जिनकी ठेला गाड़ियों पर ज़रूरत से ज्यादा सामान लदा होता है। जिनके शरीर से बहते पसीने और पैरों के छाले हमें कभी नहीं दिखते। चढ़ाई पर अपनी ठेला गाड़ी को पूरी ताक़त के साथ चढ़ाते इन मजदूरों के प्रति हमें कभी कोई दर्द नहीं होता।
अलबत्ता हमारी राह में अगर कभी इनकी ठेला गाड़ी आ जाती है तो हम इन्हें भला-बुरा कहते हुए सड़क के एक तरफ ठेला गाड़ी चलाने की नसीहत दे डालते हैं। इन सभी परिस्थितियों में ये मजदूर अपनी जिंदगी जी रहे हैं । वर्तमान परिस्थितियों में इनकी हालत और ख़राब है। ये मजदूर किसी घोषणा, किसी पैकेज, किसी राहत, किसी सहायता, किसी सहूलियत, किसी मदद के इंतज़ार में यूं ही अपनी जिंदगी का बोझ उठा रहे हैं।
🔲 आशीष दशोत्तर